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पुरुषवादी सोच, खुद पर पर्दा डालने के लिए औरतों को ही औरतों का दुश्मन बताना बंद करो!

शिवानी फिर से पेट से थी, 3 बेटियों और 2 बार गर्भपात के बाद उसके न चाहते हुए भी उसके पति ने बच्चे की लिंग जांच करवाई। इस बार भी लड़की ही थी यह बात पता चलते ही रवि ने फिर शिवानी को बच्चा गिराने को कहा, वो इसके लिए राज़ी नहीं थी पर फिर भी ज़बरदस्ती उसका बच्चा गिरा दिया गया और इस दौरान ज़्यादा खून बह जाने के कारण शिवानी की मौत हो गयी।

शिवानी की अचानक मौत से मोहल्ले में अफवाहों का गुबार निकल पड़ा और घुम फिर के सब का सार इस पर पहुंचता कि शिवानी की सास को लड़का चाहिए था। पहली लड़की के बाद से ही शिवानी की सास उसे लड़के के लिए ताने देने शुरू कर दिए थे और अपने बेटे को बार-बार जांच करवाने के लिए कहने लगी। इस बार भी लड़की थी तो उसे मरवा दिया, हां बार-बार गर्भपात से कमज़ोर हो चुकी शिवानी इस बार नहीं सह पाई और उस की मौत हो गयी।

ऐसी कोई कहानी या ये कहें कि घटना आपने शायद सुनी होगी, दावा तो नहीं लेकिन संभावनाएं ज़्यादा इसलिए है, क्योंकि हमारा समाज कुछ ऐसे ही दौर से कई दशकों से गुज़रा है। शिवानी की कहानी में ऐसा कुछ भी नया नहीं है जो आपने नहीं सुना होगा, नाम चाहे भले ही सीता-गीता मोनिका या कविता हो पर कहानी एक जैसी ही है।

हमारे इन आसपास की कहानियों को एक नए रूप में टीवी पर कभी न खत्म होने वाली “सास बहू की सीरीज़” के रूप में हमारे सामने रखा गया। छोटी बहू, बड़ी बहू, देवरानी, जेठानी, साली, मां, बुआ जैसे रिश्तों से हमारा परिचय इस तरह से करवाया गया जिससे हमारा खुद का परिवार शक के दायरे में आ गया।

और इन सब बातों का निष्कर्ष हमने एक लाइन में यह निकाला, “औरत ही औरत की दुश्मन होती है।”

जैसे ही हमारे आसपास कुछ भी हुआ हमने सीधे कह दिया “इन औरतों के बीच तो पटती नहीं है खुद ही दुश्मन है एक दूसरे की” हर दायरों में हम ने ये बात फैलाने की कोशिश की।

पर क्या सच में यह स्थापित की जा चुकी बात सच है ? क्योंकि इसकी आड़ में हम बहुत सारी बातें छुपा लेते हैं।

सन् 2012 में दिल्ली में मानवता को हिला देने वाली घटना के बाद जैसे ही बहस के केंद्र में महिला अधिकारों की बात आई तो चर्चा इस तरह सिमटने लगी कि महिलाएं ही नहीं चाहती कि महिलाओं का विकास हो तभी वह कभी महिला अधिकारों पर खुलकर बात नहीं करती और इस बात को स्थापित करने के लिए कई स्तर पर तथ्य भी दिए गये।

हमारा समाज सदियों से पितृसत्ता के बन्धनो में जकड़ा हुआ है। परिवार में निर्णय केंद्र हमेशा से पिता ही रहे हैं। हर सत्ता के केंद्र में हमेशा से ही कोई पुरुष रहा है। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति क्या है यह बात बताने की शायद मुझे अलग से ज़रूरत नहीं है।

परिवार का वातावरण, स्कूल और कॉलेज का माहौल, घर में निर्णय लेने का केंद्र बिंदु, पैसों का वितरण हमारे सोचने कि पूरी प्रक्रिया पर बहुत असर डालता है। किसी भी लड़की के जन्म के बाद से जब कभी भी उसने अपने निर्णय कभी खुद लिए ही नहीं, जैसा उसे कहा गया सिर्फ वही उसने किया, यहां तक कि उसके सारे दायरे हमने खत्म कर दिए उसके बाद कैसे हम उम्मीद करते हैं कि उसकी जो सोच हो उसमें पितृसत्ता का असर ना हो ? हमारी मां ,दादी, नानी बुआ की रोकने टोकने की आदतें उसी पितृसत्ता की सोच का प्रभाव है, क्योंकि उसने बचपन से वही देखा और वो लोग उसी माहौल में पले बढ़े।

हम महिलाओं की सोच पर पितृसत्ता का लेप लगाकर दूसरी महिला के सामने खड़ा करके स्थापित करते हैं कि महिला ही महिला की दुश्मन है जबकि असल में दोष तो उस पितृसत्तात्मक परिवेश में है।

कोई महिला किसी दूसरी महिला की दुश्मन नहीं होती हमारे समाज से पितृसत्ता का वजूद खत्म न हो इसलिए इस बात को बार-बार स्थापित किया जाता है। क्योंकि डर है कि अगर महिला बराबरी के अधिकारों तक पहुंच गयी तो पितृसत्ता की इमारत भरभरा कर गिर पड़ेगी।

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