उसने पानी से भरी 20 लीटर की बोतल को कंधे से उतारकर फर्श पर रखा और आवाज़ दी- “जी पानी ले लो”। मैं बाहर आया तो देखा 13-14 साल का एक किशोर खड़ा है। दुबली-पतली देह, फटी कमीज़ और रूखे बालों वाला ‘किशोर’। मैंने आवाज़ देकर घर के किसी सदस्य से पैसे मंगवाए और उसके हाथ में दिए। वह लौटने के लिए मुड़ा ही था कि मैंने उससे पानी पीने के लिए पूछा। उसके इंनकार करने पर मैंने उससे दूसरा सवाल कर दिया- “क्या तुम पढ़ते हो बेटा ?” उसने झेंपते हुए मेरी और देखकर कहा- “जी हां, पढ़ता हूँ?” मेरे यह पूछने पर कि वह किस क्लास में पढ़ता है उसने बताया कि वह छठी कक्षा में पढ़ता है। कहां पढ़ते हो? उसने बताया सीतापुर। तो क्या आजकल स्कूल बंद है? उसने कहा हां आजकल बंद है। तो आजकल पानी पहुंचाने का काम कर रह हो? जी हां? तुम्हें कितने घंटे काम करना होता है? जी, 24 घंटे। यानि! हमें 24 घंटे काम करना होता है। मालिक हमसे कभी भी काम ले सकता है। तो फिर तुम सोते कहां हो? काम की ही जगह पर। इस काम के बदले तुम्हारा मालिक या मालकिन तुम्हें कितना पैसा देता/देती है? छः हज़ार रूपये। मैं चौंका। क्या तुम्हें 24 घंटे काम करने के बदले सिर्फ छः हज़ार रूपये ही मिलते हैं। जी हां। क्या अब स्कूल जाओगें? जी 25 तारीख को स्कूल खुलेंगे, तब चला जाऊंगा। इतनी बात करके मैंने अनायास ही उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-ठीक है बेटा। यह सुनकर वह चला गया।
इस बातचीत ने मुझे इस सामाजिक तथ्य के साथ तीखा साक्षात्कार करवाया कि बाज़ार ने जिस ग्राहक को भगवान का दर्ज़ा दे रखा है वास्तव में उस ग्राहक के जबड़ों में, पानी लेकर आए इस किशोर जैसे कई किशोरों, औरतों, मर्दों और किशोरियों का खून लगा हुआ है। ग्राहक को सस्ते से सस्ते में सेवा प्रदान करने और वस्तु बेचने का दावा करने के लिए बाज़ार, उस किशोर के जैसे कई लोगों के श्रम और सपनों की हर बूंद को निचोड़ लेता है।
सस्ती दर पर सेवा और वस्तु मिल जाने पर ग्राहक को राहत मिलती है। लेकिन बाज़ार शोषण के जिस नियम पर काम करता है, उस नियम के कारण सस्ती सेवा पाने वाला या पाने वाली वह ग्राहक कभी भी उस किशोर की सी हालत को प्राप्त हो सकती है। जैसे हर शोषणकारी व्यवस्था किसी-न-किसी नैतिकता को गढ़ती है, उसी तरह बाज़ार ने ग्राहक सर्वोपरि है की नैतिकता को गढ़ रखा है। जहां एक ओर बाज़ार ग्राहक की संतुष्टी का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर वह कामगार के मौलिक अधिकार को हाशिए पर धकेलकर स्वयं को टिकाता है। बाज़ार के इस व्यवहार का थोड़ा सा विश्लेषण करने पर पता चलता है कि ग्राहक के सामने नरम और कामगार के सामने सख्त होना उसके एक बुनियादी सिद्धांत को समझने में मदद करता है। यह बुनियादी सिद्धांत है- अधिकतम लाभ कमाने का। ग्राहक की चिरौरी करना और कामगार के न्यूनतम अधिकारों को कुचलना बाज़ार के बुनियादी सिद्धांत से निकलने वाले व्यवहारिक पक्ष हैं।
उस किशोर को हर दिन 24 घंटे काम करने के बदले एक महीने में 6000 रूपये मिलते हैं। यानि हर 24 घंटे काम करने के लिए 250 रूपये। यानि हर आठ घंटे काम करने के लिए 83 रूपये 30 पैसे। दिल्ली में अकुशल कामगार के लिए निर्धारित प्रतिदिन की न्यूनतम आय की तुलना में प्रतिदिन 265 रूपये कम। मोदी सरकार की ‘कृपा से अब 13-14 साल के किशोर को बाल मज़दूर नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि इस सरकार ने परिवार की मदद करने के लिए बच्चे और बच्चियों के काम करने को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसका सीधा लाभ बाज़ार को सस्ते में श्रम नियंत्रित कर लेने के रूप में मिल रहा है। ऊपर की गई गणना को यदि ओवर-टाइम यानि 8 घंटे के बाद किए जाने वाले काम के बदले मिलने वाले पैसे की दर के अनुसार फिर से किया जाए तो उस किशोर को दिए जाने वाले पैसे और उसे अधिकार के साथ मिल सकने वाले पैसे में अन्तर और भी बढ़ जाएगा।
बाज़ार के संदर्भ में यह तर्क पेश किया जाता है कि वह आज़ादी का प्रतीक है। लेकिन किसकी आज़ादी? तब कहा जाएगा कि ग्राहक की आज़ादी कि वह जहां से चाहे सामान या सेवा खरीद सकता या खरीद सकती है। परन्तु ग्राहक को लुभाने के लिए बाज़ार के अलग-अलग खिलाड़ी अपने सामान का दाम कम होने को आधार बनाते हैं। ऐसा लगता है कि कम दाम पर सेवा और सामान लेने की आदत का दास बनाकर ग्राहक देवता को संवेदनहीनता के उस स्तर तक पहुंचाया जा रहा है, जहां उसे कामगार का शोषण दिखना ही बंद हो जाए।
यह नए किस्म की मूल्य या नैतिक शिक्षा है। बाज़ार के वर्चस्व पर टिकी, शोषण आधारित नैतिक शिक्षा। जिस के कुप्रभावों पर नैतिकता के झंडाबरदार सोची समझी चुप्पी साधे हुए हैं।