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ब्लैकमनी और पुलिस के टॉर्चर को गहराई से समझाती फिल्म विसारनई

निखिल आनंद गिरि :

2017 के ऑस्कर अवार्ड्स की तारीख अभी दूर है मगर भारत की तरफ से इस साल की ऑफिशियल ऑस्कर एंट्री ‘विसारनई’ अचानक बहुत याद आ रही है। बैंक के आगे कतारों में लगे देश को ये फिल्म दिखानी चाहिए ताकि काला धन पर उनकी समझ बेहतर हो सके और वो अपनी कतार लेकर अपना हिसाब लेने संसद की तरफ रुख करें। तमिल फिल्म विसारनई की कहानी का बड़ा हिस्सा एम चंद्रकुमार के नॉवेल ‘लॉक अप’ पर आधारित है। एम चंद्रकुमार एक ऑटो ड्राइवर थे। आंध्र प्रदेश की गुंटूर पुलिस द्वारा उन्हें 13 दिनों की कस्टडी में टॉर्चर किया गया था। ये शायद 1980 के दशक की बात है। फिर उन्होंने अपने अनुभवों पर ये नॉवेल लिखा था जिस पर तमिल डायरेक्टर वेट्रिमारन की नज़र पड़ी और इस पर बनी एक दिल दहलाने वाली थ्रिलर ‘विसारनई’ ने दक्षिण भारत में तहलका मचाने के बाद नेशनल फिल्म अवार्ड तक जीत लिया। हंगामे के बीच आंध्रा पुलिस पर सवाल भी खड़े हुए थे। यानी एक फिल्म समाज पर जितना असर डाल सकती थी, कामयाब रही।

आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू के बॉर्डर इलाके की कहानी है विसारनई (यानी Interrogation/पुलिसिया पूछताछ)। एक लड़का मस्ती में रात का आखिरी शो देखकर लौट रहा होता है और पुलिस उसका नाम पूछती है। ‘अफ़ज़ल’ नाम सुनते ही वो ‘अल-क़ायदा या ISIS’ का मान लिया जाता है। अफज़ल कहता है कि मैं सिर्फ एक तमिल मजदूर हूं जो यहां रोज़गार के लिए आया हूं। मगर पुलिस को वही सुनना होता है जो वो सुनना चाहती है। फिर उसके ज़रिए आंध्रा के इस इलाके में रह रहे कई संदिग्ध ‘तमिल’ मजदूरों को पुलिस उठा लेती है। इंस्पेक्टर को एक केस की फाइल बंद करनी है और ऐसे में ये लोग जिनके पास न कोई पहचान है, न जान-पहचान; अपराधी मान लिये जाते हैं। इन बेचारे मजदूरों को पता भी नहीं होता कि ये किस जुर्म में अंदर लाए गए हैं। बस उन्हें अपना ‘अपराध’ कबूलना है। ऐसे में ज़रा-सा विरोध करने पर पुलिस का जो क्रूर चेहरा सामने आता है वो हिंदी सिनेमा में इतनी गंभीरता से बहुत कम ही देखने को मिला है। कम से कम हाल के बरसों में तो बिल्कुल भी नहीं।

फिल्म विसारनई का एक दृश्य

हिंदी सिनेमा में हम दिल्ली-यूपी-हरियाणा या बिहार की पुलिस का भयानक चेहरा थोड़ा-बहुत मसाला लगा कर देखते रहे हैं। मगर पुलिस व्यवस्था एक समूची विचारधारा है जिसका मानना यही है कि बंदूक जिसके हाथ में है, उसके पास गोली मारने का मौलिक अधिकार है। और इस व्यवस्था को पालने-पोसने में पूरे भारत की पुलिस व्यवस्था एक जैसी है। विसारनई को नोटबंदी के दौर में इसीलिए भी देखा जाना ज़रूरी है क्योंकि इंटरवल के बाद फिल्म जब अपना बड़ा कैनवस खोलती है तो जिन पुलिसवालों से आप घृणा कर रहे होते हैं, उन पर तरस आने लगता है। सब किसी पॉलिटिकल ‘ब्लैक मनी’ मसीहा के हाथों की कठपुतलियां हैं। आपस में ही पुलिस अधिकारी ‘काला धन’ की वफादारी में एक-दूसरे को गोली मारते हैं। राजनीति नोट बैन करने के आसान फैसले तो ले सकती है, मगर अपने ही बीच के काले चेहरों को बेपर्दा करने की ताक़त शायद ही कोई ‘मन की बात’ कर पाए।

विसारनई एक अच्छी फिल्म है। अनुराग कश्यप की फिल्मों से भी ज़्यादा काली और अच्छी। स्टार एंकर रवीश कुमार के ‘पलायन’ की परिभाषा से भी ज़्यादा गहरी और अच्छी। रवीश अक्सर कहते हैं कि पलायन में उन्हें दुख से ज़्यादा बहुत-सी संभावनाएं दिखती हैं। मगर शायद इस फिल्म ने बता दिया कि संभावनाएं थोड़ा-बहुत चालाक हो जाने के बाद खिड़कियां खोलती हैं। फिल्म के पलायन मजदूरों के पास चालाकियां सीखने का वक्त नहीं मिला और वे कीड़े-मकोड़ों की तरह मार दिए गए। यही पलायन का बड़ा सच है। पलायन एक समस्या नहीं है, हमारे समय की ज़रूरत है। मगर आप जहां पलायन करें वो जगह, वो समाज आपको स्वीकार करे इसकी हमारे समय को ज़्यादा ज़रूरत है। भले ही वो एक गांव से शहर की तरफ का पलायन हो या एक लड़की का अपने ससुराल की तरफ।

मेरी परवरिश बिहार के छोटे-छोटे थानों में हुई। जन्म भी थाने के एक सरकारी घर में हुआ। वहां के कई अनुभव हैं जो फिल्म ने ताज़ा कर दिया। पेड़ पर उल्टा लटकाकर नियम से कैदियों को पीटना, एक-दूसरे के मुंह में पेशाब तक करवा देना, गालियों से आत्मा तक को भर देना हर काबिल इंस्पेक्टर की खाकी वर्दी में लगे तीन स्टार का परिचय है। हिंसा के इन कारखानों यानी पुलिस के थानों में भी गांधी जी की तस्वीर चुपचाप मुस्कुराती रहती है। ये देखकर बहुत बुरा लगता है।

कुछ तो बदलना चाहिए। देश बदल रहा है, मगर ये देश सबका कहां है।जिसकी लाठी,उसका देश!

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