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डिमॉनिटाइज़ेशन: एक नीति, कई सवाल

किसी भी सरकारी नीति, क़ानून या योजना को आंकने के कई तरीके हो सकते हैं जैसे आर्थिक, राजनीतिक, स्ट्रैटेजिक या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ज़बान में ‘रणनीतिक’ और सामाजिक, समाजवैज्ञानिक वग़ैरा। नीति/क़ानून बनाने वाले अक्सर नीतियों के राजनीतिक परिणामों को देखते हुए नीतियां बनाते हैं, जबकि विश्लेषक, समुदाय और संस्थान इन्हें अपने अलग-अलग ‘लोकेशन’ और ‘एडवांटेज’ के हिसाब से देखते-समझते हैं। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जो नीति आम जनमानस में या सत्ताधारी/सवर्ण वर्ग को आर्थिक नज़रिये से ग़लत लग रही हो, वह सामाजिक नज़रिये से सही और ज़रूरी हो, उदाहरण के लिए आरक्षण नीति या फिर ‘रेपिस्ट को फांसी’ को क़ानून बनाने जैसी लोकप्रिय मांग जो मानवीय अधिकार और प्रगतिवादी सामाजिक बदलाव के नज़रिये से ग़लत है।

हाल ही में लिए गए ‘डिमॉनिटाइज़ेशन’ (या सेलेक्ट डेनोमिनेशन-डिसकंटीन्युएशन) के फैसले को भी कई नज़रियों से देखा-आंका जा रहा है। पूछा जा रहा है कि इसका अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? इसी तरह कृषि, आयकर, काले धन, अवैध संपत्ति, बैंकिंग सिस्टम पर और यहां तक कि भारत-चीन के व्यापार संबंधों पर और उत्तर प्रदेश के चुनावों पर इसका क्या असर होगा इस पर भी चर्चा गर्म है।

मगर मेरे घर पर काम करने वाली महिला का सवाल कुछ और ही है और इस नीति को देखने का उनका नज़रिया भी। दो दिन पहले दिल्ली स्थित रिठाला की झुग्गी-झोपड़ी बस्ती में आग लग गयी और उसमे तक़रीबन 700 झुग्गियां जल गयीं। यह महिला भी वहीं रहती हैं और इनका सवाल यह है कि अब जब घर जल चुका है और उनके पास न कैश है, न राशन-कार्ड/आधार तो अब वे क्या करें? ज़ाहिर है, इस तरह की विपदा के समय में सबसे ज़्यादा ज़रुरत पैसे की होती है और हालांकि दिल्ली सरकार की तरफ से राहत की घोषणा हो गयी है लेकिन दवा, कपड़े, बर्तन से ले कर झुग्गी दोबारा बनाने के लिए दफ़्ती, लकड़ी और तारपॉलिन शीट से ले कर छोटे बच्चों के लिए दूध आदि सब खरीदने के लिए इन्हें कैश चाहिए।

जले हुए घरों और उजड़ी हुई उम्मीदों के बीच खड़ी उस अधेड़ स्त्री से अपनी व्यथा रुंधे-गले से भी कहते नहीं बनती, जिसने शराब पीने वाले पति से छुपाकर कई सालों में कुछ 5-7 हज़ार रुपये बचाए थे और अचानक आयी नोट-बंदी की मजबूरी के चलते उन्हें बदलवाने के लिए बाहर भी निकाला था। कई दिन दिहाड़ी का नुकसान कर के बैंक की लाइनों में लग कर बदलवाए गए ये पैसे जो अब उसके पति से छिपे भी नहीं, झुग्गियों में लगी आग में जल गए। उसके पास इस बात का कोई सबूत नहीं है, न ही सरकार की तरफ से मिलने वाली राहत इसकी भरपाई कर सकती है। वह इसलिए भी परेशान है कि पैसों के अलावा उस पर से उसके पति का विश्वास भी चला गया है। इसका मतलब है अब एक लंबे समय तक उसे बात-बात पर अपने पति कि उलाहना, ताने, और पिटाई भी सहनी होगी।

जिस ज़मीन पर ये झुग्गियां बनी हैं वह उस इलाके के आर्थिक व राजनैतिक रूप से प्रभावशाली जाट समुदाय के कुछ लोगों के क़ब्ज़े में है। हालांकि कुछ समाज-सेवी संस्थाएं एक लंबे समय से इन झुग्गी-वालों की मदद करने की कोशिश कर रही हैं लेकिन अब भी ज़मीन पर जिन लोगों का क़ब्ज़ा है उन्होंने आग के बाद यहां रहने वालों को जाने के लिए कह दिया है। उन्होंने पहले भी यहां रहने वालों को यहां के पते पर राशन/आधार इत्यादि बनवाने से मना किया था और अब भी शायद उन्हें यही डर है कि अगर रिलीफ-कैम्प्स में काम कर रहे वालंटियर्स की मदद से इनके यह कागज़ दोबारा या नए सिरे से बन गए तो ज़मीन पर से इनका क़ब्ज़ा ख़त्म न हो जाए। दिल्ली सरकार की तरफ से मनीष सिसोदिया ने यहां मोबाइल एटीएम वैन्स भेजेने की भी घोषणा की है, मगर त्रासदी यह है कि बिना पहचान या प्रमाण पत्र के बैंक भी पैसा नहीं देता।

अक्सर हम मानवीय-त्रासदी या ‘ह्यूमन-ट्रेजिडी’ के नज़रिये से नीतियों को नहीं देखते-समझते। न ही हमें किसी स्कूल/कॉलेज के सिलेबस में यह पढ़ाया जाता है कि ‘पोस्ट-डिमॉनिटाइज़ेशन’ परिपेक्ष में झुग्गियों में लगी आग का राजनीतिक-अर्थशास्त्रीय विश्लेषण कैसे किया जाए। मगर त्रासदी फिर यही है कि अक्सर वही सवाल ज़्यादा अहम होते हैं, जो नहीं पूछे जाते।

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