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मुफ्त में सिगरेट पीने वालों, देखो मंटो क्या कह रहा है

इस वर्ष से फिल्मफेयर पत्रिका ने ‘फिल्मफेयर शॉर्ट फिल्म पुरस्कार’ की पहल की है। कम अवधि की बेहतरीन फिल्मों को पहचान का एक सकारात्मक मंच मिला है। पुरस्कारों के लिए चालीस से अधिक फिल्मों को नामांकित किया गया है। इन फिल्मों में ‘मुफ्तनोश’ देखी। मुफ्तनोश के केन्द्र में मुफ़्तनोशी का एक किस्सा है।

मंटो का लिखा मशहूर ‘मुफ़्तनोशों की तेरह किस्में’ लेख पहली मर्तबा 1953-54 के आसपास साया हुआ। मंटो का यह लेख उनके साहित्यिक संग्रह ‘तल्ख,तर्श और शीरी’ का अहम हिस्सा बना। युवा फिल्मकार मुहम्मद आसिम बिन क़मर की फिल्म ‘मुफ़्तनोश’ मंटो के इसी रचना पर आधारित है। मंटो ने मुफ़्त की चीजों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का ज़िक्र दूसरे जंग-ए-अज़ीम यानी विश्वयुध्द संदर्भ में किया था।

कमर आसिम ने फिल्म को मंटो का आत्मकथात्मक स्वरूप देकर रुचिकर बना दिया है। मूल रचना की भावना में बदलाव नहीं किया। प्रस्तुति का स्वरूप फिल्म की खासियत बनी है। फिल्मकार ने हालांकि मंटो की बताई मुफ़्तनोशो की किस्मों में बदलाव कर रचनात्मक दृष्टि का संकेत दिया है। यहां मंटो की बताई किस्मों में आप थोड़ा  बदलाव देखेंगे। पटकथा व दृश्य संयोजन पर मेहनत नज़र आती है। शेरों के आकर्षक इस्तेमाल ने कथन की तरफ़ रुझान बढ़ा दिया। चूंकि फ़िल्म में डायलाग्स नहीं थे, इसलिए नरेशन काफ़ी महत्वपूर्ण एंगल था जिसे आशीष पालीवाल ने बड़ी खूबसूरती से निभा दिया।

मंटो बताते हैं कि दूसरी जंग-ए-अज़ीम के वक्त रोज़मर्रा के इस्तेमाल कि चीज़ों को हुकूमत ने युरोप के लड़ाई वाले इलाकों की तरफ़ मोड़ दिया। जिसकी वजह से मुल्क में चीज़ों की कमी होने लगी। यहां तक कि सिगरेट जैसी मामूली चीज़ भी ब्लैक में ही मिलने लगी। इस तंगी की चपेट में सबसे ज्यादा शायर, फनकार और उनके समान संघर्षरत लेखक आ गए। यहां तो बगैर दो कश लगाए कलम से अल्फाज ही नहीं निकलते। ऐसे हालात में कुछ लोगों ने अपनी इज्ज़त ताक पे रख  ‘मुफ़्तनोशी’ का नया रास्ता तलाश लिया। अर्थात मुफ़्त की चीजों का इस्तेमाल। मुफ़्तनोशी हराम या हलाल है, इस बहस में ना ही पड़े तो अच्छा! आपने शायद इसलिए कहा होगा क्योंकि यह फितरतों में शामिल चीज़ सी थी।

मंटो फ़िर उन किरदारों से हमारा तार्रुफ कराते हैं, जिनसे कभी हमारी भी मुलाकात हुई होगी। हम अलीगढ़ के उसी ज़माने से मिले जिसमें यह सब चल रहा था। ज़माने के लिहाज़ से उमर आसिम ने फ़िल्म को ब्लेक एण्ड वाईट रखा है। संवाद नहीं रखे गए, बातचीत को हाव-भाव में खूबसूरती से ज़ाहिर किया गया है। यह खासियत फ़िल्म में दिलचस्पी बनाने के लिए काफ़ी है।

महोत्सवों में मिल रहे सम्मान के राज़ को जानना चाहा, यही समझ आया कि मंटो कि जिंदगी पर बनी यह फीचर फ़िल्म पहली है। सिगरेट की लत से जुड़ा मंटो का यह दिलचस्प व्यंग्य लोगों ने सिर्फ पढ़ा होगा, इस अंदाज में देखा नहीं।

क़मर बिन बताते हैं कि फ़िल्म को आज़ादी से पहले के समयकाल में ले जाना एक चुनौती थी। लेकिन विषय के प्रति उनका रुझान भी अपनी जगह था। उन्होंने समयकाल तो वही रखा लेकिन हालात को आज के आईने मे ढालना चाहा… पटकथा के डेस्क पर उन्हें एहसास हो चला था कि आज की परिस्थिति में इसे नहीं रखा जा सकता, सिगरेट को जिद करके या किसी भी चालाकी से मांगने की वो आदत लोगों में आज नहीं।

