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हेल्लो! आई एम लल्लन फ्रॉम इलाहाबाद।

इस वर्ष से फिल्मफेयर पत्रिका ने  ‘फिल्मफेयर शॉर्ट फिल्म पुरस्कार’ की पहल की है। कम अवधि की बेहतरीन फिल्मों को पहचान का एक सकारात्मक मंच मिला है। पुरस्कारों के लिए चालीस से अधिक फिल्मों को नामांकित किया गया है। इन फिल्मों में दिव्यांश पंडित की फिल्म ‘लल्लन फ्रॉम इलाहाबाद’ देखी।

ये काम के लिए इलाहाबाद से मुंबई आए युवा लल्लन की कहानी है। लल्लन के केन्द्र में ईमानदारी -वफादारी का मूल्य है। एक मनमौजी हाऊस सरवेंट की ज़िम्मेदार आदमी बनने की कहानी है। लल्लन का मन काम में नहीं लगता था। पिताजी जिस घर में भी काम करने भेजते कुछ न कुछ गड़बड कर काम बिगाड़ दिया करता था। काम छूट जाया करता था। या हरकतों को देखते हुए छुड़ा दिया जाता। अमूमन घर का काम करने वाले लड़के शहर आकर उसकी चकाचौंध से घिर जाते हैं। जिस जिम्मेदारी को लेकर बाहर निकलते उसे भूल कर गैर किरदार की हानी कर बैठते हैं। फिल्म लल्लन समान सैकडों युवाओं के किरदार को विजय की दिशा देती है।समाज में अपने महत्व को पहचानने का संदेश देती है। जिम्मेदारियों में खुशियों का एहसास जगाती है।

दिव्यांश ने फिल्म के ज़रिए गम्भीर तत्वों को हल्के फुल्के अंदाज़ में रखने की अच्छी कोशिश की है। कॉमिक मोड में चलते हुए भी कहानी अंत में जिम्मेदार किरदार का गम्भीर संदेश दे जाती है। लल्लन की ठेठ इलाहाबादी ज़बान कानों को भा सी जाएगी… लल्लन का ‘लल्लन फ्रॉम इलाहाबाद’ बोलना भा जाता है। जिस चतुराई से उसने चोर को हवालात भेजा वो भा जाता है। मालिक की कड़वी बातों को भूलकर घर को लूट से बचा ले जाना, लल्लन के बारे में बहुत कुछ कह जाती है।

मालिक-मालकिन की गैर मौजूदगी में चाहता तो वो भी चोरी कर सकता था ! लेकिन चोरी करके  मां -बाप का नाम ख़राब नही करना करता। घर में चोरी करने आए छोड़ का साथ दे कर माल लूट सकता था। टेबल पर रखा रुपया गायब होने पर  मालिक पहले उसी  से  पूछताछ करते हैं। चोरों की  तरह तलाशी ली गई..लेकिन वह चुप रहा, क्योंकि वो ग़लत नहीं था। हालांकि उसे बुरा तो ज़रूर लगा था।लेकिन घर का काम करने वालो की जिन्दगी में तो यह रोज की बात होती होगी। हाउस सरवेन्टस का काम में दिल न लगाना या छोड कर चले जाने के पीछे मकान मालिक भी बडी वजह होते हैं।

हर रोज़ कितने ही बेकसूर हाऊस सरवेंटस को आए दिन चोरी के इल्ज़ाम से गुज़रना पड़ता है। किसी घर में बहुत दिनों तक टिके रहना एक चुनौती होती है। सबसे ज्यादा नुकसान खुद के लोगो से ही उठाना पड़ता है। लल्लन के केस में ही देखिए कि पड़ोस वाले बंगले के नौकर ने उसे मालिक से साईकिल मांगने के लिए बरगलाया था।

फिल्म के केन्द्र में पिता-पुत्र सम्बन्धों का धागा भी है। स्वभाव से मस्तमौले लल्लन को जिम्मेदारी का एहसास दिलाने वाली शक्ति पिता थे। लल्लन के किरदार में परिवर्तन की परते उसे घर से मिली सीख का भी  असर थी। कोशिश तो खुद की उसने लेकिन प्रेरणा कही और पे विद्यमान रही। इस छोटी सी फिल्म में मुझे रिश्तों की जीत का स्वाद मिला। पहले कई जगह काम बिगाड़ने बाद पिता ने लल्लन को बम्बई समझाकर भेजा  था। बाप से किए वादे का महत्व पहचान कर लल्लन बडी सहजता से घर व काम के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा जाता है। आखिर में यही समझ आया कि जिम्मेदारी खुशी लाती है। किरदार बनाती है। आदमी को दरअसल आदमी बनाती है।

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