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फिल्म जगत बड़ी आसानी से खलनायकों को विकृत दिखाकर उसे बुराई से जोड़ देता है

कभी-कभी पौराणिक या फैंटेसी कार्यक्रम देखते हुए बड़ी हंसी भी आती है और दुःख भी होता है। हंसी निर्माता-निर्देशकों की सोच पर आती है और दुःख उसके सांस्कृतिक प्रभाव पर। कभी गौर से कोई फिल्म, धारावाहिक या पौराणिक कार्यक्रम देखिये, कमोबेश हमारे सारे खलनायक एक ही ढर्रे पर नज़र आते हैं- अजीबो-गरीब वस्त्र, बड़े भारी थुलथुले शरीर, बड़ी-बड़ी मूंछे, पौराणिक कार्यक्रम है तो सींग और दांत भी, पर साथ में “काला रंग”!! पर क्यूं हमारे खलनायक अक्सर इतने अजीब से इतने अलग दिखते हैं। और काला रंग क्यूं पाप और आसुरी प्रवृत्ति का प्रतीक माना जाता है। क्या हमारे खलनायक वाकई खलनायक है या इसका भी गहरा मनोविज्ञान है, समाजशास्त्र है, इतिहास है।

हमारे नायकों को देखिये- अक्सर सफाचट चेहरा, गोरा रंग, कसा हुआ शरीर इनकी पहचान है। तो क्या नायकों को खलनायकों से अलग करने हेतु ये अंतर बनाये गए। पर क्यूं हमारे खलनायक हम जैसे नहीं दिखते? क्या हम ये मानकर बैठे हैं कि पापी लोगों की एक अलग प्रजाति होती है (असुर, राक्षस, दानव और जाने क्या क्या नाम दिए गए है इनको) या शायद हम डरते है ये मानने से कि गुण-दोष, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य सब इंसानी फितरत का एक हिस्सा है और कोई इससे अछूता नहीं है, हम भी नहीं। कोई इन्सान अपने आप को पापी या खलनायक नहीं मानना चाहता शायद इसीलिए जिस क्षण हम खुद को नायक समझने लगते है उसी क्षण हम एक खलनायक की तलाश में भी लग जाते हैं। क्यूंकि खलनायक की तलाश से ही हमारा नायकत्व साबित हो सकता है। फिर चाहे वो धार्मिक प्रतिद्वंदी हों, निजी शत्रु या समाज से बहिष्कृत लोग हों, सांस्कृतिक रूप से अंजान सभी लोगों में खलनायक बन जाने की संभावनाएं दिखती है। हर कोई खलनायक हो सकता है हमारी नज़र में, बस हमारे अलावा।

कितना विरोधाभास है न, मूछों को मर्दानगी का प्रतीक माना जाता है और इसे असुरों के साथ बड़ी प्रमुखता से जोड़ा जाता है। मूंछो दाढ़ियों से युक्त नायक विरले ही दिखते है। उससे भी विरले हैं काले नायक, क्यूंकि कुछ भी कहो हम से बड़ा रंगभेदी  ढूंढना मुश्किल है। विशेषकर तब जब हमारी संस्कृति और सभ्यता की परिभाषा उत्तर भारतीय परिवेश में अवस्थित हों और जब हम श्वेत रंग को प्रतिष्ठा व काले को कुंठा का प्रतीक मानते हों। तब, जब सौंदर्य प्रसाधन की सामग्रियां गोरा होने को सुन्दर होना मानती हों, ऐसे समाज में ये बिलकुल विश्वसनीय है कि हमारे खलनायक काले होते हैं। जाने-अनजाने हम इन छवियों को आत्मसात कर लेते हैं और ये छवियां अखरना बंद हो जाती हैं। ये अन्याय क्लेश नहीं पहुंचाता, न इसका झूठ कचोटता है। हम अपने आप को नायक मानने के फेर में इतना उलझ गए हैं कि ये भी भूल गए हैं कि हम किन लोगों को खलनायक बना रहे है। हम जिन लोगों पर हंस रहे हैं, क्या वो वास्तव में हंसने लायक हैं? हम जिनकी हार पर तालियां बजा रहे हैं, हम उन्हें वास्तव में हारता हुआ क्यूं देखना चाहते हैं?

हमारे खलनायक कितने भी मानवीय क्यूं न हो यदि हम उन्हें खलनायक साबित कर सकते हैं और उनकी तरफ की कहानी को दबाये रख सकते हैं तो वो खलनायक हैं। फिल्मों में कथाओं में विरले ही खलनायक के परिपेक्ष्य को, उसकी कहानी को महत्व दिया जाता है क्यूंकि एक डर है सांत्वना का। ये वही सांत्वना है जो किसी को नायक बनाती है। किसी भावुक पृष्ठभूमि का होना उसके किये सौ अन्यायों, हत्याओं, पापों पर मिटटी डाल देता है और इसी का अभाव आवश्यक है किसी के खलनायक बने रहने के लिए। कौरवों के पक्ष से महाभारत कही जाती तो क्या ऐसी ही होती जैसी ये वास्तव में है? शायद नहीं।

इंसान को बांटने का अमोघ सिद्धांत यही है जिसे ऊपर उठाना हो उसे आवाज़ दे दो और जिसे नीचे गिराना हो उसकी आवाज़ छीन लो। और यही तो हमारे इतिहास में भी होता रहा है। युगों-युगों से कुछ लोग इतिहास की परिधि के बाहर रखे जाते रहे हैं। ऐसे लोगों को असभ्य, क्रूर, अमानवीय दिखाना बड़ा सरल है। ताड़का, हिडिम्बा जैसी राक्षसी और अनेकानेक असुर जो हमारे ग्रंथो में चित्रित हैं, या तो हमारे नायको द्वारा मारे जाते है अथवा ‘सभ्य’ बना दिए जाते हैं। कभी देखिएगा हमारे साहित्य व चित्रपट में वन में रहने वाले लोगों को किस प्रकार चित्रित किया जाता है। कभी-कभी तो इनकी दुष्टता और इन समाजों के प्रति इनकी कमज़ोर व भ्रांतिपूर्ण समझ में क्रोध आता है। क्यूंकि इन्हें अपने ‘सभ्य’ समाज से बाहर दिखाना, अपने से अलग दिखाना बहुत सरल है। इसलिए वो लोग, जो अक्सर इतिहास के पन्नो में दर्ज नहीं होते उन्हें असभ्य बताकर और खलनायक बनाकर, और अधिक शोषित करने का मूलमंत्र है हमारे पास।

राक्षस ज़ोर-ज़ोर से अट्टाहास कर रहा है, सब खलनायक ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे हैं। वो हँस रहे हैं हमारे झूठे नायकत्व पर, हमारी सभ्यता के दम्ब पर, गैर ऐतिहासिकता, धर्मान्धता और हमारी मनोवैज्ञानिक हीनभावना पर। क्यूंकि ज़्यादातर खलनायक हमारे दिमाग में उपजते हैं, क्यूंकि हमें डर लगता है आईने में अपनी क्रूरता का प्रतिबिम्ब देखने में। इसलिए सदियों से कोई और ही खलनायक बनके हमारे नायकत्व के ढोंग का भार ढो रहा है। जो मेरे धर्म का नहीं, मेरी जाति, परिवार, व्यवहार का नहीं, मेरी संस्कृति का नहीं, मेरी अनुभूति का नहीं, वो खड़ा है कोने में खलनायक बनकर। खलनायक हँस रहे है मुंह फाड़ कर और हँसी के पत्र हम हैं…

 

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