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अबुल कलाम आज़ाद वो भारतरत्न जिन्हें नज़रबंद कर दिया गया था

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का असली नाम अबुल कलाम ग़ुलाम मुहियुद्दीन था। वह मौलाना आज़ाद के नाम से प्रख्यात थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वह एक प्रकांड इस्लामी विद्वान के साथ-साथ एक कवि भी थे। मौलाना आज़ाद कई भाषाओं जैसे अरबी, इंग्लिश, उर्दू, हिंदी, पर्शियन और बंगाली में निपुण थे। मौलाना आज़ाद किसी भी मुद्दे पर बहस करने में भी बहुत निपुण थे जो उनके नाम से ही ज्ञात होता है – अबुल कलाम का अर्थ है ‘वादविवाद का बाप’। उन्होंने इस्लाम धर्म के वास्तविकता से हटकर बनाये गए एक संकीर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति पाने के लिए अपना उपनाम ‘आज़ाद’ रख लिया। मौलाना आज़ाद स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षामंत्री बने। राष्ट्र के प्रति उनके अमूल्य योगदान के लिए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को मरणोपरांत 1992 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

प्रारंभिक जीवन

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का में हुआ था। उनके परदादा बाबर के ज़माने में हेरात (अफगानिस्तान का एक शहर) से भारत आये थे। आज़ाद एक पढ़े लिखे मुस्लिम विद्वानों या मौलाना वंश में जन्मे थे। उनकी माता अरब देश के शेख मोहम्मद ज़हर वत्री की पुत्री थी और पिता मौलाना खैरुद्दीन अफगान मूल के एक बंगाली मुसलमान थे। खैरुद्दीन ने सिपाही विद्रोह के दौरान भारत छोड़ दिया और मक्का जाकर बस गए। 1890 में वह अपने परिवार के साथ कलकत्ता वापस आए।शुरुआत में उनके पिता ही उनके अध्यापक थे, पर बाद में उनके क्षेत्र के प्रसिद्ध अध्यापकों द्वारा उन्हें घर पर ही शिक्षा मिली।

आज़ाद ने पहले अरबी और फ़ारसी सीखी और उसके बाद दर्शनशास्त्र, रेखागणित, गणित और बीजगणित की पढ़ाई की। अंग्रेजी भाषा, दुनिया का इतिहास और राजनीति शास्त्र उन्होंने स्वयं अध्ययन कर के सीखा।

करिय

उन्होंने कई लेख लिखे और पवित्र कुरान का स्पष्टीकरण लिखा। उनकी विद्वता ने उन्हें तकलीद यानी परम्पराओं के अंधे अनुसरण का त्याग करना और तज्दीद यानी नवीनतम सिद्धांतो को (जो इस्लाम के मूल सिद्धांतो को छेद ना देते हो) अपनाने का निर्देश दिया। उन्होंने जमालुद्दीन अफगानी और अलीगढ़ के अखिल इस्लामी सिद्धांतो और सर सैय्यद अहमद खान के विचारो में अपनी रूचि बढ़ाई। इस्लामी भावना से ओतप्रोत होकर उन्होंने अफगानिस्तान, इराक, मिश्र, सीरिया और तुर्की का दौरा किया। वह इराक में निर्वासित क्रांतिकारियों से मिले जो ईरान में संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए लड़ रहे थे। मिस्र में उन्होंने शेख मुहम्मद अब्दुह और सईद पाशा और अरब देश के अन्य क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। उन्हें कांस्टेंटिनोपल में तुर्क युवाओं के आदर्शों और साहस का प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। इन सभी मुलाकातों ने उन्हें राष्ट्रवादी क्रांतिकारी में तब्दील कर दिया।

विदेश से लौटने पर आज़ाद ने बंगाल के दो प्रमुख क्रांतिकारियों अरविन्द घोष और श्री श्याम शुन्दर चक्रवर्ती से मुलाकात की और ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। आज़ाद ने क्रांतिकारी गतिविधियों को बंगाल और बिहार तक ही सीमित पाया। दो सालों के अंदर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पूरे उत्तर भारत और बम्बई में गुप्त क्रांतिकारी केन्द्रो की संरचना की। उस समय बहुत सारे क्रांतिकारी मुस्लिम विरोधी थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार मुस्लिम समाज का इस्तेमाल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के विरुद्ध कर रही है।

1912 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मुसलमानों में देशभक्ति की भावना को बढ़ाने के लिए ‘अल हिलाल’ नामक एक साप्ताहिक उर्दू पत्रिका प्रारम्भ की। अल हिलाल ने मोर्ले मिंटो सुधारों के परिणाम स्वरुप दो समुदायों के बीच हुए मनमुटाव के बाद हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अल हिलाल गरम दल के विचारों को हवा देने का क्रांतिकारी मुखपत्र बन गया। 1914 में सरकार ने अल हिलाल को अलगाववादी विचारों को फैलाने के कारण प्रतिबंधित कर दिया। मौलाना आज़ाद ने तब हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित भारतीय राष्ट्रवाद और क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के उसी लक्ष्य के साथ एक और साप्ताहिक पत्रिका ‘अल बलाघ’ शुरू की। 1916 में सरकार ने इस पत्रिका पर भी प्रतिबंध लगा दिया और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कलकत्ता से निष्कासित कर रांची में नज़रबन्द कर दिया जहां से उन्हें 1920 के प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रिहा कर दिया गया।

रिहाई के पश्चात आज़ाद ने खिलाफत आंदोलन के माध्यम से मुस्लिम समुदाय को जगाया। आंदोलन का मुख्य उद्देश्य खलीफा को फिर से स्थापित करना था, क्योंकि ब्रिटिश प्रमुख ने तुर्की पर कब्ज़ा कर लिया था। मौलाना आज़ाद ने गांधी जी द्वारा शुरू किये गए असहयोग आंदोलन का समर्थन किया और 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश किया। 1923 में उन्हें दिल्ली में कांग्रेस के एक विशेष सत्र के लिए अध्यक्ष चुना गया। मौलाना आज़ाद को गांधीजी के नमक सत्याग्रह का हिस्सा होने के कारण नमक कानून के उल्लंघन के लिए 1930 में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें डेढ साल के लिए मेरठ जेल में रखा गया। मौलाना आज़ाद 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और 1946 तक उसी पद पर बने रहें। वह विभाजन के कट्टर विरोधी थे और उनका मानना था की सभी प्रांतो को उनके खुद के संविधान पर एक सार्वजनिक सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के साथ स्वतंत्र कर देना चाहिए। विभाजन ने उन्हें बहुत आहत किया और उनके संगठित राष्ट्र के सपने को चकनाचूर कर दिया।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री के रूप में 1947 से 1958 तक देश की सेवा की। 22 फरवरी 1958 को दिल का दौरा पड़ने के कारण उनका निधन हो गया।

मुस्लिम समाज में जब भी सुधारवादी आंदोलन उठे वो इस्लाम धर्म के विद्वानों द्वारा उठे, यह मुसलमानो का इतिहास है। सय्यद अहमद शहीद हो या शाह इस्माईल शहीद, सर सय्यद अहमद खान हो या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फार खान हो या मौलाना मौदूदी सभी इस्लाम धर्म के प्रकांड विद्वान् थे। इसलिए यह बात जानना बहुत जरुरी है के इस्लाम केवल एक धर्म नहीं बल्कि एक आंदोलन है, एक क्रांति है। मुस्लिम समाज में सुधार इस्लाम धर्म के विद्वान ही ला सकते है।

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