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जाति और वर्ग की गिरफ्त में सहमी महिलाओं की दोस्ती,प्यार और सेक्स

निरंतर में पिछले एक साल से हम एक रिसर्च कर रहे हैं। इस रिसर्च की कल्पना 2014 में हुई थी, जब हमने कम उम्र में विवाह और बाल विवाह पर एक अध्ययन किया था और यह पाया था कि युवाओं की ज़िंदगी से जुड़े इस मुद्दे की चर्चाओं और काम में युवाओं का आवाज़ गायब हैं। युवा जेंडर, यौनिकता, और शादी के बारे में क्या सोचते हैं और इनका जुड़ाव जाति, वर्ग, पितृसत्ता, धर्म की व्यवस्था से कैसे समझते हैं, यह व्यक्त करने के लिए हम एक मंच तैयार करना चाहते थे। हमने थिएटर, खास कर थिएटर ऑफ़ द ऑप्रेस्ड की तकनीकों का इस्तेमाल करने का प्रयास किया है। रिसर्च के दरमियान हमने राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में युवाओं के साथ कार्यशालाएं (वर्कशॉप्स) की हैं। यह लेख ऐसी ही एक कार्यशाला में बताई गई घटना और उससे शुरू हुई चर्चा के बारे में है।

यह कहानी एक शहर में चल रहे शिक्षा केंद्र की है। यह केंद्र पुनर्वास कॉलोनी में चलता है, जो भौगोलिक तौर पर शहर के बिलकुल हाशिए पर है। उसी प्रकार यहाँ रहने वाले लोग भी अपने आपको शहर की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के हाशिए पर पाते हैं। यहाँ रहने वाले लोगों की चुनौतियों की झलक सेंटर में आने वाली लड़कियों की कहानियों में मिलती है। सेंटर में आने वाली लड़कियों को नाचने-गाने का बड़ा शौक है और हिंदी फिल्मों के गानो के सभी स्टेप्स उन्हें अच्छी तरह याद हैं।

लड़कियों के सपने भी कई रंगों से बुने हैं, जहाँ कुछ लड़कियाँ “बड़े हो कर क्या बनना है?” की सोच में लगी रहती हैं तो वहीं कुछ को किसी दिन मोहल्ले के बाहर घूमने जाने के सपने बहला जाते हैं।

सेंटर यहाँ पिछले 8 महीनो से चल रहा है। इन महीनो में कई लड़कियाँ जुडीं और अलग-अलग कारणों से कई छूट भी गई। हमने उनके साथ नाटक का सत्र कुछ दिन पहले ही शुरू किया है, लेकिन अभी तक का सफर मज़ेदार रहा है। पहले सत्र में हमने कई खेल खेले और चर्चा के वक्त इन लड़कियों, जिनकी उम्र 16 से 25 साल के बीच की होगी, ने कहा कि उनको अपने बचपन की याद आ गई। वे अपने आप को बच्चा नहीं मानती थी और उनको ठीक तरीके से पता था कि उनका बचपन कब ख़त्म हुआ और जवानी कब शुरू हुई। अक्सर इसका जुड़ाव अलग-अलग पाबंदियों से था। पाबंदियों पर चर्चा दूसरे सत्र तक जारी रही और दूसरे सत्र में पहनावे और रोक-टोक पर चर्चा हुई। इस चर्चा में लड़कियों ने बताया था कि घर के बाहर वे क्या पहन कर जा सकती हैं और क्या नहीं पहन सकती, इस पर नियंत्रण लगाने वाले कई बार उनको बीच रास्ते टोक देते हैं या ताने भी मारते हैं। उन्होंने बताया कि ताने देने वालों में उनके भाई और भाइयों के दोस्त भी शामिल होते हैं।

इस रोक टोक और बीच रास्ते की तानेबाजी से वे सब परेशान रहतीं थी।

इसी चर्चा को हम तीसरे सत्र में और आगे ले जाना चाहते थे। हमने सोचा कि इसके लिए एम्बोडिड वाकिंग की गतिविधि सही रहेगी। इस गतिविधि में फैसिलिटेटर प्रतिभागियों को रूम में चलने के लिए बोलती हैं। चलते चलते, फैसिलिटेटर के कहने पर उनको अलग-अलग स्थिति/जगह की कल्पना करनी होती है, यह मान कर कि वे उस स्थिति/जगह में है। इस गतिविधि के और भी कई विकल्प है, लेकिन यहाँ इसको इस तरीके से इस्तेमाल करने का सोचा गया।

