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राष्ट्रवाद बनाम पत्रकारिता

राष्ट्रवाद और पत्रकारिता ये दोनो ही शब्द हमारे समाज के बीच एक बड़ी साख रखते हैं, लेकिन क्या ये दोनो  एक साथ चल  सकते हैं? अगर हाँ तो कैसे और नहीं तो क्यों नहीं, ये समझने के लिये हमे इनके स्वरूप और इनके साथ आ रही जिम्मेदारियों को समझना होगा।

राष्ट्रवाद का मुद्दा आजकल काफ़ी गरमाया हुआ है, इतना की लोग  इसकी तपिश से डरने लगे है और जल जाने के डर से इस बारे मे अपना सही मत नहीं दे पा रहे हैं। राष्ट्रवाद आता हैं राष्ट्र से और हमारा राष्ट्र एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, लेकिन क्या हमारा राष्ट्रवाद भी हमें इतनी लोकतांत्रिकता दे रहा है? इस समय तो ऐसा नहीं लगता, क्योंकि एक खास सोच रखने वाले कुछ विशिष्ट लोगों ने इसे अपनी बपौती बना लिया है और ये राष्ट्रवाद, धर्मवाद बनता जा रहा है।

एक राष्ट्रवादी पत्रकार कैसा होना चाहिये? जो राष्ट्र के हित में बात करे और हमारे राष्ट्र का हित लोकतंत्र में है तो वो पत्रकार जो लोकतांत्रिक बात करे। लेकिन इस समय राष्ट्रहित को सरकार-हित और लोकतंत्र को सरकार-तंत्र में बदलने की कोशिशें की जा रही हैं जिसमें सरकार के विरोधियों के लिये कोई जगह नहीं है। इस सन्दर्भ में एक महान पत्रकार के मत को देखा जा सकता है, ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ जिनका कहना था कि पत्रकार को हमेशा सरकार के विरोध में होना चाहिये।

इस समय पत्रकार भी सरकार-हित और लोकतांत्रिक-हित को लेकर दो गुटों में बट गए हैं, इसीलिये कश्मीर में प्रेस पर सेंसरशिप की ख़बर और छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के उत्पीड़न की ख़बर इक्का दुक्का समाचारपत्रों में ही दिखायी देती हैं। इसके पीछे कारण हैं मीडिया में बढ़ता बाज़ारवाद और इस समय देश का महौल जिसमें पत्रकारों को पीटने के लिये ढ़ूंढ़ा जा रहा हैं तथा सोशल मीडिया में उन पर अभद्र टिप्पणियां की जा रही हैं।

हमें ये समझने की ज़रूरत है कि हमें व्यक्ति के पेशे को देख कर उसके मत को समझने की कोशिश करनी चहिये। हम एक सैनिक और पत्रकार से समान काम की उम्मीद नहीं कर सकते, क्यूंकि इन दोनों की ही कार्यभूमी, कर्तव्य और देशहित में कार्य करने का तरीका अलग-अलग है। शहीदी सर्वोच्च है और रहेगी लेकिन इसके बाद भी कुछ हैं जो हमें विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाये रखने में योगदान देता है और विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बने रहने के लिए लोकतंत्र के हित की बात करनी होगी ना के सरकार के हित की। सरकार का हित कभी राष्ट्र का हित नहीं होता और राष्ट्र के हित को हमें उदारवादी नज़रिये से समझना होगा ना की संकीर्ण नज़रिये से। हमारे देश की संस्कृति भी कभी संकीर्ण नहीं रही है और उसने सबको यहाँ रहने-बसने की आज़ादी दी हैं तो कम से कम अपनी गँगा-जमुना तेहज़ीब की ख्याति बचाने के लिये तो हमें सही रास्ते पर आना ही चाहिये।

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