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युवा बेटी की पिता से नज़दीकी पर समाज को आपत्ति क्यों होती है?

मैं छठी क्लास में थी। पिता से अत्यंत लगाव होने के कारण मां से थोड़ी असहज रहती। उनके अगल- बगल भी होने से मैं सतर्क हो जाती , ना जानें किस बात पर बिगड़ जाएं। ऐसे क्यों किया? वैसे क्यों चलती हो? इससे क्यों बात किया और ना जाने कितने ही तरह के सवाल और बंदिशे। पापा ऐसे नहीं थे, खुलकर जीने देते थे, जो बोलो सो सही। इसलिए मां से मैं दूर-दूर ही रहती। लेकिन मेरा भाई  बिल्कुल विपरीत था, पिता के सामने चूं ना निकालता, वहीं मां के सामने शेर बन जाता। उसके सारे नखरे मां झेलती, उसके लिए ना कोई सलाह ना बंदिशें।

बचपन से मैं पापा के साथ ही सोई और भैया मां के साथ। उनका प्रेम ही शाश्वत नज़र आता सो उनके कंधे पर सर रखे बिना कभी नींद ही नहीं आई। पर एक दिन अचानक मां कमरे में बुलाकर कहने लगी, इतनी बड़ी हो गई हो, कोई लाज-शर्म है या नहीं? गधे जैसा शरीर लेके पिता से चिपककर सो जाती हो। आज से तुम्हें भी मेरे साथ सोना पड़ेगा। मुझपर यह फरमान थोप दिया गया। मगर उस छोटी उम्र में भी मैंने जाने- अनजाने यह सवाल कर ही दिया मां से, क्या भैय्या भी अब आपके साथ नहीं सोएगा? क्या वह अब पापा के साथ सोएगा?

मां तमतमा गईं, बोलने लगी वो लड़का है। मेरे साथ सोने से उसे कोई परेशानी नहीं है। मैं मां हूं उसकी। मैंने ये बात पापा से भी पूछी और वह बिना कोई ठोस कारण दिये कह गये कि लड़कियां जब बड़ी होने लगती हैं तो मां के साथ सोती हैं। मैंने मन ही मन  इस बात को स्वीकार कर लिया कि लड़कियों और उनके पिताओं को युवावस्था में साथ नहीं सोना चाहिए। लड़के बुढ़ापे तक मां- पिता किसी के साथ सो सकते हैं।

बहरहाल मैं, मां और भैय्या साथ सोने लगे। मां, भैय्या के बगल में और भैय्या मेरे बगल में सोता। हम रात भर फुसफुसाते रहते और सुबह तक भाई की बाहों को पकड़े सो जाती। एक साल यूंही गुज़रा कि मां ने फैसला किया कि वो अब हम दोनों के बीच सोएंगी। मुझे लिपटकर सोने की आदत थी। पर मां, भाई से लिपट सो जाती और मैं लड़की होने के साइड इफेक्टस को झेलती हुई कोने वाली दीवार से चिपके सोने का प्रयास करती। ना जाने कितनी ही रातों को उस दीवार से अपने मन की बातों को कहा होगा, उससे शिकायतें की होंगी कि सुबह पांच बजे मां सिर्फ मुझे क्यों उठाती है?

भैय्या पापा के साथ बाज़ार जाने में आनाकानी करता है फिर भी जबरदस्ती उसे ही क्यों भेजा जाता है जबकी मैं तो वहीं खड़ी थी सब्जीवाली थैली लिए,नई वाली चप्पल पहने। मोटरसाईकील वाली पीछे की पहली सीट अब भैय्या को क्यों मिल गई? जबकी वो तो मेरी हुआ करती थी, पापा की कमर को पकड़े मैं बैठती थी वहां। इन्हीं सवालों से खुद को घेरे मैं अपनी आंखों को सुजा लेती पर सुबह कोई सूजी आंखों का कारण ना पूछता। पापा भी नहीं।

जब दसवीं में गई तो अलग कमरा मिल गया। नियम लागू की गई कि दस बजे के बाद सभी अपने कमरे में चले जाएं। कभी- कभी जब हम भाई- बहन एक ही कमरे में गप्पे लड़ाते हुए सो जाते तो अगली सुबह हमदोनों की खैर नहीं होती। हर तरह की उल्टी- सीधी बातें बोली जाती। कभी- कभी तो दादी रिश्तों की कद्र किये बिना कुछ ऐसी बातें बोल जाती कि इस स्त्रीविरोधी समाज की नीचता के हद की कोई सीमा है भी या नहीं, मैं सोचने पर मजबूर हो जाती।

हमारे समाज में अगर कोई भाई या बाप अपनी बहन- बेटी से करीब होता है तो उसे ‘मउगा’ का नाम दे दिया जाता है, वहीं बहन- बेटी बदचलन हो जाती है।

धीरे-धीरे मैं सभी से अलग-थलग रहने लगी। कम बोलना, कम हंसना, कभी बोलती भी तो कुछ ऐसा बोल जाती की चार दिन तक बड़बोली, बिगड़ी, बहसी हुई हूं जैसी बातें सुननी पड़ती। इसलिए मैंने चुप रहना स्वीकारा। अपने घर के सारे मर्दों से दूर हो गई। ना पापा के सामने जाती ना भाई से थोड़ा बोलती। कोई भी परेशानी होती तो डायरी के पन्नों से साझा कर देती अंधेरे में बाबा की कंधों पर सर रखने का जब जी करने लगता तो बस चादर से खुद को लपेटे नम आंखों की नरमी को घोंटे सो जाती। बस इसलिए कि कल को मैं भी भाई- बाप के साथ सोने वाली बदचलन ना कहला जाऊं।

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