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ये हैशटैग बस NDTV के लिए नहीं, पूरे सेंसरशिप के खिलाफ है

अमिता नीरव:

पत्रकारिता में इत्तेफाक से हूं, पत्रकारिता की कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि भी नहीं थी। इसलिए यहां आने से पहले न तो पत्रकारिता के बारे में कभी जाना न ही कभी बिटविन द लाइंस पढ़ने की ज़हमत उठाई। जो थोड़ा बहुत कुछ सीखा वो इसी दुनिया में रहकर सीखा। इसलिए जब शुरुआती दिनों में न्यूज के संदर्भ में ‘एंगल’ शब्द सुना तो चौंकी थी। कब, कहां, क्यों, कैसे और कौन से इतर किसी भी खबर में और क्या हो सकता है? लेकिन बात क्योंकि दो सीनियर रिपोर्टरों के बीच की थी, इसलिए इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता था। नई थी तो पूछती भी किससे सो एक ही खबर को अलग-अलग अखबारों में पढकर ‘एंगल’ के एंगल को समझने का प्रयास किया। बहुत जल्दी ही ये बात समझ आ गई। तब इतिहास लेखन के ‘एंगल’ का संदर्भ भी स्पष्ट हुआ।

लगभग उन्हीं दिनों की बात थी हमारे अखबार में नए संपादक आए… पहली ही मीटिंग में उन्होंने जुमला दिया ‘पेपर इज प्रोडक्ट’… जुमला आकर्षक लगा। ठीक है, जैसे टूथपेस्ट वैसे अखबार… अरे! लेकिन यह विचार तो बड़ा खतरनाक है। हां, लेकिन जब मीडिया व्यापारियों के हाथ में चला जाए तो प्रोडक्ट के अलावा वो और क्या हो सकता है? जो भी हो साहब लेकिन बात तो यही है। खतरनाक है तो खतरनाक ही सही… फिर अब मिशन जैसी कोई स्थितियां भी तो नहीं है। आज़ादी के आंदोलन जैसे कोई मिशन नहीं है। हालांकि यह विचार भी उठा कि देश में क्या सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है? क्या कोई समस्या नहीं है? लेकिन जब मामला पूंजीपतियों के हाथ में आ जाता है तब हर चीज़ के संदर्भ बदल जाते हैं।

बाद के सालों में इसे ऐसे भी समझा कि जैसे व्यापार का लक्ष्य लाभ कमाना है, वैसे ही अखबार का लक्ष्य भी लाभ कमाना है। अखबार का लाभ पैसे तक सीमित नहीं रहता है, यह आगे जाकर सत्ता और शक्ति जैसे लाभों में परिवर्तित होता है। इसलिए मीडिया में काम करते हुए इतना तो समझ में आ ही गया है कि किस तरह से चीजें ओवरप्ले और अंडरप्ले की जाती हैं, किस तरह से खबरों का एंगल बदला जाता है और किस तरह से हवा बनाई जाती है। मैंने मीडिया में रहकर जाना है, कुछ लोग इससे बाहर रहकर भी इस सच को जानते हैं, लेकिन ज़्यादातर लोग इससे अनभिज्ञ है।

इसका एक व्यक्तिगत उदाहरण मैं शेयर करना चाहूंगी। जब हिग्स बोसान (गॉड पार्टिकल) वाला प्रयोग किया जा रहा था, तब हमारे ही अखबार में कोई खबर इस तरह चली गई थी कि इससे पृथ्वी के नष्ट होने का खतरा है। खबर के प्रकाशित होते ही अखबार के दफ्तर में फोन की घंटियां घनघनाने लगी थी। छोटी-छोटी जगहों के लोग घबराए हुए थे… पूजा-प्रार्थना कर रहे थे। तब पहली बार जाना कि आज भी गांवों-कस्बों में मीडिया की खबरों का क्या असर होता है। इसलिए भी मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, लेकिन धीरे-धीरे निर्मल बाबा और सांप-सपेरे की कहानियां, ज्योतिष और बाबाओं के किस्से…. ये सब भी मीडिया का हिस्सा बनने लगे तब मीडिया की विश्वसनीयता कम-अस-कम बुद्धिजीवियों में तो कम होने ही लगी है।

