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अकाली दल और भाजपा के बीच मिट रही हैं दूरियां?

2015 में हरियाणा के मुख्यमंत्री शपथ समारोह में प्रधानमंत्री मोदी और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एक ही मंच पर थे लेकिन दोनों के बीच दूरी साफ देखी जा सकती थी। अंदाज़ा लगाना आसान था कि भारतीय जनता पार्टी को ये पसंद नहीं था कि उसके पंजाब का राजनीतिक भागीदार अकाली दल, हरियाणा के चुनावों में उसके विरोधी पक्ष इंडियन नैशनल लोकदल के साथ खड़ा हो। ये दूरी आगे भी कई सार्वजनिक जगहों पर देखी गई और ये क़यास लगाए गए कि पंजाब का ये राजनीतिक गठजोड़ कुछ ही दिनों में बिखर जाएगा। अब जब 2017 में पंजाब के अंदर विधानसभा चुनाव होने हैं तब मोदी और बादल के बीच की दूरियों को कम होते साफ देखा जा सकता है। इस रिश्ते में उतार-चढ़ाव 2014 से ही जारी है।

2014 के चुनावों के पहले नवजोत सिंह सिद्धू, जो उस वक्त भाजपा के सदस्य थे, अक्सर सार्वजनिक तौर पर बादल की पंजाब सरकार पर कटाक्ष करते रहते थे। इसी बीच चुनावों के ऐलान के बाद श्री अमृतसर साहिब से भारतीय जनता पार्टी ने सिद्धू का टिकट काट कर श्री अरुण जेटली को अपना उम्मीदवार बनाया। राजनीति पर नजर रखने वालों का ये दावा है कि इस उथल पुथल के पीछे अकाली दल की ही मांग थी जो श्री अमृतसर साहिब को अपनी एक सुरक्षित सीट समझ रही थी। इसी सीट से कांग्रेस पार्टी ने अपना टिकट  कैप्टन अमरिंदर सिंह को दिया। नतीजे आए, कांग्रेस इस सीट पर विजय हुई और इसी नतीजे ने भारतीय जनता पार्टी और अकाली दल के चुनावी गठजोड़ की मिठास को खटास में बदल दिया। ये हार कोई नहीं पचा पा रहा था खासकर जब नरेंद्र मोदी के रूप में भारतीय जनता पार्टी ने पूरे देश में अपना विजय परचम फहराया था। कुछ महीनों बाद हरियाणा के विधानसभा चुनावो में दोनों दल आमने सामने खड़े थे और नवजोत सिंह सिद्धू भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक बने हुए थे। अब खटास लगभग तकरार में बदल चुकी थी।

2014 चुनावों के पहले अक्सर अकाली दल केंद्र की कांग्रेस सरकार पर पंजाब से उपेक्षा का आरोप लगाता था। ये दावा भी था कि केंद्र में अकाली भागीदार की सरकार आ जाये तो पंजाब को उसका पूरा अधिकार मिलेगा। लेकिन 2014 में कमल के पूरी तरह खिल जाने से अकाली दल के पास गठबंधन में अपना कद बढ़ाने का कोइ मौका नहीं था।

इसी दौरान पंजाब में गुरु ग्रन्थ साहिब के पन्ने फाड़कर गलियों में बिखेरने वाली अप्रिय और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली घटना हुई। पंजाब के अलग-अलग जिलों से ऐसी ही घटना की खबर आई। भारी मात्रा में लोगों ने इसका विरोध किया। कहीं लोगों ने धरने दिए तो कहीं सड़क यातायात को पूरी तरह ठप कर दिया गया। जनता ने अकाली दल सरकार से सवाल पूछने शुरु कर दिए क्योंकि अकाली दल हमेशा से स्थानीय लोगों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करने की बात करता है।

इसके बाद भारतीय जनता पार्टी, दिल्ली और बिहार में अपने दम पर अकेले विधानसभा के चुनाव लड़ी और दोनो जगह पराजित भी हुई। मोदी की लहर खत्म होने की बात उठी और भारतीय जनता पार्टी ने एकबार फिर अपने पुराने राजनीतिक मित्रों को तवज्जो देने की योजना बनाते दिखने लगी। फिर वह चाहे शिव सेना हो या अकाली दल। अब भले ही दोनों दलों के नेताओं में बढ़ती नज़दीकियां सामने दिखती हों लेकिन इस पूरे प्रकरण ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को अपनी पहचान पंजाब मे कायम करने का एक मौका तो ज़रुर दे दिया। आज पंजाब जब नशे और बेरोज़गारी के चलते अपनी निराशा की चरम सीमा पर है तब ये देखना अति आवश्यक हो जायेगा कि पंजाब की जनता राज्य की बागडोर किसे सौंपती है। लेकिन एक संकेत ज़रुर ज़मीनी स्तर पर मिल रहा है और शायद उभरते हुये भारत की पहचान भी बन रही है कि इस बार मतदाता अपनी परेशानियों को ध्यान में रखकर अपना मत देगा ना की धर्म और जात-पात से प्रभावित हो कर।

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