अमर सिंह एक अच्छे फंड मैनेजर और लाइज़नर तो हो सकते हैं लेकिन उनकी कोई मॉस अपील है, इस बात को साबित करने की कोशिश बेमानी है। इसके बावजूद सपा के स्टार प्रचारकों की सूची में अमर सिंह का नाम शामिल कराया गया है। समझ में नहीं आता कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव क्या साबित करना चाहते हैं? बहरहाल मुलायम सिंह की मंशा जो भी हो लेकिन सपा में द्वन्द के नये अध्याय के सूत्रपात में उनकी यह मंशा, आग में घी की तरह काम करेगी।
जो जीता वही सिकंदर, इसकी कहावत व्यवहारिक वास्तविकता की उपज है और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के संदर्भ में तो यही कहावत किसी भी कामयाबी का मूल मंत्र है। कोई मुलायम सिंह को दुनियादार कह सकता है और कोई पथभ्रष्ट, पर मुलायम सिंह ने सफलता के लिए किसी लक्ष्मण रेखा को अपनी बाधा नहीं बनने दिया। इसके बावजूद जनमानस में अस्वीकार होने की बजाय यूपी की राजनीति में शिखरपुरुष के रूप में अपने आपको स्थापित करने में उन्होंने कामयाबी हासिल की।
इन दिनों मुलायम सिंह “उपदेश कुशल बहुतेरे” की कहावत को भूलकर युवाओं को बहुत ज़्यादा उपदेश देने के शौकीन हो गए हैं। जबकि इन उपदेशों का अमल उन्होंने अपने खुद के जीवन में कभी नहीं दिखाया। जैसे कि मुलायम सिंह नौजवानों से कहते हैं कि सिर्फ नारे लगाने से बात बनने वाली नहीं है। समाजवादी पार्टी से जुड़े युवाओं को लोहिया और सोशलिस्ट विचारधारा के विद्वानों को गहराई से पढ़ना चाहिए तभी ढंग की राजनीति हो पाएगी।
अगर समाजवादी विचारधारा के अनुशीलन में मुलायम सिंह की इतनी निष्ठा होती तो क्या यह सम्भव था कि अमर सिंह को आमुख बनाने की वे सोच भी पाते। छोटे लोहिया के खिताब से विभूषित जनेश्वर मिश्र के जीवित रहते हुए ही अमर सिंह समाजवादी पार्टी के स्टेटस सिंबल के रूप में कहीं न कहीं स्वीकार किए जा चुके थे। तब तो समाजवादी पार्टी पूरी तरह से कारपोरेट पार्टी के रूप में तब्दील भी नहीं हो पाई थी।
पार्टी खड़ी करने के लिए मुलायम सिंह ने सोशलिस्ट आयडोलॉग में शुमार तमाम नेताओं को अपनी टीम में जोड़ा था। यह नेता मुलायम सिंह का उनके मुंह पर प्रतिवाद करने का साहस रखते थे और उनके अपने कद और अपनी पहचान की वजह से मुलायम सिंह उनकी सुनने को अपने को मजबूर पाते थे। लेकिन जल्द ही ऐसा दिन, समाजवादी पार्टी में आ चुका था जिसमें मुलायम सिंह का प्रतिवाद न किया जा सके। जनेश्वर मिश्र जैसे नेता भी मार्गदर्शक की हैसियत खोकर कब मुलायम सिंह के अनुचर की भूमिका में पहुंच गए, यह अंदाज़ा किसी को नहीं हो सका।
पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की इस दुर्दशा का मंत्र क्या मुलायम सिंह ने लोहिया की किसी किताब को पढ़कर सीखा था। लोहियावाद मुलायम सिंह की समाजवादी मिठाई में केवल सजावटी वर्क की तरह बचा रह गया था। ऐसी पार्टी में पढ़ने-पढ़ाने का कुछ मतलब नहीं हो सकता। खासतौर से लोहिया को पढ़कर तो ऐसी पार्टी के लोग अपनी ज़हनियत को ही खराब करेंगे। मुलायम सिंह इस कारण यथार्थ में कुछ हैं, लेकिन वे नौजवान पीढ़ी के सामने विचारधारा का ही दंड पेलते रहते हैं। इसलिए सोशलिस्ट दर्शन के सर्वथा विलोम अमर सिंह सपा की पहचान बना दिए गए तो पार्टी में कोई विद्रोह नहीं हो सका। यह दूसरी बात है कि आगे चलकर खुद अमर सिंह ने ही मुलायम सिंह से विद्रोह कर दिया था।
