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तुम अपनी आंखें नीची कर लो मगर हम अपनी ज़िप ऊपर नहीं करेंगे

यूनिसेफ का वो एड देखा है? शौचालय वाला, वही… जिसमें विद्या बालन है। देखा ही होगा। कुल तीन एड बनवाये थे यूनिसेफ ने ‘जहां सोच वहां शौचालय’ श्रृंखला में। तीनों में विद्या ही थी, एड का उद्देश्य लोगों को घर में शौचालय बनवाने के लिए जागरूक करना था। एड काफी प्रभावशाली था, आप भी मानते होंगे इस बात को। मानना भी चाहिए, जहां औरतों को घूंघट में रखा जाता है वहीं शौच के लिए उन्हें बाहर जाना पड़ता है। ये कैसा दोहरापन है? घर की इज्जत इतनी ही प्यारी है तो दोनों तरीके से बचाओ। बहू घूंघट तभी रखेगी जब घर में शौचालय होगा।

पर पुरूषों का क्या? उन्हें ना घूंघट करना है ना ही घर की इज्ज़त बचानी है। स्वास्थ्य भी शायद मुन्नी, नेहा, सलमा का ही खराब होता होगा। पुरूष तो हट्टे – कट्टे, बलवान ही पैदा होते हैं।  शौच पर भिनभिनाने वाली मक्खियों की क्या मजाल जो उनके स्वास्थ्य को खराब कर दे। “शौचालय का प्रयोग ,मतलब आप औरत हैं”। इस मानसिकता से हम खुद को कितना ऊपर उठा पाये हैं ? आप कहेंगे, बहुत। अब शायद ही कोई ऐसा पिछड़ा इलाका हो जहां पुरूष शौच के लिए बाहर जाते हों।

वाकई? ऐसा कुछ देखने के लिए किसी पिछड़े इलाके में जाने की ज़रूरत है? हाल ही का वाकया है। रोज़ की तरह मैं कॉलेज जाने के लिए ऑटोरिक्शा का इंतजार कर रही थी। गांधी मैदान से ही बेलीरोड का ऑटो लेती हूं। आप में से कुछ जो पटनावासी होंगे, उन्हें मालूम होगा की  बिहार में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 350वें प्रकाशोत्सव का आयोजन किया गया था। पूरा शहर तैयारीयों में जुटा था। गांधीमैदान में 48 करोड़ की लागत में भव्य टेंट सिटी का निर्माण हो रहा था। करीब एक लाख श्रद्धालुओं के ठहरने का इंतजाम था। हर तरफ सफाई का काम ज़ोर- शोर से चल रहा था। मैदान के बाहरी और भीतरी दोनों हिस्से की साफ- सफाई का विशेष ध्यान रखा जा रहा था। यह सारे छोटे- बड़े सफाई के काम करते हुए आपको छोटे बच्चों से लेकर हमारे उम्र के नौजवान मिल जाते।

मुझे भी मिला एक बच्चा कंधे पर बस्ते की जगह ब्लीचिंग का बोड़ा लटकाये। अपने छोटे, कोमल हाथों से वह मैलों और शौच पर ब्लीचिंग का छिड़काव कर रहा था। गांधी मैदान के चारों तरफ मैला है, समूह में लोग आपको मैदान की बाहरी दिवारों पर शौच करते मिल जाएंगे। जबकी ऐसा नहीं की अगल- बगल कोई शौचालय नहीं है। खैर, बच्चा पूरे लगन से ब्लीचिंग का छिड़काव कर ही रहा था कि इतने में एक प्रतिष्ठीत नौजवान आया और बच्चे के बगल में शौच करके निकल गया। लोग इतने बेशर्म होते हैं, विश्वास कर पाना मुश्किल था।

सोचा इस दृश्य को कैमरे में कैद कर लूं मगर सूबे के कुछ कॉलेज ऐसे भी हैं,जहां फोन ले जाना प्रतिबंधित है। सो मैं कॉलेज की इस दकियानूसी कानून को कोसते हुए आगे तो बढ़ गई मगर यह वाकया दिल को भीतर तक झकझोर गया।

क्या सचमुच मर्दों को खुले में शौच करते हुए देखने के लिए किसी पिछड़े इलाके में जाने की ज़रूरत है? नहीं, वो तो आपको किसी सड़क के किनारे,  किसी ब्रिज के नीचे, किसी झाड़ी के पास, कोई गार्डेन के कोने में, गली- चौराहे, नगर- महानगर, हर शहर हर मोहल्ले में  मिल जाएंगे।

मिले भी क्यों न? ‘संयम’ शब्द का अर्थ भी तो इन्हें नहीं मालूम। मगर हम बखूबी जानते हैं। ऐसा नहीं की हमें प्रेसर नहीं आता मगर लाज- शर्म का घूंघट बचपन से ही ऐसा ओढ़ा कि चाह कर भी नहीं उतरता। इसमें पुरूषों की कोई गलती नहीं, उन्हें तो बचपन से यही सिखाया जाता है कि तुम्हें अपने लिंग की प्रदर्शनी का एक मौका भी नहीं गवाना। इसमें शर्म की कोई बात नहीं अगर चार औरतें तुम्हें शौच करते देख ले। उल्टे उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। हमें तो यही सिखाया है इस समाज ने, तुम अपनी आंखे नीची कर लो मगर वो अपनी ज़िप ना बंद करें।

मर्दों के लिए खुले में शौच करना फक्र की बात है और औरतों के लिए बेहूदगी। यह मानसिक विकार है और इस समाज की शोखियत जो तुम्हे खुले में शौच करने की आजादी देता है। वरना हमें तो बचपन से ही कंट्रोल करने की तालीम दी जाती है। बात सिर्फ पुरुषों की तुलना में स्त्रीयों कि सामाजिक अवदशा की नहीं है मगर एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण की भी है।

शौचालय के विज्ञापनों को ऐसे पेश किया जाता है मानों केवल औरतों की इस्तेमाल की चीज़ हो, पुरुषों की नहीं। मानों बीमार तो केवल मुन्नी होगी, ज़रूरत तो केवल प्रियंका भारती जैसी महिलाओं को है, पुरुषों की इसमें कोई भूमिका ही नहीं। ताज्जुब होता है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां शौचालय का प्रयोग भी लोग इज्ज़त और लाज से जोड़ कर करते हैं, स्वास्थ्य से नहीं। वैसे पुरुष तो इस इज्ज़त वाली नौटंकी से भी आज़ाद हैं। इसलिए तो यूं सड़को पर खुलेआम प्रदर्शनी करते हैं और कोई आपत्ति भी नहीं जताता।

फोटो आभार- फेसबुक

 

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