भागलपुर में चार दिन पहले जिन गरीबों पर प्रशासन ने लाठियां बरसायीं उनका कसूर क्या था? वे उस ज़मीन पर अपना हक मांग रहे थे जो सरकार ने सालों पहले उन्हें बसने के लिये दी थी। उस ज़मीन पर दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया। ये गरीब लोग प्रशासन से साल भर से मांग कर रहे थे कि उन्हें उन्हीं की ज़मीन पर कब्ज़ा दिलाया जाये।
यह अजीब सा किस्सा है मगर बिहार में कितना आम है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि बिहार में पिछले कई दशकों में 27 लाख भूमिहीन परिवारों को जो रहने के लिये ज़मीन दी गयी थी उसमें से सिर्फ 15 लाख लोगों की ही पहचान हो पायी है। इसमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनका अपनी ही ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं है। पूरे राज्य में ऐसे सैकड़ों मामले हैं। कब्ज़ा करने वालों में ज्यादातर राजनीतिक दबंग हैं, अधिकतर लोग सत्ताधारी दल से सम्बंधित हैं। ऐसे 4-5 मामलों की मैं खुद रिपोर्टिंग कर चुका हूँ।
इन्हीं अवैध कब्ज़ों को मुक्त कराने के लिये पिछली सरकार ने ऑपरेशन दखल दिहानी की शुरुआत की थी मगर यह अभियान भी बहुत कारगर नहीं रहा। दिसंबर 2015 तक सिर्फ 33 हजार लोगों को ही दखल दिलाया जा सका। फिर सत्ता समीकरण बदला और इस ऑपरेशन को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया।
यह तो छोटा सा मामला है। बड़ा मामला भूदान की उस ज़मीन पर अवैध कब्ज़े का है जिसे कभी बांटा ही नहीं गया। किशनगंज में उस ज़मीन पर बड़े व्यवसायी चाय बगान लगा बैठे हैं, आदिवासी बार बार वहां हक मांगने जाते हैं मगर उन्हें भगा दिया जाता है। कई दूसरे जिलों में भी ऐसे ही मामले हैं।
कुल मिलाकर गरीबों के नाम पर बांटी जा चुकी और बाँटने लायक लाखों एकड़ ज़मीन ऐसी है जो दबंगों के कब्ज़े में है और सरकार इनके खिलाफ कुछ नहीं कर पा रही। कुछ तो राजनीतिक समीकरण की लाचारी है, कुछ अधिकारीयों की मिली भगत। यह ऐसे राज्य की हालत है जहां 65 फीसदी ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। राज्य सरकार ने खुद 45 लाख परिवारों के बीच 5-5 डिसमिल ज़मीन बाँटने का लक्ष्य रखा है।
यह कितना दुःखद तथ्य है कि गरीब भूमिहीन लोगों को 5 डिसमिल ज़मीन मिलता है तो उस ज़मीन पर राजनीतिक दबंग कब्ज़ा जमा लेते हैं और सामाजिक न्याय की पैरोकार सरकारें चुप्पी साध लेती हैं। मगर अब ज्यादा दिन तक यह सब शायद ही चले। दलितों ने अपना हक मांगना सीख लिया है। वे सड़क पर उतर रहे हैं और अपना हक मांग रहे हैं। यह हक लड़ने से ही मिलेगा।