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बिहार के एक छोटे से गाँव का एक रोचक किस्सा, भाग-1

ज़िन्दगी काफी अजीब सी रही है। अजीब से मेरा मतलब कुछ और नहीं बल्कि कुछ विभिन्न तरह के अनुभव हुए हैं, जिनमें से कुछ को मैं आप लोगो के सामने ज़रूर लाना चाहूँगा। इनमें से एक है, अररिया के एक गाँव का अनुभव। यह गाँव नेपाल और बंगाल सीमा से सटा हुआ है। बंगाल से निकटता की झलक आपको यहाँ ज़रूर दिखेगी जिसका वर्णन मैं आगे करूँगा। नेपाल से इस गाँव की दूरी करीब 50 से 60 किलोमीटर होगी, इस भौगोलिक निकटता की वजह से यहाँ के लोगों को काफी सहूलियत होती है। इनमे से एक फायदा तो ये कि गाँव वाले अपने आँखों का, नेपाल के मशहूर और अच्छे अस्पतालों में इलाज करा सकते हैं।

मैं गाँव में एक शोध के सन्दर्भ में गया था, मुझ जैसे इन्सान के लिए जो गाँव में कभी नहीं रहा हो, यह एक  नया और अजीब अनुभव था। खैर जब मैं इन सब से उभरा तो मेरे मन में कुछ सवाल पनप रहे थे और उनके सटीक जवाब ढूँढने की कोशिश में लग गया। जो सवाल मुझे सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा था, उसका सम्बन्ध धर्म से था। आगे बढ़ने से पहले आपको बता दूँ कि मैं जिस पंचायत की बात करने जा रहा हूँ, वो हिन्दू बहुल व जातियों के लिहाज़ से मिश्रित जनसंख्या वाली पंचायत है।

(मुझे नहीं पता कि धर्म या जाति मेरे पाठक के जीवन में कितना महत्व रखती है, लेकिन न चाहते हुए भी मुझे जाति शब्द का उपयोग करना पड़ेगा वरना ये कहानी अधूरी रह जाएगी।)

जब मैं इस गाँव में रहा तो मेरा ज़्यादा समय ऋषिदेव जाति के दोस्तों के साथ गुज़रा। जब मैं आस-पास के ऋषिदेव टोले में भी गया तो मुझे एक संरचना काफी विचलित करती थी। ज़रा आप भी उस संरचना की एक तस्वीर बनाने की कोशिश करें। ईट से बना आयताकार मचान जैसा स्थल, जिसके ऊपर सीमेंट के प्लास्टर वाले हिस्से पर तीन गोल आकार के छेद और उन छेदों में तीन अलग प्रकार के बांस के झंडे। यह मेरे लिए बिलकुल नया था और मुझे सवाल पूछने पर मजबूर करता था। जब मैं गाँव के आबो-हवा में ढल गया, तब धीरे धीरे संयम के साथ लोगो से इस स्थल के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करने लगा।

गाँव में मेरे जो कुछ युवा मित्र थे, मैंने पहले उनसे ये पूछा की आखिर ये कैसी संरचना है। मुझे जानकारी मिली की ये स्थल एक धार्मिक स्थल है जो दिना-भदरी को समर्पित है।

कौन हैं ये दिना भदरी – धारणाओं का आरम्भ

इन्सान की ज़िन्दगी भी कितनी विचित्र होती है, नहीं? एक सवाल समाप्त हुआ नहीं कि दूसरा उभर गया। आपके मन में भी जो भी सवाल उठा वो मेरे मन में भी उठा कि आखिर कौन हैं ये दिना और भदरी? इनके लिए ये पूजा स्थल क्यों बना है?

आप ये भी जानते होंगे कि जब आदमी सवालों के जवाब ढूँढने निकलता है तो उसके सवालो की जो लड़ी होती है, उसमें से कौन सी गुत्थी पहले सुलझे उसका कोई क्रम नही बना होता है। हालांकि पाठकों की आसानी के लिए मैंनें उत्तरों का एक क्रम बनाने की कोशिश की है, जिनसे आपके मन में उठते प्रश्नों के उत्तर आपको साथ-साथ मिलते जायें।

वापस अपने सवाल पर कि आखिर ये दिना और भदरी कौन हैं? मेरे पास दो रास्ते थे, पहला अपने शोध निदेशक से पूछना की माजरा क्या है? और फिर आपने शोध के मुद्दे पर वापस लग जाना या फिर दूसरा कि इन गाँव वालों से जानने की कोशिश करना। अंततः मैंनें इन दोनों ही रास्तों का उपयोग किया। पहले मैंने दूसरा रास्ता अपनाया, मैं जब भी गाँव वालो के साथ बैठता, खास कर ऋषिदेव दोस्तों के साथ तो मैं कोशिश करता की थोड़ी बहुत दिना और भदरी के बारे में जानकारी ले लूँ। मैं नवम्बर 6 को एक साहब से मिला, जो नवम्बर 5 की रात को आपने गाँव लौटे और इनको बड़ा मलाल था कि ये बिहार विधान सभा चुनाव में हिस्सा न ले सके, क्यूंकि ये पंजाब में मजदूरी कर रहे थे। बात करते-करते एक साहब ने उनकी तरफ इशारा करते हुए बोला, “अरे इनसे पूछिये ये आपको बतायेंगे दिना-भदरी के बारे में।” मैं सावधान मुद्रा में आकर और काफी उत्साह और विनम्रता से उनसे पूछा कि, “भैया ज़रा हमे भी अवगत कराइए न दिना भदरी बाबा से।”

वो भी काफी उत्साह और गर्व से बोले कि, “हमारे सिवा कोई नहीं जानता था, दिना भदरी को इस टोला में। ये सब जो आपके सामने है ये सब तो बच्चा था, इन लोग को क्या पता कि कौन थे दिना-भदरी, हम बताते हैं आपको। हम एक बार एक गाँव गए, यही बगल में है अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ तो वहा एक सम्मलेन हो रहा था, पूछने पर लोगो ने बताया की ये दिना-भदरी का सम्मलेन हो रहा है, उनके बारे में फिर लोगो ने बताया हमको (लोगो ने उनको क्या बताया यह पूछने पर भी इसका जवाब मुझे न मिल सका)। फिर हम यहाँ वापस आए और यहाँ मात्र 300 रूपया में हम इनका सम्मलेन करवाए, सबको खाना खिलाये, जनरेटर लगवाये, सब इंतजाम हम ही किये थे अकेले, कोई नही था। फिर भी किये और यहाँ के लोगो को बताये दिना-भदरी के बारे में। ये हम अपनी जवानी की बात बता रहे है जब हम 18-20 साल के थे तब की बात है।” (अभी इनकी उम्र 40-45 वर्ष की है।)

मैंने उनसे और पूछने की कोशिश की लेकिन वो इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहे थे, मैंने सोचा चलिए आगे की कहानी कभी और पता की जाएगी। बूँद-बूँद से ही नदी बनती है साहब।                      (ज़ारी है…)

Zaheeb ajmal is a researcher on the Lives on the Move project.

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