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Letter To President (hindi)

 

प्रिय राष्ट्रपती महोदय,
सादर प्रमाण ।
महोदय, जैसे कि आप जाणते है, हमारे भारत को खुद कि स्वतंत्र और अनोखी प्राचीन परंपरा रही है। सभी जाती, धर्म, पंथ एवं वंश के लोगोंका हमारे संस्कृतीने हमेशा सम्मान हि किया है। मगर अफसोस कि बात यह है, कि आज यह सभ्यता और परंपरा तेजीसी लुप्त होती दिखाई देती है। समाज के कुछ घटकोंका सदियोंसे शोषण होता आया है, इस मे कभी अल्पसंख्यांक शामिल थे , तो कभी दलित। कभी आदिवासी थे तो कभी अल्प उत्पन्न गट के लोग। समय के अनुसार इस शोषण कि मात्रा बदलती गई, लेकिन शोषण कम नही हुवा। कुछ वर्ग ने अपने हक के लिये संघर्ष किया, उन्हें समाज ने भी साथ दी। लेकिन आज भी हमारे समाज मै कुछ घटक एसे है, जिनका आज तक कोई देशव्यापी संघटन नही बन सका, क्यूंकि उन्हें समाज में मान्यता नही थी। जी, मै LGBT ( Lesbian, Gay, Bisexul, Transgender) समाज कि बात कर रहा हू।
आदरणीय महोदय, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृती के लिये समलेंगीकता नयी बात नही है। खजुराहो के शिल्प, कृतीवसा रामायण – नारद संहिता जैसे प्राचीन ग्रन्थ, भारतीय वैद्यक शास्त्र कि निव कहलनेवाला चौदवे शतक मे लिखा ‘बृहद संहिता’ यह ग्रन्थ, मीर-ताकी-मीर कि कथाये यह इस बात का प्रमाण है। क्या यह हमारे संस्कृतिका हिस्सा नही है? लेकिन फिरभी आज इस सामाजिक वर्ग को, अपने अस्तित्व के लिये, एवं आपने हक के लिये संघर्ष करणा पड रहा है। महोदय, तेजीसे महासत्ता के और बढते हुये भारत का लाभ क्या इस वर्ग के लिये नही है?
प्राचीन भारत में भी, समलेंगीकता एक आम बात थी। इस समाज के तबकेको तब अपणाया जाता था। यह किसी धर्म, पंथ एवं प्रकृतिके खिलाफ नही है। लेकिन ब्रिटिश राज के दौरान, अंग्रेजोने अपने धार्मिक ग्रन्थ ‘बायबल’ के आधार पर , समलेंगीकता को ‘भूत कि साया’ बताते हुवे इस पर रोक लगाने के लिये, भारतीय दंड धारा के तहत कलम 377 का निर्माण किया। इस कलम के तहत दो सज्ञान व्यक्तियों मे, आपसी सहमती के बाद भी, समलेंगीक सबंध रखना अपराध है। और इसके तहत आजीवन कारावास कि सजा हो सकती है। आज़ादी के सत्तर साल बाद भी हम विकटोरियन कायदे से प्रशासन चला रहे है, यह बात किस हद तक सही है? और आश्चर्य कि बात तो यह है, जिन्होंने यह कानून हमपर थोप उस ब्रिटन मै, आज समलेंगीक विवाह को भी मान्यता दे दि है।
आदरणीय महोदय, जागतिक आरोग्य संघटन ( WHO) एवं अन्य जागतिक संशधोन इस बात का प्रमाण है, कि समलेंगीकता बिलकुल प्राकृतिक है। यहां तक कि, संयुक्त राष्ट्र संघ ( UNO) ने भी,  इस तबके के हक कि रक्षा के लिये कई कदम उठाये है।