हमे सेंटर पहुँचने पर पता चलता है कि आज सिर्फ 4 लड़कियाँ आई हैं। संस्था से हम 2 लोग है और उनकी 1 टीचर है। मेरे मन में कई सवाल आने लगते है। 4 लोगों में चर्चा क्या हो पाएगी? हम 3 हैं और वे 4, उससे वे चुप तो नहीं हो जाएँगी? जो आई भी हैं, वे क्या सिर्फ खेल कूद के लालच में आई हैं या उनका मन है चर्चा करने का? इन कई सवालों को लेते हुए हमने सत्र शुरू किया। पहले वार्म अप के लिए हमने कई खेल खेले। भाग दौड़ वाले खेल, कुछ जो लड़कियाँ खेलती हैं और उनको पसंद है, और कुछ नए जो हमने उनसे खिलवाए। खेलों का उद्देश्य यही था कि वे शारीरिक तौर पर थोड़ा खुल जाएँ और जिस रूम में हम हैं उसमे अपने आप को कंफर्टेबल महसूस करें।

पौने घंटे के बाद हमने लड़कियों के साथ एम्बोडिड वाकिंग की गतिविधि शुरू की। एक कोने में मैं चम्मच और प्लेट से टंग-टंग आवाज़ कर रही थी और लड़कियों को उस आवाज़ को ध्यान में रखते हुए, उसकी ही गति से चलना था। जब आवाज़ आए तो चलें, बंद हो जाए तो रुकें, तेज़ आए तो तेज़ी से चलें, और धीरे आए तो धीरे चलें। कुछ देर तक उनको ऐसे मान के चलना था जैसे कि उस रूम में उनके आलावा और कोई है ही नहीं। फिर धीरे धीरे से, इस खेल में हमने और पहलुओं को जोड़ना शुरू किया। पहले उनसे कहा कि वे कल्पना करें कि वे खेत में चल रही हैं। फिर मेट्रो में, बाज़ार में, किसी ऐसी जगह जहाँ सिर्फ औरतें हो, मोहल्ले में बारिश के वक्त, मोहल्ले में जब कोई भी न हो, मोहल्ले में जब सभी हों। लड़कियों को इन सब जगह पर चलने का खूब मज़ा आ रहा था। खेत में वे फसल को छूते हुए चलीं और बारिश में भीगने के मज़े लेने के साथ-साथ एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए चलीं।

जब हमने उनसे कहा कि वे मोहल्ले में चलें और लड़का या लड़की कुछ भी बन सकती हैं तब एक लड़की तुरंत लड़का बन गई और बाकियो को छेड़ने लगी। उसे देख कर बाकी लड़कियाँ भी एक एक करके, लड़का बनने लगीं और एक-दूसरे को छेड़ने लगी। वे इस पूरी स्थिति के इतने मज़े ले रहीं थीं कि उनकी हँसी से पूरा कमरा भर गया था ।

गतिविधि ख़त्म हुई और हम सब चर्चा करने बैठे। पिछली बार की चर्चा इतनी अच्छी नहीं गई थी और मुझे डर था कि लड़कियों को चर्चा में दिलचस्पी नहीं होगी। सिर्फ 4 लड़कियाँ मौजूद थीं और उनके भी घर जाने का समय होने वाला था। हमने कुछ आसान सवालों से चर्चा की शुरुवात की, जैसे– उन्हें कैसा लगा? और अलग-अलग स्तिथि में चलते हुए उनके अनुभव क्या थे? वे बता रही थी, जैसे कि खुले में चलते हुए अच्छा लगा, कीचड़ उछालने में मज़ा आया आदि। जब हमने पूछा कि ऐसी जगह पर चलकर कैसा लगा जहाँ सिर्फ महिलाएँ थीं, तो एक लड़की मरियम ने बताया कि उसे अच्छा नहीं लगा, क्योंकि उसके अनुभव में लड़को और मर्दो की अपेक्षा औरतें उसको ज्यादा ताने मारती हैं। इसके बाद चर्चा छेड़खानी पर आई। कुछ देर हम सब हँसते रहे कि कैसे लड़कियाँ एक दूसरे को छेड़ रही थीं। हँसते-हँसते हमने पूछा कि जब कोई छेड़ता है तो कैसा लगता है। तब एक और लड़की राबिया ने बताया कि उसके साथ रास्ते में कोई बात करे, उससे उसको कोई दिक्कत नहीं है जब तक कि वह उसका अपमान न करे। बाकी लड़कियाँ भी इससे सहमत थी। मैंने इसको और समझने के लिए पूछा,

