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दिल्ली में प्रदूषण हमारी संस्कृति की ही देन है

दिल्ली में प्रदूषण की समस्या की ज़िम्मेदारी ना तो पूरी तरह से कानून व्यवस्था से जुड़ी है ना औद्योगीकरण से न पूंजीवाद से और ना ही शहरीकरण से। आप माने या ना माने, ये इस देश के धर्म और संस्कृति से पैदा हुई समस्या है।

किसान खेत में खूंटी जला रहा है क्योंकि यह सस्ता पड़ता है भले ही उसे अगली फसल में ज़्यादा उर्वरक और कीटनाशक डालकर पूरी फूड चेन को प्रदूषित करना पड़े, लेकिन वो ऐसा करेगा क्योंकि पढ़ा-लिखा वर्ग उससे बात ही नहीं करता। किसानों और पेशेवरों सहित नागरिक समाज में संवाद नहीं होता। धार्मिक लोग पटाखे जला रहे हैं, क्योंकि ये आस्था का विषय है। आस्था के नाम पर इंसान तक जलाये जा सकते हैं तो पटाखों की बात ही क्या है?

दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में भी पटाखे जलाने वाले लोगों में एक-दूसरे के बच्चों की कोई फ़िक्र नहीं है। क्योंकि इनमें आपस में संवाद और मेल-जोल नहीं हैं, एक-दूसरे की फ़िक्र नहीं है।

शहरों में कारे बढ़ रही हैं क्योंकि जिस समाज में लोगों को या आदमी औरतों को सीधे संवाद की सुविधा न हो, वहां स्वयं को महत्वपूर्ण सिद्ध करने का एक ही तरीका है – बड़ी कार, बड़ा मोबाइल, बड़ा मकान। ब्रिटेन या जर्मनी की तरह साइकिल पर चलने से आप नीच या पिछड़े नजर आते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में आपके इंसान होने के नाते या एक सामान्य आदमी होने के नाते कोई इज्ज़त ही नहीं, आपका आपके ही समाज से कोई संवाद नहीं है।

गांव शहर के बच्चे युवक इत्यादि सार्वजनिक शौचालय, वेटिंग रूम, कम्युनिटी हॉल, स्कूल कॉलेज आदि की खिड़की दरवाज़े और टाइल तक उखाड़ ले जाते हैं, सड़कों पर आराम से थूकते हैं, पेशाब करते हैं या कहीं भी कूड़ा जला देते हैं, क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति की कोई अवधारणा ही इस संस्कृति में नहीं है। गरीब आदमी को लगता ही नहीं कि ये समाज उसका है या ये सड़क या सड़क किनारे लगा बल्ब उसका है, वो मज़े से पत्थर मारकर उसे तोड़ देता है। क्योंकि उसमें और शेष समाज में कोई संवाद नहीं है, उनका कोई साझा भविष्य नहीं है, साझा जीवन नहीं है।

अब इनका साझा भविष्य या जीवन क्यों नहीं है? क्योंकि इनके भगवान ने इन्हें चार हिस्सों में और चार हज़ार उप हिस्सों में बांटा है। एक ही कुएं, बावड़ी, तालाब, जंगल, सड़क और बगीचे आदि पर इनकी मालकियत या स्टेक एक जैसा नहीं है। इसलिए ना तो ये एक समाज की तरह इकट्ठे हैं, ना ही किसी रिसोर्स पर ओनरशिप या स्टेकहोल्डरशिप के अर्थ में समान या इकट्ठे हैं। ये कहीं भी समान और इकट्ठे नहीं हैं। ये हर जगह ऊंच-नीच के साथ घुसते या निकलते हैं। इसलिए इनमें सार्वजनिक सम्पत्ति की साझी चिंता या रक्षा की कोई भावना नहीं होती। इसी कारण अतीत में ये इकट्ठे युद्ध या आत्मरक्षा भी नहीं कर पाए।

दो हज़ार साल गुलाम रहने का विश्व रिकॉर्ड हिंदुओं ने ऐसे ही नहीं बनाया था। अब समाज में संवाद या इंसानियत पैदा करना कानून या प्रशासन के बस की बात नहीं। इस देश के धर्म ने जो नैतिकता निर्मित की है, वह आधुनिक जीवन के योग्य ही नहीं है। इसीलिये धर्म की तरफ के समझदार लोग वापस पाषाण काल में ले जाना चाहते हैं। आप पब्लिक स्पेस में गंदगी या प्रदूषण की बात करेंगे तो ये प्राणायाम का झुनझुना पकड़ा देंगे, इसे करो और अपने घर में मस्त रहो देश समाज को भूल जाओ।

इसीलिये मैं बार-बार लिखता हूं, कि इस देश का धर्म ही इसकी सारी समस्याओं की जड़ है। आप ऊपर-ऊपर कुछ भी बदल लीजिये, लेकिन इस ज़हरीले कुएं की आवक जब तक गहराई में जाकर बंद नहीं की जायेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला।

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