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‘सांवली हो, काले और लाल रंग से दूर रहा करो’, मगर मुझे तो हर रंग से प्रेम है

साड़ी एक ही खरीदनी थी, लेकिन पसंद आ गई दो, दोनों के रंग अलग-अलग थे। एक का रंग काला, दूसरी का हल्का नीला, कंफ्यूजन था, कौन-सी साड़ी खरीदें? सेल्समैन ने तुरंत अपनी राय दी। ‘आप पर यह रंग सूट करेगा।’ उसने हल्के नीले रंग की साड़ी मेरी तरफ करते हुए कहा। हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा, दोनों ही मुस्कुराए और निर्णय हो गया। ‘काली…’ सेल्समैन की आंखें इमोटिकांस की तरह गोल-गोल हो गई। हड़बड़ी में उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी और रंग फीका पड़ गया। उसने पास रखे पानी के जग को उठाकर दो घूंट हलक में उतारे और काले रंग की साड़ी काउंटर पर रखते हुए कहा, ‘इसे पैक कर देना।’

ये कोई पहली बार नहीं हुआ था। सालों-साल से यही होता रहा है। मेरे रंग को देखते हुए दूर-पास के रिश्तेदारों से लेकर ब्यूटीशियंस तक और कॉस्मेटिक्स की दूकान के सेल्समैन से लेकर बूटिक ओनर तक, हर एक ने कोई-न-कोई सुझाव तो टिकाया ही है। मेरी फर्स्ट कज़न अकसर कहा करती थी, तुझ पर सफेद रंग नहीं जंचता… एक दूर के रिश्तेदार ने बताया कि मुझे मरून कलर नहीं पहनना चाहिए। किसी ने कहा कि काले और लाल रंग से तो बिल्कुल ही दूर रहना।

जब कॉलेज में थी तो बाल खासे सुंदर हुआ करते थे। घने-लंबे-चमकीले और काले, मैं इन्हें खुले रखना चाहती थी, लेकिन बड़े-बुजुर्ग हमेशा इस बात पर गुस्सा होते थे। ‘जब देखो, तब खुले बाल लेकर घूमती है लड़की! समझती नहीं है नज़र लग जाएगी।’ मुझे नहीं बालों को जिसका रंग सांवला हो उसे नजर नहीं लगती, कभी लगी ही नहीं। तो ज़ाहिर है माँ कसकर दो चोटियां बांध दिया करती थी। ताकि दिन भर बाल बंधे रहें। माँ को बार-बार कंघी करने की ज़रूरत न हो।

बचपन की बात है, मैं शायद 7-8 साल की रही हूंगी। एक साल कृष्ण जन्माष्टमी पर ननिहाल में थी, मंदिर में उत्सव का आयोजन था। मैं अपने बालों को खोलकर मंदिर पहुंच गई थी। वहां के पुजारी ने यह कह कर मुझे वहां से भगा दिया कि ‘तुझे देखकर बालकृष्ण डर जाएंगें।’ उन्होंने तो नहीं कहा, लेकिन मैंने सुना… एक तो खुले बाल, उस पर से काले रंग की लड़की। लौट आई थी, बहुत रोई थी और प्रण किया ‘कृष्ण से हमेशा के लिए कुट्टी…’ बहुत बाद में समझ आया कि ये कृष्ण ने नहीं कहा था। ये तो पुजारी ने कहा था। फिर कृष्ण तो खुद ही सहानुभूति के पात्र हैं… वो ही कौन से गोरे हैं। तो फिर चुपके से दोस्ती भी हो गई थी।

एक बार बुटिक ओनर ने मुझे बताया कि पीला रंग अच्छे-अच्छों पर सूट नहीं करता। उन पर भी नहीं, जिनका रंग फेयर हुआ करता है। जिस दिन उसने मुझे बताया उस दिन मैंने दुर्भाग्य से पीला रंग ही पहन रखा था। मैंने सुन लिया। लौटकर आई तो खुद को आईने में कई बार देखा… पूछा… क्या वाकई मुझ पर पीला रंग नहीं जंचता? कोई मुझे गोरे होने के लिए उबटन सुझाता तो कोई फेयरनेस क्रीम। एक वक्त ऐसा भी था कि विटिलिगो (ऐसी अवस्था जिसमे त्वचा पर सफ़ेद चकते हो जाते हैं) से पीड़ित अपनी कज़न से भी ईर्ष्या हुई थी। अपना ही रंग कितने साल मेरा दुश्मन बना रहा, याद नहीं।

आज यदि कोई मुझसे पूछे कि कौन-सा रंग फेवरेट है तो बता नहीं पाउंगी, क्योंकि हर वक्त मेरे रंगों की पसंद बदलती रहती है। कुछ दिन पहले नीले का दौर था फिर लाल का आया इन दिनों पीला हॉट है और काला गर्मियों को छोड़कर हर मौसम में फेवरेट। यकीन ही नहीं होता कि सालों-साल ये रंग मेरी जिंदगी में नहीं रहे। लेकिन क्यों? क्योंकि हर एक यह मानता रहा है, शायद आज भी मानते हों कि सांवले रंग के लोगों पर गहरे रंग के कपड़े अच्छे नहीं लगते। सालों साल मेरे जीवन में बहुत सीमित रंग थे। हल्का गुलाबी, हल्का नीला, हल्का बैंगनी, क्रीम, सफेद वो भी एकदम सफ़ेद नहीं। कई सालों तक फेवरेट रंग गुलाबी ही रहा, क्या करूं, विकल्प भी तो बहुत सीमित थे।

अब… अब तो लाल, नीला, पीला, काला, मोतिया, चंपई, फालसई, गुलाबी, पिस्ता, धानी, बैंगनी… कौन-सा रंग है जो नहीं है। रंगों का दखल जीवन में प्रेम की तरह हुआ, अनायास और एक-के-बाद-एक रंग तेज आंधी की तरह जीवन में दाखिल होते चले गए। प्रेम ने बताया कि दरअसल रंग कुछ नहीं होता, प्रेम ही होता है, जो कुछ भी होता है। आप प्रेम में हों तो खुद-ब-खुद हर रंग जंचने लगता है। वही आपको इतना बदल देता है कि रंग और रंगत पीछे छूट जाती है, रह जाती है तो बस चेहरे पर छलकती खुशी।

 

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