“इसका मतलब क्या है? क्या कभी किसी ने छेड़ा है जो अच्छा भी लगा है?”

इससे राबिया ने अपनी कहानी बतानी शुरू की। उसने कहा कि वह जब दस साल की थी तो अपने गाँव गई थी, जहाँ एक लड़का उसको पसंद करने लगा था। पहले तो वह सिर्फ उसके घर के पास आ कर उसको देख कर चला जाता था लेकिन धीरे धीरे वह उसके घर आने लगा। कुछ दिनों में उनकी बातें होने लगीं और उस लड़के ने एक दिन बीच रास्ते में राबिया का हाथ भी पकड़ लिया। बात आगे बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक आ गई है कि कुछ महीनो में राबिया की इस लड़के के साथ शादी होने वाली है। वह लड़का गाँव से शहर आ गया है और राबिया के घर में ही रहता है।

कहानी ख़त्म होते ही हमने पूछा कि क्या किसी और के पास ऐसी कहानियाँ हैं? तब मरियम अपनी कहानी बताने लगी। मरियम को भी उसके गाँव में एक लड़का देखने आता था। बात करने के अवसर कम ही थे तो वह देख कर चला जाता था। जब छुट्टी ख़तम होने पर शहर वापिस आने का समय आया तो वह लड़का पूरे रास्ते मरियम से कुछ दूर पीछे पीछे चलता रहा और आ कर बस में भी उसके पीछे बैठ गया। बस में मरियम चाहती भी तो उसके साथ नहीं बैठ सकती थी, क्योंकि उसका भाई उसके साथ था। सफर शुरू होने से पहले वह चुपचाप बस से उतर गया। हमने मरियम से पूछा कि उसको कैसा लगा जब ऐसा हुआ तो उसने बताया कि उसको अच्छा लगा था और उसको इस लड़के के साथ बात करने में कोई ऐतराज़ नहीं था।

इस पूरी चर्चा में सोनिया काफी चुप सी थी। सोनिया की बचपन में ही शादी हो गई थी और हमे डर था कि वह इन लड़कियों की कहानियों को जज न करे और कुछ ऐसा न कह दे जिससे माहौल बदल जाए। लेकिन सोनिया मुस्कुरा रही थी और वह अपनी कहानी बताना चाहती थी। उसने बताया कि उसकी शादी मौसी के बेटे के साथ होने वाली थी लेकिन अंत में किसी वजह से नहीं हो पाई। सोनिया के पिता ने उसकी शादी किसी और से करवा दी लेकिन उसकी मौसी के बेटे को अभी भी यही उम्मीद थी कि किसी दिन वह सोनिया के साथ अपना घर बनाएगा। एक दिन जब वह सोनिया के घर आया था तो उसने सबके सामने सोनिया का हाथ भी पकड़ लिया (यह हाथ पकड़ना सभी लड़कियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था) और कई साल वह कोशिश करता रहा कि किसी तरीके से सोनिया को मना ले उसके साथ शादी करने के लिए। अंत में जब उसने किसी और के साथ शादी कर भी ली तो सबसे पहले मुँह दिखाई के लिए उसको सोनिया के पास ले आया।