आज सिगरेट के मसले पर शौक से दूसरों को पिलाना एक चलन है। जबकि मंटो की कहानी में तंगी के दौर का ज़िक्र था, इसलिए फ़िल्म के हिसाब से वही ठीक लगा। यह तय हो जाने बाद कि ट्रीटमेंट मंटो के ज़माने का होगा, टीम ने कहानी पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ में यह पीरियड फ़िल्म जाड़े के दिनो में शूट की गयी। पोस्ट प्रोडक्शन के बाद इसे फ़िल्म महोत्सवों में भेजा जाने लगा, जहां ईनाम भी मिले।

चाय की दुकान पर मुफ़्तनोशी के मुन्तजिर..मंटो के पास माचिस नहीं , एक जनाब ने माचिस पेश की तो बदले में आपने भी सिगरेट पेश करी… सिगरेट जलाई और निकल लिए, मानो उसी इन्तज़ार में थे।

सिगरेट के बिना क़रार ना पाने वाले लत से बीमार मुफ़्तनोश। मंटो के टेबल पर पड़ी अधजली सिगरेट को बगल के कमरे के पड़ोसी ने किसी बहाने से उठा लिया.. मुफ़्तनोशी में डूब गया। मंटो के पुराने दोस्त विलायत से तालीम लेने बाद वापस हिंदुस्तान आए कि चले दोस्तों से मिला जाए। बात-बात मे विलायती ठाठ-बाट दोस्त का दिल मंटो की एक आने की  गोल्ड फ्लेक सिगरेट पर आ गया। वतन से कोसों दूर हो आए लेकिन मुफ़्तनोशी का मज़ा लेना नहीं छूटा। फ़िर जबरदस्ती की नातेदारी जोड़ने का फ़ायदा सिगरेट या चाय की लत वालों को खूब मालूम है। मंटो ने इंकलाबी किस्म के लोगों को भी करीबी नज़र से देखा, परखा तो यही समझ आया कि मुफ़्तनोश होना सिर्फ बुरी लत वालों की बात नहीं, यह शौक़ की बात थी। मसलन देखिए कि कला व फनकारी के तलबगार किस तरह मुफ़्तनोश हो सकते हैं। आपकी सिगरेट ब्रांड की वहां कोई महिला तारीफ करे तो इसका इहतराम करते हुए आपको उसे सिगरेट अॉफर करनी होगी।

आपने सोचा कि अकेले में भी सिगरेट का मजा लिया जाए। लेकिन मुफ़्तनोशो का खुदा उनसे शायद कोई बदला ले रहा था। इस डर से कोई इस बार भी सिगरेट मांग ना ले जाए, वहां से गुज़र रहे शख्स को देखकर आपने डब्बा फेंक दिया कि वो सिगरेट मांग ना ले। लेकिन हाय रे बदनसीबी बच्चे के खेल की दुहाई देकर मुफ़्तनोश ने डब्बा उठा लिया जिसमें अभी भी सिगरेट थी। मंटो मुफ़्तनोशों से तंग से हो चुके थे, झल्ला कर अपनी अधजली सिगरेट फेंक दी। लेकिन यकायक दिल में ख्याल आया कि छोड़ ही रहा हूं तो कम से कम उस अधजली का तो मजा ले ही लिया जाए, गोया कि आप पर भी मुफ़्तनोशी का असर थोड़ा आ चला। मुड़े उसे तरफ, देखा कि एक शख्स अधजली लावारिस सिगरेट की कश लगा रहा था। इस तरह मंटो की आखरी सिगरेट भी एक मुफ़्तनोश के हांथो हलाक हो गयी। जिस अंदाज मे फिल्म ने मंटो को समक्ष रखा वो एक चेतना गढ़ रही हो कि मानो उसी ज़माने को देख रहे हैं।

कहानी अलीगढ़ मे घट रही है, इसलिए पात्रों की वेषभूषा को उसी के हिसाब से रखना उचित था। मुख्य क़िरदार (मंटो ) जिसे युवा अभिनेता ओवेस सफ़दर ने दिलचस्पी से निभाया, फ़िल्म की एक बड़ी खासियत है। मुफ़्तनोश धूम्रपान का प्रचार नहीं बल्कि उसकी रोकथाम पर एक सकारात्मक पहल कही जाएगी। ज़माना मंटो का हो या आज़ का सिगरेट एक आम लत नज़र आती है। साहित्य में मंटो आज भी लोकप्रिय हैं। सिगरेट की लत पर लिखी व्यंग्य की धार देखनी हो, तो मुहम्मद आसिम क़मर की फ़िल्म देखना लाज़मी होगा। इसलिए भी कि फ़िल्म उन सभी बहादुर लोगों को समर्पित है, जिन्होंने हिम्मत व हौसले से धूम्रपान त्याग दिया।

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