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ज़िन्दगी की इस भागमभाग के बीच आइए एक सपना खुद के लिए भी देखें

आखिर हम ज़िन्दगी में क्या बनना चाहते हैं ? कुछ तो सोचा होगा कि आगे चलकर क्या करेंगे ? अब तो हर जगह यह पूछा जाने लगा है। यह सवाल किसी भी समय हो सकता है , आमतौर पर तब भी जब खेलने कूदने वाले बचपन के दिन चल रहे होते हैं। कई बार तो कोई जवाब न मिलता देख हम उतावले हो जाते हैं फिर कुछ उदाहरण देकर बच्चों को सपने याद दिलाने लगते हैं।

यह बात भी सुनते ही आ रहे हैं कि युवाओं को सपने देखने चाहिए। बेशक कुछ युवाओं ने बड़े सोच समझ कर ऐसा किया भी हो लेकिन उन सबके बारे में हम कम ही जानते हैं। इसलिए अपने सपनों को कैसे देखें, और उन्हें कैसे पूरा करें यह चुनौती आज भी युवाओं के सामने है।

हंसी ठिठोली में हम कह ही सकते हैं कि नींद में तो रोज़ ही सपने देखते हैं लेकिन जागने पर सबकुछ भूल जाते हैं।  फिर भी कोई इन नींद के सपनों को भी याद करके अच्छी स्टोरी या फिल्म बना ही सकता है। खैर मैं बात कर रहा था खुली आँखों से देखे जाने वाले सपनों की। देश में सक्रिय एक राष्ट्रीय युवा संगठन है जो अपने आप को युवाओं के जागी आँखों का स्वप्न कहता है।

प्रवाह दिल्ली और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा शुरू की गई यूथ कलेक्टिव जैसी पहल भी युवाओं के लिए अपने सपनों की खोज सी है। यह पहल इस मायने में खास है कि युवा खुद के सपनों को देखें और उसपर काम करें जिसके लिए वह एक यूथ स्पेस देता है। संभव है कुछ और समूह भी इस तरह से काम कर रहे हों।

यह सब प्रयोग हमें बताते हैं कि महात्मा गाँधी का हिन्द स्वराज्य , जेपी की सम्पूर्ण क्रांति, स्वामी विवेकानंद के वसुधैव कुटुम्बकम से लेकर भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखे गए एकता, अखंडता ,संप्रभुता, लोकतंत्र व समभाव की बातें भी हम भारत के लोगों का एक बड़ा खुली आँखों से देखा हुआ स्वप्न ही तो है। इस सपने को अपने अन्दर देखने और उसे साथ साथ जीने की चुनौती भी हम सभी के सामने है।

मध्यप्रदेश छतीसगढ़ और महाराष्ट्र के युवाओं के इकोलॉजिकल राईट के लिए कार्यरत निवसीड और टी डी एच जैसी संस्थाएं भी पर्यावरण बचाने के लिए युवाओं को तैयार कर रही हैं। यह भी एक बड़ा और हमारे भविष्य से जुड़ा साझा स्वप्न है।

यदि युवा साथी खुद को नशे और निराशा से बाहर निकालें और वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर विचार करें तो ज़रूर वे अपने सपनों को पूरा कर सकेंगे। कई विवाहित युवतियों के लिए उनके बच्चों, घर परिवार की बेहतरी ही उनका सपना हो जाता है या कहें कि ज़िन्दगी की भागदौड़ में उनके सपने कहीं खो जाते हैं। बीच में पढ़ाई छोड़कर बालश्रम में लगे बच्चों-किशोरों से वे क्या बनना चाहते हैं यह पूछने पर वे डॉक्टर, टीचर, पुलिस या कोई बड़ा आदमी होना अपने सपने के रूप में बताते हैं।

