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सत्ता पक्ष के विरोध का बेहतरीन तरीका सिखाती है स्पैनिश फिल्म ‘NO’

हिमांशु पांड्या:

पिछले तीन दिन [envoke_twitter_link]रायशुमारी के नाम पर हुए नाटक को देखते हुए मुझे एक फिल्म बार-बार याद आती रही।[/envoke_twitter_link] वैसे, मुझे इस फिल्म के बारे में तब भी लिखने की इच्छा हुई थी, जब रवीश के अब इतिहास बन चुके ‘बागों में बहार है’ एपिसोड के बाद कुछ मित्रों ने निराशा व्यक्त की थी, जो उनसे गंभीर-आंकड़ों से लैस हमले की उम्मीद कर रहे थे।

यह एक स्पैनिश फिल्म है ‘नो’। फिल्म वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। 2012 में आयी यह फिल्म चिली के 1988 के मशहूर जनमत संग्रह के बारे में है। चिली में सैनिक तानाशाह ऑगस्ट पिनोचे का शासन था, जो सल्वाडोर आयेंदे की समाजवादी सरकार का तख्तापलट कर सत्ता में आये थे और एकछत्र हुकूमत कर रहे थे। पंद्रह साल की सैनिक तानाशाही के बाद अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण पिनोचे ने राष्ट्रीय जनमतसंग्रह की घोषणा की। यह जनमतसंग्रह इस बारे में था कि पिनोचे अगले आठ साल तक पुनः राष्ट्रपति बने रह सकते हैं या नहीं। वोटिंग के दो विकल्प थे – ‘हां’ या ‘ना’।

यहां कहानी में हमारा नायक आता है, रेन सवेद्रा जो मूलतः विज्ञापन की दुनिया का है। उसे ‘ना’ पक्ष ने कहा है कि वह उनकी प्रचार सामग्री तैयार करे। (भूमिका प्रसिद्द मैक्सिकन अभिनेता गेल गार्सिया बरनाल ने निभाई है।) सवेद्रा ने वह किया जिसे दुनिया के राजनीतिक इतिहास में एक अनोखा प्रयोग माना जाता है। उसने यह तय किया कि वह – जैसी सबको उम्मीद है – वैसी यातनाओं, राजनीतिक कैदियों, लोगों की गुमशुदगियों से भरी प्रचार सामग्री नहीं बनाएगा। वह इन्द्रधनुष को अपने कैम्पेन का प्रतीक चिह्न बनाता है और उम्मीदों से भरी एक दुनिया लोगों को दिखाता है। अब ‘ना’ पक्ष का नारा है – ‘खुशियाँ आ रही हैं।’

किसी को इस जनमत संग्रह से कोई उम्मीद नहीं थी। सब इसे कोरा तमाशा मान रहे थे। ‘हां’ पक्ष की जीत निश्चित थी। सच तो यह था कि खुद पिनोचे भी ऐसा ही मानता था वर्ना वह जनमत संग्रह के के लिए राजी ही न होता। ‘हां’ पक्ष का प्रचार परम्परागत था।[envoke_twitter_link] उसमें वही आंकड़े थे, विकास की तस्वीरें थी और सबसे ज़्यादा खौफ था जिसके बल पर पिनोचे राज करता आया था।[/envoke_twitter_link] थोड़े ही समय में उनका रूढ़ तरीका ‘ना’ पक्ष के सामने फीका दिखने लगा, खीझ में वे ‘ना’ पक्ष की भोंडी नक़ल करने लगे।

‘ना’ पक्ष में कई लोग, खुद सवेद्रा की पूर्व पत्नी और उसका बॉस भी उसके तरीकों से सहमति नहीं रखते थे। पर सवेद्रा की रणनीति गहरी सोच पर टिकी थी। लोगों के मन में यातनाओं की स्मृतियों को पुनर्जीवित कर या उनके अवसाद को गहराकर उन्हें प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं किया जा सकता। [envoke_twitter_link]आने वाले कल की तस्वीर ही किसी प्रतिरोध के लिए सुचालक शक्ति हो सकती है।[/envoke_twitter_link] दूसरी बात ज़्यादा रणनीतिक थी। तानाशाही का सीधा विरोध पिनोचे को दमन के लिए आधार देता था, इस तरीके ने उसे अपनी धमकी वाली मुद्रा छोड़ने के लिए विवश कर दिया। विरोधियों से निपटने के तरीके उसके परखे हुए थे, पर इन नाचने-गाने वाले लोगों पर वह क्या और कैसे कहर बरपाए?

कला के गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। बशर्ते हम उसे दोयम दर्ज़े की चीज़ न मानें। जनमत संग्रह में 97 फीसदी से भी ज़्यादा वोट गिरे और वोटिंग तक भी अपराजेय माने जाने रहे पिनोचे की तानाशाही का अंत हुआ। ‘ना’ पक्ष को 56 फीसदी वोट मिले और ‘हां’ को 44। भारत, चिली नहीं है और यह टिप्पणी तुलना के लिए है भी नहीं। पर हां, [envoke_twitter_link]हमारे विकल्पहीन विपक्ष से आप इस फिल्म से जोड़ना चाहें तो जोड़ सकते हैं।[/envoke_twitter_link]

[envoke_twitter_link]आखिर में, यूनीकोड पहले bahar टाइप करने पर ‘बाहर’ छपता था, आजकल ‘बहार’ छपता है।[/envoke_twitter_link] आपने गौर किया?

 

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