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“बिना वैक्स की हुई लड़कियां छी छी!”

women suffering from hersutism

women suffering from hersutism

कैंसर पेशेंट को सपोर्ट करने के लिए इन दिनों कई तरह के जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। इन्हीं जागरूकता अभियानों में एक है “नो शेव नवम्बर”। इसके तहत लोग कैंसर से जूझ रहे लोगों के प्रति अपना समर्थन और सहयोग जताने के लिए शेव नहीं करवाते हैं और ना ही हेयरस्टाइल पर कोई खर्च करते हैं। इससे बचाया जाने वाला पैसा, कैंसर की बीमारी के खिलाफ जागरूकता फ़ैलाने में खर्च किया जाता है।

यह जागरूकता अभियान नवम्बर के महीने में मनाया जाता है इसलिए इसे “नो शेव नवम्बर” भी कहा जाता है। हालांकि यह पूरी तरह से एक जेंडर न्यूट्रल अभियान है और इसकी वेबसाइट में भी महिलाओं के इस अभियान में भाग ना लेने की बात नहीं कही गयी है। लेकिन, हमारी आदिम पित्रसत्तात्मक व्यवस्था ये तय करती है कि इस अभियान में पुरुष ही सहज होकर हिस्सा ले सकें। पुरुष! जो गर्व के साथ बढ़ी हुई दाढ़ी और मूछों के साथ फेसबुक पर ज़्यादा से ज़्यादा लाइक्स पाने की चाह में इनका प्रदर्शन कर रहे होते हैं। अभी भी, महिलाओं के चेहरे और शरीर पर बाल नहीं होने चाहिये जैसी आदिम धारणा के चलते वो कैंसर के खिलाफ इस अभियान में खुलकर हिस्सा नहीं ले पा रही हैं। नवम्बर वो महीना है, जब पित्रसत्ता में गहरा यकीन रखने वाले लोगों की उम्मीदें सबके सामने खुलकर आ जाती हैं। लेकिन ऐसा बस नवम्बर के महीने में ही नहीं होता। हर वक़्त इस सोच का बोझ महिलाओं पर होता है, वो सोच जो बीते हुए ज़माने की सोच होनी चाहिये थी।

मेरी स्कूल की पढ़ाई दिल्ली में ही हुई, जिस जगह मैं बड़ा हुआ वहां का माहौल ऐसी लड़कियों के लिए बिलकुल भी दोस्ताना नहीं था, जिनके शरीर या चेहरे पर बाल हों। मैं जितने भी लड़कों को जानता था उनमें से किसी को भी लड़कियों के चेहरे या उनके शरीर पर बाल अच्छे नहीं लगते थे। जहां लड़के आपस में ऐसी लड़कियों का मज़ाक उड़ाते थे, वहीं ज़्यादातर लड़कियां नियमित तौर पर वैक्सिंग करवाती थी।

लेडी श्रीराम कॉलेज की ग्रेजुएट और 22 साल की यंग प्रोफेशनल राजकन्या कहती हैं, “एक पूरा का पूरा सिस्टम ऐसा है जो हमें लगातार ये विश्वास दिलाना चाहता है कि जिन महिलाओं के शरीर पर बाल या यूं कहें कि फेशियल हेयर नहीं होते वो ज़्यादा आकर्षक होती हैं।” जब वो 17 साल की थी तभी से वो अपने शरीर से बाल हटाती आ रही हैं और ऐसा अमूमन वो महीने में 2 बार करती हैं। वो खुद को एक फेमिनिस्ट के रूप में देखती हैं, लेकिन फिर भी अन्य लोगों की तरह महिलाओं के चेहरे और शरीर के बालों को लेकर वो भी इसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं जिसे वो स्वीकार भी करती हैं। वो आगे कहती हैं कि, “मैं इस तरह के विचारों को पूरी तरह से अपने दिमाग से निकाल देने की प्रक्रिया में हूं।”

कई महिलाएं ये स्वीकार कर चुकी हैं कि शरीर के बालों को हटा देना चाहिये। लेकिन पुरुष! वो इस बारे में क्या सोचते हैं?

नोएडा में काम करने वाले ओम प्रकाश जिनकी उम्र 40 वर्ष है, इस बारे में उनके विचार बेहद रोचक हैं। वो कहते हैं, “(महिलाओं के चेहरे पर बाल हों तो) फिर आदमी जैसा हो जाएगा, ऑटोमेटिक अच्छा नहीं लगता।” जब उन्हें याद दिलाया कि शरीर से बाल निकालने की प्रक्रिया में महिलाओं को काफी दर्द सहना पड़ता है, तो उन्होंने कहा, “बाल सुन्दर लगने के लिए हटाते हैं। जैसे आदमी खुद ही शेव करता है।”

लेकिन क्या यह एक सी ही बात है? दाढ़ी मूंछ वाले पुरुषों को समाज में सम्मान के साथ देखा जाता है, लेकिन यही बात उन महिलाओं के लिए नहीं कही जा सकती, जिनके चेहरे या शरीर पर बाल होते हैं। ओम प्रकाश जी से आगे बात करने पर वो बताते हैं, कि कम आमदनी वाले तबकों की महिलाऐं वेक्सिंग नहीं करवाती हैं क्यूंकि ये एक बड़ा खर्चा है। लेकिन ऐसे तबकों से आने वाले पुरुषों की सोच भी क्या अलग होती है?

