पुराने समय से हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कहते आये हैं कि हर पीली चीज़ सोना नहीं होती। आज जब हम नोट बंदी के बाद से आम चर्चाएं और धारणाएं देख रहे हैं तो ऐसा लगता है जैसे कि लम्बी लम्बी कतारों में लगे कम आय और मध्यम आय के नागरिक ही परेशानियां उठा रहे हैं। जबकि उच्च आय वाले धन्ना सेठ और कारोबारी आमतौर पर खुश हैं। और ऐसा मानना तब और स्वाभाविक हो जाता है जबकि मुकेश अम्बानी, रामदेव जैसे व्यवसायी सरकार के इस फ़ैसले की तारीफ़ करते नहीं थकते। पर क्या जो वो कह रहे हैं वही सच भी है।
यदि हम कथनी और करनी के अंतर को देख कर फ़ैसला करने की कोशिश करें तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है। मिसाल के तौर पर स्वामी रामदेव को लीजिये, जो अपने पतंजलि के साथ इस समय देश के अग्रणी व्यवसायियों में शुमार होते हैं।
8 नवम्बर की रात को प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के ऐलान के अगले ही रोज़ रामदेव इस क़दम की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते नज़र आये थे। उन्होनें कहा था कि इसके साथ ही देश से काला धन समाप्त हो जाएगा। दो दिन बाद तो वो एक और जगह अपने भाषण के दौरान इस फ़ैसले का श्रेय तक लेने की होड़ में थे। स्वामी जी ने यहां तक आरोप लगाया था कि एटीएम पर लगी लंबी कतारें विपक्षी पार्टियों की एक राजनीतिक चाल है। प्रधानमंत्री जी की ताल में ताल मिलाते हुए वो 18 नवम्बर को ये भी कह गये कि प्रधानमंत्री की जान को नोट-बंदी के कारण ख़तरा है.
लेकिन अचानक से कुछ ऐसा होता है कि रामदेव जो कि पिछले कुछ समय से योग गुरु एवं व्यवसायी के अलावा भाजपा के प्रवक्ता भी लगने लगे थे वो विपक्षी दलों की वाह-वाही करने लगते हैं। सबसे पहले 30 नवम्बर को अखिलेश यादव ने पतंजलि फ़ूड पार्क का नोएडा में उद्घाटन किया। याद रहे कि अखिलेश ने नोएडा का अपने कार्यकाल का ये पहला दौरा किया है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जो मुख्यमंत्री नोएडा जाता है वो सत्ता से बाहर हो जाता है। 1989 में एन.डी.तिवारी के सत्ता में बाहर होने से ले कर ये क्रम आजतक जारी है। रामदेव ने इस मौके पर अखिलेश की जमकर तारीफ़ भी की और यहां तक कहा कि अखिलेश एक अच्छे संस्कारों वाले व्यक्ति हैं।
इसके एक दिन बाद ही रामदेव पटना में जा कर भाजपा के चिर प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव से मिले। इस मुलाक़ात को योग गुरु ने अनौपचारिक क़रार दिया था। लेकिन इस सब के बीच वो ये कहना न भूले कि लालू भारतीय राजनीती की धरोहर हैं और उनका स्वास्थ्य देश हित के लिए ज़रूरी है।
अगर इतना काफ़ी न था तो रामदेव ने नोट बंदी की सबसे मुखर विरोधी और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगले ही रोज़ तारीफ़ कर डाली। उन्होनें ममता को सादगी की प्रतिमूर्ति कहा। उनके अनुसार वे हवाई चप्पल पहनती हैं और 200 रुपये की साड़ी पहनती हैं। उनके पास कोई काला धन नहीं हो सकता। अपने पिछले बयानों से हटकर यहां उन्होनें ये भी कहा की नोटबंदी का विरोध विपक्षी दलों का लोकतान्त्रिक अधिकार है।
रामदेव ने ममता को आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी क़रार दिया। उनके अनुसार यदि एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन सकता है तो ममता के पास भी वो राजनैतिक योग्यता है। क्या कारण है कि [envoke_twitter_link]रामदेव नोटबंदी की तारीफ़ तो करते रहे पर साथ ही साथ नए राजनितिक साथी भी खोजने निकल पड़े?[/envoke_twitter_link]
यहां हमें राजनीतिक आम धारणा से हटकर चीज़ों को समझने की ज़रूरत है। चारों ओर से रिपोर्टें आ रही हैं कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था स्लो हो रही है। ये एक आम अनुभव भी है कि जनता की खरीदने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई है। पूर्व प्रधानमंत्री के इस आंकलन का कि अर्थव्यवस्था 2 प्रतिशत से धीमी हो सकती है अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने समर्थन ही किया है।
चारों ओर से रिपोर्टें मीडिया में रोज़ प्रकाशित हो रही हैं कि मजदूरों को काम की कमी हो रही है क्योंकि जहां वे काम करते थे वो फक्ट्रियां बंद हो रही हैं। लोगबाग अपने खर्चों में कटौती कर रहे हैं।इकोनोमिक टाइम्स की 23 नवम्बर की ख़बर के मुताबिक़ टाटा, बिरला, इत्यादि बड़े उद्योगपतियों की सम्पत्ति में नोटबंदी के बाद से 9 बिलियन डॉलर की कमी आ चुकी थी।
ऐसे में यदि पूरा देश कम ख़रीददारी कर रहा है तो इसका सीधा असर व्यवसायियों पर ही पड़ेगा। जहां पहले उनके 4 बिस्किट बिक सकते थे वहां अगर 2 बिक रहा है तो नुक्सान उनका है। ये नुक्सान नीचे मजदूरों तक जाता है। यदि उत्पादन कम होता है तो सबसे पहले दिहाड़ी वाले मजदूरों की ही छटनी होती है। लेकिन तब भी उत्पादन रोक देने पर या कम कर देने पर भी फैक्ट्री के खर्चें कुछ ख़ास कम नहीं होते. ऐसे में व्यवसायी वर्ग पर पड़ने वाली ये मार सब वर्गों को बराबर या कम ज़्यादा सहन करनी पड़ेगी।
ऐसे में रामदेव का एक व्यवसायी के रूप में विपक्ष के क़रीब जाना समझ आता है। उनका खुल कर न बोल पाने के कई कारण हो सकते हैं। जिनमें से एक ये भी है कि व्यवसायी वर्ग इस देश में कभी भी खुल कर सरकारी नीतियों का विरोध नहीं करता।
सरकार का विरोध करके वो अपने पीछे सरकारी एजेंसियों को नहीं लगाना चाहता। और रामदेव आज उसी व्यवसायी वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो नोटबंदी से परेशान तो है परन्तु खुल कर सामने से कह नहीं पा रहे।