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बगावत विकल्प नहीं अखिलेश के लिए

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष [envoke_twitter_link]मुलायम सिंह के 325 उम्मीदवारों की सूची जारी होते ही, पार्टी के अंदर की कलह फिर उभरकर सामने आ गई है।[/envoke_twitter_link] बताया जा रहा है कि सूची में अखिलेश यादव के करीबियों के टिकट काटे गए हैं और शिवपाल सिंह यादव के समर्थकों को ज़्यादा महत्व दिया गया है।

पूरी लड़ाई अब चुनाव में अपने ज़्यादा से ज़्यादा समर्थकों को जिताने की है ताकि बाद में मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोका जा सके। पहली पारी में शिवपाल सिंह यादव चूक गए लेकिन दूसरी में वो कतई चूकना नहीं चाहते। [envoke_twitter_link]अखिलेश यादव इस खतरे को भाँप रहे हैं, इसलिए वो भी चाहते हैं कि जीतने वाले विधायकों में उनका वर्चस्व हो।[/envoke_twitter_link]

अब कई जानकार मीडिया के ज़रिए बताने में लगे हैं कि अखिलेश के पास अब बगावत ही विकल्प है, लेकिन क्या इतना आसान होता है बगावत करना। अखिलेश यादव की तैयारियों की स्थिति और चुनाव एकदम नज़दीक होने को देखते हुए ये बात ज़्यादा सच लगती है कि [envoke_twitter_link]अखिलेश यादव के पास बगावत का विकल्प है तो लेकिन वो कारगर होगा इसमें भारी संदेह है।[/envoke_twitter_link]

अखिलेश यादव पांच साल मुख्यमंत्री रहे लेकिन पार्टी संगठन पर मुलायम सिंह और शिवपाल का ही दबदबा रहा। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल भी मुलायम सिंह की छाया से उबर नहीं पाया और अखिलेश ने इसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं की।

पार्टी के कुछ युवा नेताओं से अखिलेश का संपर्क रहा लेकिन मुख्यमंत्री पद पर होने के कारण उनका संपर्क ज़मीनी कार्यकर्ताओं से नहीं हो पाया। [envoke_twitter_link]पुरानी पीढ़ी के नेताओं की अपनी अहमियत होती है लेकिन उनसे अखिलेश के तार नहीं जुड़ पाए।[/envoke_twitter_link]

ऐसी हालत में वो बगावत करें तो उनकी पार्टी का काम जिला स्तर पर, विधानसभा स्तर पर और बूथ स्तर पर संभालने वाले ज़िम्मेदार नेता कहाँ से आएँगे! जनता में अखिलेश की छवि बहुत अच्छी तो है, लेकिन जनता और अखिलेश के बीच तार जोड़ने वाले गंभीर नेताओं की संख्या ज़्यादा नहीं लगती।

चुनाव जीतने की जितनी तिकड़मों और उन्हें अमल में लाने की ज़रूरत पड़ती है, उनकी भी बहुत ज़्यादा जानकारी अखिलेश को है, ऐसा कम से कम प्रतीत तो नहीं होता। ऐसे पुराने नेताओं को अपने से जोड़ने की कोशिश अखिलेश यादव की तरफ से शायद कम ही हुई है जो मुलायम सिंह या शिवपाल सिंह के करीबी रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि थोड़ा भी प्रयास करते तो वो नेता अखिलेश के भी उतने ही करीबी हो सकते थे जितने कि वे मुलायम सिंह या शिवपाल सिंह के हैं क्योंकि [envoke_twitter_link]सत्ता तो आखिरकार अखिलेश के पास ही रही[/envoke_twitter_link] और वो नेता भी अच्छी तरह से जानते थे कि अखिलेश हैं तो मुलायम सिंह के बेटे ही।

बगावत अगर कारगर विकल्प हो सकता था तो इसकी तैयारी अखिलेश को कम से कम साल दो साल पहले करनी चाहिए थी। ऐसा वो नहीं कर पाए, इसके कुछ कारण उनकी अंदरूनी घेराबंदी भी रही जिसमें उन्हें राजनीतिक गतिविधियाँ चलाने की ज़्यादा छूट नहीं रही। जो भी हो, इस स्थिति से उन्हें ही निपटना था और वो नहीं निपट पाए तो उसका विकल्प अब इतने जल्दी नहीं तलाशा जा सकता।

मुलायम सिंह का अब तक का जो रवैया रहा है उससे यही लगता है कि वो पार्टी और विधायकों में अपना और शिवपाल सिंह का वर्चस्व रखना चाहते हैं, और मुख्यमंत्री का पद अखिलेश को खुद उपहार में देना चाहते हैं और ये नहीं चाहते कि अखिलेश खुद वो पद अपने पुरुषार्थ के बल पर हासिल कर, खुद मुख्तारी हासिल कर लें।

बेहतर विकल्प उनके लिए यही हो सकता है कि अब जो भी सूची हो, उसके अनुसार ही काम करें और पार्टी को जिताने में दम लगाएँ। ये मानकर चलना चाहिए कि पार्टी के दोबारा जीतने की स्थिति में मुलायम सिंह कोई नया और कठोर कदम नहीं उठाएँगे और मुख्यमंत्री का पद अखिलेश को दोबारा दे देंगे।

फिलहाल, अखिलेश के पास यही एक विकल्प है। बाद के विकल्प चुनाव के बाद ही तय किए जा सकते हैं और अगर उन्हें नया कार्यकाल मिला तो उसमें वो पिछले कार्यकाल की गलतियों से छुटकारा पाने की कोशिश कर सकते हैं।

अधिक दूरगामी विचार रखें तो ये भी हो सकता है कि वो चुनाव प्रचार के दौरान ही, उन नेताओं और उम्मीदवारों का विश्वास अर्जित करने की कोशिश कर लें जो अभी उनसे दूर हैं और शिवपाल सिंह के ज़्यादा करीब हैं। ऐसा आसानी से हो भी सकता है कि क्योंकि आम धारणा नेता तो दूर, जनता के बीच भी है कि आखिरकार सपा का भविष्य अखिलेश यादव ही हैं, इसलिए उनसे संपर्क बनाने में ही हित है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टीकाकार हैं)

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