ऐसे ही भोपाल के शहरी गरीब बस्तियों में रहने वाली कई किशोरियां का सपना है कि वे पुलिस बनें। वे बस्तीयों में बढ़ते शराबखोरी, हिंसा, जुआ व छेड़छाड़ को रोकने के लिए ही ऐसा चाहती हैं। हालाकि पुलिस की वर्तमान कार्यप्रणाली को लेकर वे सकारात्मक नहीं हैं। इस तरह के कुछ सपने बदलती परिस्थितियों से भी बदल रहे हैं जबकि कुछ बड़ी नौकरियों को पाने के सपने भी उनपर बचपन से लदे हुए हैं।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली इन सपनों के हिसाब से बच्चों और युवाओं को ढालने की मशीन ही बन गई है। इस शिक्षा से भी मिडिल से हाई स्कूल और हायर सेकंड्री जाने वाले विद्यार्थी किस फील्ड में जाने के लिए क्या विषय लें यह भी नहीं बता पाती। इसलिए ज्यादातर युवा, दोस्तों को देखकर या मार्कशीट के नंबरों के आधार पर, टीचर के कहे अनुसार विषय ले लेते हैं। जबकि कई दफा युवाओं की रूचि और सपने किसी और ही विषय से जुड़े होते हैं।

देखा जाये तो युवाओं को सही मायनों में  करियर डेवलपमेंट की काउंसलिंग नहीं मिल रही है। फिर एक बार समय निकल जाने के बाद आप युवाओं को संस्कारहीन होने का दोष तो दे सकते हैं किन्तु समय पर सही परामर्श और अवसर देने की जवाबदेही से बच नहीं सकते।

जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में 10-24 की उम्र के करीब 36 करोड़, 46 लाख, 60 हज़ार युवा हैं। ये देश की आबादी का 30.11 प्रतिशत से भी अधिक है। वह दिन दूर नहीं जब भारत की आधी आबादी युवाओं की होगी। इस आंकड़े में हम खुद को ईमानदारी से खोजें तो कई तरह के नशे में कैद स्वयं को पायेंगे। इसलिए यहाँ खुद को होश में लाना  युवाओं के अपने ही वश में है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रपट 2014 के अनुसार देश में हर घंटे कम से कम 15 लोगों ने आत्महत्या की। इसमें 41 फीसदी युवा थे जिनकी उम्र 14 से 30 के बीच थी। इनमें भी  6 फीसदी छात्र थे जो पढ़ लिखकर कुछ बनने का सपना संजोये थे।

युवाओं के आत्महत्या को लेकर पोद्दार इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन मुंबई द्वारा 14 से 24 साल के युवाओं पर किया गया अध्ययन भी चौंकाने वाला है। मुंबई ,बैंगलोर ,चेन्नई के 1,900 युवाओं पर किये गए इस अध्ययन में 65 प्रतिशत युवाओं ने परिवार, पढ़ाई और रोजगार के दबाव में बने क्षोभ और निराशा के कारण आत्महत्या की है।

मध्यप्रदेश में भी विद्यार्थियों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर विधानसभा समिति साल भर से शोध कर रही है। संभव है प्रशासन इसमें से कई मामलों को प्रेमप्रसंग से जोड़ कर देखे। किन्तु यह भी उनके प्रेम से भरे सपनों को देखने और उसे पाने की हद ही कही जाएगी जिसे शायद वे या हम समझ नहीं सके। युवावस्था प्रेम आकर्षण और नए सपनों को देखने की उम्र होती है फिर भी इसे हमने स्वप्न दोष की तरह ही देखा है। युवाओं से जुड़े इन मसलों पर हमें अपनी सोच और शिक्षा दोनों बदलनी होगी।

अंततः परिवार की गरीबी और युवाओं के जीवन कौशल विकास के लिए सरकारी बजट की कमी के साथ घटते रोज़गार के अवसर भी युवा सपनों की राह में बड़ी रूकावट है। भारत के युवा खुली आँखों से सपने देख सकें, उसे पाने की सही राह जान सकें और वे अपने सपनों को जी सकें तो सच्चे मायने में युवाओं के सपनों का भारत आकार ले सकेगा।

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