सच जो भी हो पर याराने से दुश्मनी में रिश्ते तब्दील होने के बाद अमर सिंह ने मुलायम सिंह के लिए ऐसी-ऐसी बातें कहीं कि कोई कल्पना नहीं कर सकता था। अमर सिंह जब किसी के खिलाफ बोलते हैं तो बहुत प्रकल्प हो जाते हैं। मुलायम सिंह के मामले में भी वे अपवाद नहीं रहे। शेरो-शायरी के कद्रदान अमर सिंह ने नेताजी से नाराजगी चुकाने के लिए हिंदुस्तान के सबसे बड़े शायरों में से एक बशीर बद्र की एक शायरी के नुक्ते का कोई ख्याल नहीं किया। जिसमें उन्होंने लिखा था कि दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। वैसे भी अमर सिंह और शर्मिंदगी के बीच कोई रिश्ता हो भी नहीं सकता।
मुलायम सिंह के राजनीतिक विचलन का एक नमूना अमर सिंह को खांटी राजनीतिज्ञों के ऊपर तरजीह देकर पार्टी के पहचान पुरुष का दर्जा दिया जाना है। तो अन्य सेक्टरों में भी उन्होंने किसी सिद्धांत और विचारधारा से बंधे बिना कार्य करने की उन्मुक्त शैली अपनाई। इसी के चलते समाजवादी पार्टी पर अपराधियों और धन्नासेठों को राजनीति के शीर्ष पदों तक पहुंचाने का आरोप लगा। जिताऊ को टिकट देने के नाम पर समाज में अशांति और अराजकता पैदा करने वालों को माननीय बनाने के सबसे ज़्यादा जतन मुलायम सिंह ने किए। लेकिन उनके बेटे होते हुए भी अखिलेश ने बहुत जल्दी ताड़ लिया कि यह तरीका आने वाले दिनों की राजनीति में अप्रासंगिक करार दे दिया जाएगा।
विकसित होते लोकतंत्र में परिष्कृत राजनीतिक शैली की जरूरत होती है। इसी समझदारी के चलते अखिलेश 2012 के विधानसभा चुनाव के समय से ही समाजवादी पार्टी को अपराधियों की पार्टी की इमेज से उबारने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। उन्होंने डीपी यादव के टिकट के मसले में इसी स्टैंड के चलते मोहन सिंह जैसे समाजवादी आयडियोलॉग तक को नीचा दिखाकर परे करने में संकोच नहीं किया था। लेकिन आज समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है उसमें इस ख़याल की कोई परवाह नहीं रह गई है। जबकि मुलायम सिंह तक को यह अहसास है कि उनके बेटे ने समाजवादी पार्टी को नये जमाने की जरूरतों के मुताबिक गढ़ने की जो कोशिश की है, वह गलत नहीं है। लेकिन शिवपाल ने जब इलाहाबाद के जाने-माने माफिया अतीक अहमद को कानपुर की कैंट सीट से समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की तो मुलायम सिंह अपने बेटे का पक्ष लेने के लिए सामने नहीं आ सके।
अखिलेश के एक और मेनटौर आजम खां के बेटे को विधानसभा का टिकट देकर उन्हें भी न्यूट्रल करने की कोशिश सपा हाईकमान ने की और इसमें कुछ हद तक उसे सफलता भी मिली है। ज़ाहिर है कि अखिलेश के खिलाफ लगातार पेशबंदी ज़ारी है, इसलिए समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश में भविष्य को लेकर ऊहापोह की स्थितियां गहराती जा रही हैं। अपने ही पिता द्वारा किए जा रहे तियापांच से हो सकता है कि अखिलेश पार्टी में अलग-थलग पड़ जाएं। लेकिन सवाल यह है कि राजनीतिक सड़ांध के मोह से छुटकारा न पाने पर क्या सपा सुप्रीमो और पार्टी के अन्य कर्ताधर्ता खुद को अलग स्थिति में ढकेलने की गलती नहीं कर रहे हैं?