नारीवादी चर्चाओं में अब तक हम छेड़खानी को एक बुरी, खौफनाक चीज़ की तरह देखते हैं। छेड़खानी की चर्चा में इन लड़कियों ने ये कहानियाँ क्यों बताई यह सोच के हम थोड़े चकित थे। हमने उनसे पूछा कि उनको इन लड़को से या इस पूरी चीज़ में कही डर नहीं लगा? तो उन्होंने कहा, “हाँ कभी कभी लगता है कि अगर मोहल्ले वालो को या घर वालो को पता चल गया तो क्या होगा?” हमने पूछा कि क्या उनको बुरा नहीं लगता? तब उन्होंने बताया कि अगर कोई अनजान लड़का भी सड़क पर इज़्ज़त से बात करे तो उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं है। राबिया कहने लगी कि वह चाहती है कि सलमान खान जैसा कोई डीसेंट लड़का उसे छेड़े। इस पर एक और लड़की उछलकर बोली “सलमान खान जैसे डीसेंट लड़के छेड़ते नहीं है” इस पर और चर्चा नहीं हो पाई क्योंकि लड़कियों के घर जाने का समय आ गया था और वे जल्दी-जल्दी अपनी चीज़े समेटने लगीं। इसमें प्रियंका की कहानी भी रह गई।

यह आखरी बात मेरे ज़हन में बैठ गई। मैं किसी भी मायने में सलमान खान को डीसेंट की छवि में नहीं देखती थी। मैंने काफी सोचा कि इन लड़कियों को क्यों यह लगा कि सलमान खान डीसेंट है। मेरे मन में वर्ग और जाति से जुड़े प्रश्न पैदा हुए– किस तरह हिंदी फिल्मों में ज़्यादातर उच्च जाति और उच्च वर्ग के किरदार ही दिखते हैं। क्या ये लड़कियाँ यह मानती है (या जानती है) कि उस समुदाय से आने वाले लोग रास्ते पर, इस तरीके से छेड़ते नहीं हैं? क्या उनका यह मानना इसलिए है कि वे छेड़ते ही नहीं है या क्या वे जानती है कि अगर वे छेड़ते भी है तो इस तरह नहीं? और भी कई सवाल थे जो मन में चलते रहे, और इस कहानी के अलग-अलग पहलू काफी देर मेरे मन में चलते रहते है, मानो खुलती परतें हों।

छेडखानी के खिलाफ नारीवाद ने बुलंद आवाज़ उठाई है। हमने कहा है कि जब हमे रास्ते में बिना हमारी मर्ज़ी छेड़ा जाता है तो यह हमारे अधिकार का उल्लंघन है और हम इसके विरोध में है। लेकिन इस चर्चा से कुछ और चीज़े समझ आने लगी। उदाहरण के लिए की पितृसत्ता में औरतों को अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने की जगह नहीं है, जिस वजह से लड़कियाँ चाहे भी तो सड़क पर चलते किसी अनजान आदमी से बात करने से पहले 10 बार सोचती हैं, इस डर से कि अगर समाज में किसी ने देख लिया तो वे बुरी लड़की समझी जाएंगी और इसकी परवाह न करें तो उनके साथ हिंसा भी हो सकती है। अगर लड़कियाँ भी खुले रूप से अपनी चाहत को व्यक्त कर पाती तो क्या छेड़खानी के माहौल में कुछ बदलाव आता? इस पर सोचना ज़रूरी है। दूसरा मसला है जाति और वर्ग की दर्जाबंदी का।

हम “चाहते” हैं कि अपनी ही जाति या अपने ही वर्ग के लोगों के साथ दोस्ती करें, प्यार करें, सेक्स करें– कभी हम ये भी चाहते हैं कि हम अपने वर्ग/जाति से “ऊपर” के वर्ग/ जाति से दोस्ती करें

– जैसे राबिया चाहती है, लेकिन हमारे समाज की दर्जाबंदी की वजह से, क्या हम इतने ही खुले रूप से निचले वर्ग/जाति के साथ दोस्ती/ प्यार/सेक्स के सम्बन्ध में जाना चाहते हैं? और अगर जाना भी चाहें तो क्या समाज हमे जाने देगा?

ऐसे कई और सवाल भी हैं। शायद आपके मन में भी होंगे। हम चाहते हैं कि नारीवाद इन प्रश्नों से जूझे ताकि हम अपनी ज़िन्दगी और अपने समाज को और बेहतर तरीके से समझ पाएँ।

(लेख मूल रूप से निरंतर ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है)

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