गुडगाँव में ऑटो चलने वाले एक 35 साल के पुरुष का कहना है, “उनको शोभा नहीं देता, बिल्कुल बेकार लगता है। ऊपर वाले ने सबके लिए अलग चीज़ें बनायी है।” हालाँकि शरीर के बाल भी पूरी तरह से प्रकृतिक ही हैं। जब मैंने उनसे महिलाओं के चेहरे पर बाल होने को लेकर पूछा तो वो जोर से हंसने लगे। उनकी हँसी ही इस बारे में उनकी राय पर काफी कुछ कह रही थी।

एक मर्द किसी महिला के बॉडी हेयर को कैसे देखता है उसमें यह एक अहम किरदार निभाता है कि वो किस सोशल क्लास से आता है और शायद नहीं भी। 54 साल के कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव श्रीज्ञान सान्याल कहते हैं, “हो सकता है मेरी सोच अर्बन (शहरी) और सेक्सिस्ट हो। पर मुझे भी महिलाओं के शरीर पर बाल अच्छे नहीं लगते, मैं इनसे (शरीर के बालों से) फेमिनिनिटी (नारीत्व) को जोड़ नहीं पाता।” उन्हें लगता है कि ये सामान्य सी बात है कि जिन महिलाओं के चेहरे और शरीर पर बाल नहीं होते वो ज़्यादा आकर्षक होती हैं।

वो आगे कहते हैं, “अगर एक महिला आकर्षक दिखने के लिए शरीर से बाल निकालने का दर्द उठाती है तो कोई इसमें क्या कर सकता है?” हालाँकि उन्हें लगता है कि अधिकांश महिलाएं ऐसा सामाजिक दबाव के चलते करती हैं। महिलाओं और पुरुषों दोनों की ही बात करते हुए वो कहते हैं, “प्रकृति ने हमें जैसा बनाया हम वैसे नहीं रहते हैं। हम बाल कटवाते हैं या शेव करते हैं या शरीर के बाल हटा देते हैं।” हालांकि वो इस बात को समझते हैं कि सेक्सिस्ट सोच के चलते ही महिलाओं को शरीर के बाल हटाने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी यह सोच इतनी मजबूत हो चुकी है कि बहुत सारी महिलाऐं ये खुद ही करती हैं।

अमेरिका में पढ़ रहे 23 साल के एक भारतीय छात्र कहते हैं, “मुझे महिलाओं के शरीर पर बाल होने से कोई दिक्कत नहीं है।” वो बताते हैं उनकी पूर्व में रही दो गर्लफ्रेंड जिनमें एक कोरियन-अमेरिकन और एक भारतीय थी, दोनों ने ही उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ये पूरी तरह से उन पर है कि वो अपने शरीर से क्या चाहती हैं।

दुबई में पैदा हुए और पले-बढ़े 21 साल के एडविन थॉमस जो कि गे(समलैंगिक) हैं, कहते हैं कि समय के साथ इस विषय में उनकी सोच बदली है। वो कहते हैं, “जब मैं 13-14 साल का था तो मुझे महिलाओं और पुरुषों दोनों ही के शरीर के बाल अच्छे नहीं लगते थे।” लेकिन समय के साथ हाई स्कूल के दौरान काफी सारा फेमिनिस्ट लिटरेचर पढ़ने के बाद खूबसूरती को लेकर उनकी सोच में काफी बदलाव आ चुका है। वो अब अलग-अलग बॉडी स्ट्रक्चर, रंग या फिर शरीर पर बालों के आधार पर महिलाओं और पुरुषों को काफी अलग तरीके से देखना और सराहना शुरू कर चुके हैं।

जाने-माने लेखक सआदत हसन मंटो की 1940 और 1950 के बीच लिखी एक कहानी में, एक युवा लड़का एक महिला के आर्मपिट के बालों को फैंटेसाइज़ करता है। तो क्या ये मान लिया जाए कि उन दिनों में महिलाओं के शरीर के बालों को लेकर समाज ज़्यादा सहज था?  गर ऐसा है तो कभी-कभी ये सोच के अचरज होता है कि शरीर के बाल जैसी नेचुरल चीज को लेकर समाज की ऐसी सोच पर मंटो को कैसा लगता होगा।

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