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ज़िद्दी, बागी और जुझारू व्यक्तित्व के लिए याद की जाएंगी जयललिता

जयललिता भारतीय समाज के विरोधाभासी कार्य व्यवहार का एक टिपिकल उदाहरण रही हैं। चैनलों पर सोमवार को देर रात तक यह सवाल छाया रहा कि तमिलनाडु की राजनीति की कमबैक क्वीन क्या जिंदगी में कमबैक कर पाएगी। लेकिन देर रात 11.30 बजे उनके निधन की औपचारिक घोषणा कर दी गई।[envoke_twitter_link] उनके साथ-साथ तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास के एक सबसे महत्वपूर्ण अध्याय को विराम लग चुका है।[/envoke_twitter_link]

बहुचर्चित भारतीय संस्कृति के मॉडल में स्त्री की आदर्श छवि करुणा, ममता, वात्सल्य और सुकुमारिता की प्रतिमूर्ति के रूप में उकेरी जाती रही है लेकिन विरोधाभास यह है कि जिन स्त्रियों को भारतीय राजनीति में सफलता और मान्यता मिली वे इन प्रतिमानों से एकदम विलोम रही हैं। पुरुष प्रधान होते हुए भी भारतीय समाज को उन स्त्रियों का प्रभुत्व सर्वोपरि रास आया जिन्होंने निष्ठुरता, मद और अहंकार की सारी सीमाएं लांघ दीं। फिर बात चाहे इंदिरा गांधी की हो, जयललिता की या मायावती की। सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली इन स्त्रियों के व्यक्तित्व को ज़िद्दी, बागी और जुझारू जैसी विशेषताओं से परिभाषित किया जा सकता है।

तमिलनाडु में ग्लैमर गर्ल से अम्मा तक का विलक्षण सफर तय करने के लिए जयललिता ने जिन तौर-तरीकों को अपना सिद्धमंत्र बनाया, अगर उन पर गौर करें तो तमिल फिल्मों की यह सुपर नायिका खलनायिका की जगह पर बैठी नजर आ सकती हैं लेकिन आलम यह है कि 75 दिनों से बीमार चल रही जयललिता की अंतिम सच्चाई की उद्घोषणा करने में केंद्र और राज्य सरकार के हाथ-पांव फूल गए थे।

इस घोषणा के पहले उन्हें बहुत साहस जुटाने की जरूरत महसूस हुई जबकि उनकी उम्रदराज अवस्था के मद्देनज़र इतनी लम्बी बीमारी के बाद अनुयायी तो क्या घर के लोग तक मानसिक रूप से किसी भी अप्रिय समाचार को सुनने के लिए अपने को शायद पूरी तरह तैयार कर चुके होते। पर तमिलनाडु में अपनी अम्मा के प्रति लोगों की श्रद्धा और दीवानगी का आलम यह है कि अचानक उद्घोषणा करने पर सदमे से पागल होकर जनसैलाब कानून व्यवस्था के सारे तटबंधों को अशांति के प्रलय में गर्क कर सकता है इसलिए सरकारें बहुत सतर्क थी और उन्हें व्यवस्था संभाले रखने के लिए युद्ध जैसे आपातकालीन प्रबंध करने पड़ रहे थे।

जयललिता की राजनीतिक कथा पर गौर करें तो उनके कार्यों और कार्यवाहियों के औचित्य को तलाशने में सिर घूम जाएगा। जिन एमजीआर को वे अंत तक अपना मेंटर घोषित करती रहीं हकीकत यह है कि उऩको भी अंतिम दिनों में जयललिता को राजनीति में आगे लाने के लिए बहुत पछतावा झेलना पड़ा था। दरअसल जयललिता के समकालीन देश भर  के राजनीतिक पुरोधा महसूस करते हैं कि वे किसी की सगी नहीं रहीं। जयललिता ने अपने दर्प की मार से मीडिया तक को नहीं बख्शा। पहली बार निर्वाचित मुख्यमंत्री के रूप में 1991 से 1996 के बीच उन्होंने सत्ता के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और घोटालों की ऐसी श्रंखला कायम की कि उन्हें जेल जाना पड़ा। अदालत ने उनको दो बार मुख्यमंत्री की गद्दी से उतारा, लेकिन अदालत उन्हें चाहे जो दंड देती रही हो पर जनता की अदालत में तो इन विवादों के बाद उनका कद और दबदबा बढ़ता ही रहा और [envoke_twitter_link]राज्य में छह बार मुख्यमंत्री की शपथ लेकर उन्होंने एक रिकार्ड कायम किया।[/envoke_twitter_link]

उन्होंने मुख्यमंत्री पद की अंतिम पारी में एक और रिकॉर्ड बनाया। हाल के दशकों में नये चुनाव के बाद तमिलनाडु में सत्ता में अपने को लगातार दूसरी बार रिपीट करने के रिकार्ड से हासिल आत्मविश्वास का असर था कि जयललिता कुछ बदली बदली सी हो गई थीं। तमिलनाडु विधानसभा के नये चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के अवसर पर शत्रुता की हद तक अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि और उनके बेटे स्टालिन का जिस तरह उन्होंने ख्याल किया वह उनमें आये बदलाव की बानगी रहा। हो सकता है कि आखिरी दिनों में उऩकी कठोरता के नरमी में बदलने की वजह यह रही हो कि लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने अपने राज्य की राजनीति में एकछत्र वर्चस्व का जो अहसास पाया था उसकी तृप्ति ने उनकी सारी पिछली कुंठाओं का गरल धो डाला हो।

कभी जयललिता ने किसानों को मुफ्त बिजली बंद करने और 5 हजार से अधिक आमदनी वालों के राशनकार्ड रद्द करने जैसे कदम उठाए थे, लेकिन इस बार जब चुनाव जीतने की रणनीति का ताना-बाना उन्होंने बुना तो उसकी बुनियाद में रियायतों की सौगात बांटने को उन्होंने मुख्य एलीमेंट बनाया। उनकी इस रणनीति की कामयाबी अखिलेश यादव जैसे युवा मुख्यमंत्री को भी अनुकरण योग्य लगी और यूपी विधानसभा के चुनाव में वे जयललिता पैटर्न पर तेजी से अमल करते दिख रहे हैं।

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा, विवादित कार्यशैली अपनाकर नाम और रुतबा कमाने वाली जयललिता के संदर्भ में यह कहावत खूब याद आएगी। वे एक ऐसे उदाहरण के रूप में सामने रहेंगी जो यह जताता है कि नागरिक शास्त्र का एक कोना सामाजिक मनोविज्ञान से जुड़ता है जिसे ध्यान में रखने की जरूरत होनी चाहिए। जिस तरह तमाम लोगों के शौक और सनकें दलील से परे होती हैं उसी तरह सामाजिक मनोविज्ञान में कुछ ऐसी विलक्षणताएं निहित रहती हैं जिन्हें नीति और नैतिकता की कसौटी पर कसे जाने की कोशिश फिजूल है।

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