 महोदय, मै आपसे पुछना चाहता हूं, कि किसीभी तिसरे व्यक्ती को , अन्य व्यक्ती कि, जो कि सज्ञान है, उसकी लेंगीकता ( sexual Orientation) क्या हो, यह निश्चित करणे का क्या अधिकार है?  ऐसा करणा क्या उस व्यक्ती के गरीमा  एवं आत्मसम्मान के खिलाफ नही है? और इसी बात का खयाल रखते हुये सन 2009 मे, दिल्ली हाय कोर्ट ने , समलेंगीकता को कानुनी करार दिया था। अफसोस कि बात यह है, कि चार साल बात मा. सुप्रीम कोर्ट ने इसे अवैध बताते हुये , समलेंगीक सम्बन्ध को अपराध बताया। लेकिनहालही में , मा. सुप्रिम कोर्ट ने , आपने ही फैसलेपर दुबारा विचार करणेका निर्णय लिया है। न्यायालय के 2012 के निर्णय के मुताबिक भारतके आबादी के 10 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग इस समाज से जुडे है, लेकिन सामाजिक अप्रतिष्ठा के भय के कारण कोई अपने लेंगीकता के बारे मे खुल के बात नही करता। महोदय, हमारे आबादी का 10 प्रतिशत का अर्थ है, कि 13 करोड लोगोंसे भी ज्यादा आबादी ! इतने बडे तबकेके साथ यह न्याय हो रहा है, यह निंदणीय बाब है।
महोदय, भारतीय राज्यघटना के नजरीये से देखा जाये, तो यह कानून व्यक्ती के गरीमा के खिलाफ (कलम 21) तो है ही, इसके अलावा यह स्वतंत्रता का भी उल्लंघन है(कलम 19)। संविधान कि  कलम 14 हम सब को सिर्फ ‘भारतीय’ के नजर से देखते हुये, दो व्यक्ती मे भेदभाव का प्रतिबंध करती है। महोदय, कलम 377 जो समलेंगीकता के विरोध मै है, यह इन सभी मूलभूत अधिकारोंका उल्लंन करता है। इ.स. 2000 मे श्री. जीवन रेड्डी के अध्यक्षता मे नियुक्त किये हुये ‘लॉ कमिशन’ कि रिपोर्ट भी धारा 377 को ‘गैरकानुनी एवं मानवी हक का भंग करनेवाली’ का करार देते हुये इसे तात्काल प्रभाव से मुक्त करनेकी मांग कि थी।
महोदय, जब हम भारत को विश्वगुरु बनानेकी बात करते है, जब हम सामाजिक न्याय एवं कल्याणकारी राज्य कि बात करते है, तब हम इतने बडे तबकेकी मांग को कैसे आंदेखा कर सकते है? महोदय, आज हमे जरुरत है, कि आगे बढकर हम इस समाज को अपणाये; उनकी भावना का सम्मान करते हुये, उन्हें गरीमापूर्ण जीवन का अवसर दिलाने के लिये प्रयास करे। अगर कोई भी व्यक्ती जन्म से स्वतंत्र है और समाज मे समान होता है, तो कोण किस से प्यार करे और कोण किस के साथ अपना जीवन व्यतीत करे, यह निर्णय हम उस व्यक्ती के विवेक पर क्यू नही सोप सकते?
महोदय, यह विषय किसी के दांभिकता का या किसी धर्म का मसला नही है। व्यक्ती के मूलभूत अधिकार एवं संविधान मे वर्णित ‘गरीमापूर्ण जीवन’ से यह विषय संबंध रखता है। महोदय, मेरी आसपसे बिनंती है, आप अपने अधिकारोंका उपयोग करते हुये, इस समाज को अपने हक दिलाने कि कोशिश करे, गलतफहमी से ‘दोषी’ ठराये गये इस समाज को समाज के मुख्य प्रवाह मे लाने कि कोशिश के लिये, आपकी प्रतिमा हर भारतीय के मन मे चिरंतन रहेगी ।
जय हिंद ।
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