यदि आज भी आप अखबारों और टीवी की खबरों पर यकीन करते हैं तो सच मानिए आप एक बच्चे की तरह निर्दोष और मासूम हैं। क्योंकि मीडिया की दुनिया का सच उतना ही नहीं है, जितना हमें दिखाई देता है। इस दुनिया में हरेक के अपने गणित है। खासतौर कॉर्पोरेट्स के जमाने में…. यहीं कहीं कभी पढ़ा मार्क्सवाद भी याद आ जाता है। यह समझने में सहूलियत होती है कि अंततः किस तरह हर चीज़ के मूल में अर्थ हुआ करता है। किस तरह हर चीज़ अंततः पूँजी से शुरू होकर वहीं जाकर समाप्त होती है।

तो ये जो NDTV पर बैन का विरोध है यह दरअसल NDTV पर बैन का विरोध नहीं है। यह विरोध असल में प्रतिबंध की प्रवृत्ति का विरोध है। हां मैं इस बात को स्वीकार करती हूं कि मुझे दूरदर्शन के समाचारों के अतिरिक्त यदि किसी और न्यूज चैनल को चुनने को कहा जाएगा तो मैं इसी एक चैनल को चुनूंगी। क्योंकि प्रणव राय की प्रशंसक मैं आज से नहीं हूं, तब से हूं, जब वे दूरदर्शन पर ‘द वर्ल्ड दिस वीक’ कार्यक्रम पेश किया करते थे। जी और स्टार न्यूज, आजतक से होते हुए जब मैं NDTV तक पहुंची तो लगा कि तुलनात्मक रूप से यह दूसरे सारे चैनलों में बेहतर है। चाहे भाषा का स्तर हो, प्रस्तुति हो, ट्रीटमेंट हो हर स्तर पर मैं इस चैनल को दूसरे सारे चैनलों की तुलना में बेहतर पाती हूं, ये मेरा अपना टेस्ट है। इसका संबंध सरकार की तारीफ और आलोचना से तो कतई नहीं है। क्योंकि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब भी मैं यही देखती थी, आज भी मैं यही देखती हूं।

लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि मैं NDTV के व्यापारिक पक्ष से अनभिज्ञ हूं। जानती हूं कि दूसरों की तरह ही यह चैनल भी व्यापार ही कर रहा है… लेकिन व्यापार में भी ईमानदारी और संतुलन बरतना या इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि संतुलन का भ्रम देना… इसकी उपलब्धि है। फिर भी यदि यह प्रतिबंध किसी और चैनल पर- जिसका इतिहास सरकार के विरोध का होता- लगा होता तो उसका भी इसी तरह से विरोध किया जाता… क्योंकि मसला देश की सुरक्षा का नहीं है, मसला सरकार की आलोचना का है। तो यह विरोध ‘NDTV’ पर प्रतिबंध का नहीं है… ये विरोध ‘प्रतिबंध’ का है… प्रतिबंध की प्रवृत्ति का है।

आज यदि जो यह नहीं समझते हैं कि प्रतिबंध का यह मामला महज़ देश की सुरक्षा व्यवस्था का नहीं है, बल्कि सरकार के लंबे विरोध का परिणाम है, उसकी राजनीतिक-सामाजिक समझ पर सिवा संदेह के और कुछ किया नहीं जा सकता है। और यदि आप इसका विरोध नहीं करते हैं, तो आपको याद रखने की जरूरत है कि आप अपने विरोध करने के अधिकार का सत्ता के समक्ष समर्पण कर रहे हैं।

मैं इसलिए विरोध कर रही हूं कि मैंने सत्ता को ‘मुझ पर शासन करने के असीमित अधिकार नहीं दिए हैं।’ मैंने सत्ता के समक्ष अपने सारे अधिकारों का समर्पण नहीं किया है। क्योंकि ये आज का मामला नहीं है…. ये आने वाले वक्त का मामला है। यदि आपने अपने अधिकारों का समर्पण कर दिया है तो आप इस प्रतिबंध का विरोध नहीं करेंगे। इसीलिए हैशटैग NDTVके लिए नहीं… सेंसरशिप के खिलाफ लगाया है और लगाऊंगी। क्योंकि मामला मेरे अधिकारों का है और मैं ‘भीड़’ नहीं हूं, क्योंकि मैं ‘भेड़’ नहीं हूं…

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