पांच साल बाद विधायक-सांसद या ऊंट के आने की खबर से गांव बावरा हो जाता है। हर तरफ खेंचम-खेंचम मच जाती है। वैसे ऊंट कोई बकरी का बच्चा तो है नहीं जिसे, जिसने चाहा गोद में उठा लिया या फिर दौड़ कर भैंस की तरह ऊंट पर बैठ गया। ऊंट पर बैठने के लिए ऊंट का बैठना जरूरी है। खड़े हाथी, घोड़े और भैंस पर तो आप बैठ सकते हैं, लेकिन खड़े ऊंट पर नहीं। झम्मन ने सोचा, देखा जाए कि बावरे गांव में ऊंट क्यों आता है। बावरे गांव में चुनाव आते हैं, इसलिए ऊंट आता है और यह ऊंट पांचवें साल गांव में आता है। ऊंट के आने से गांव बावरा हो जाता है। गांव जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि में बंट जाता है। ऊंट पर बैठकर जैसी ऊबड़-खाबड़ घोषणाएं की जा सकेंगी। टी वी बहस में बैठे विशेषज्ञ मानते हैं कि ऊंट पर बैठकर ऊंट जैसी घोषणाओं से ऊंट को अपने तम्बू में बिठाया जा सकता है।
ऊंट प्रतीक है राजनीति का। राजनीति ऊंट की तरह होनी चाहिए। जो राजनीति में आता है उसे ऊंट राजनीति करना चाहिए, जो करता है वही राजनीति में सफलता की सीढ़ी चढ़ता है। कुछ तथ्य ऊंट के बारे में जो राजनीति से काफी मेल खाते हैं और सफलता का गुर सिखाते हैं।
ऊंट किस करवट बैठेगा, कोई नहीं जानता। अच्छा राजनीतिज्ञ वही है, जिसके बारे में आखिर तक पता नहीं चले कि वह किस पार्टी में जाएगा। जहां पद मिले वही उसकी पार्टी होती है। वह ऊंट की तरह मुंह ऊपर उठाते हुए चलता है। जुगाली करता है, ऊपर से देखता है, कहां किसमें ज़्यादा फायदा है। कुत्तों से हमेशा दूर रहता है। कुत्ते जानते हैं कि वह ऊंट पर बैठे व्यक्ति या राजनीतिज्ञ को काट नहीं सकते। ऊंट अक्सर वहीं दिखाई देते हैं, जहां मेला होता है। मेले में जमावड़ा होता है। चुनाव में ऊंट हर तरफ दिखाई देते हैं। चुनाव में फायदा होता है, मेले में भी फायदा होता है, ऊंट को देखने लोग आते हैं, उसे चारा खिलाते हैं, लेकिन कोई उसकी मजाक नहीं उड़ाता। किसी की मजाल नहीं उसे छेड़े। हाथी को छेड़ सकते हैं, लेकिन ऊंट को नहीं।
अब ऊंट हर जगह पाए जाते हैं। रेगिस्तान से लेकर दिल्ली तक। मध्यप्रदेश में भी पाए जाते हैं। मुंबई में भी जुहू चौपाटी पर देखे जा सकते हैं। असली ऊंटों को पहचानने के लिए आपके पास ऊंट दृष्टि होनी चाहिए। इसे राजनीति में पारखी नज़र कहते हैं, इससे जाना जाता है कि पार्टी का भविष्य कैसा। जिस पार्टी का भविष्य अच्छा होता है, ऊंट उस ओर दौड़ पड़ते हैं। पार्टी के छोटे तम्बू में घुसने की कोशिश करते हैं, तम्बू छोटा होता है, यह बात पार्टी जानती है, अगर वह ज्यादा बाहरी ऊंटों को शरण देगी तो उसका तम्बू उखड़ जाएगा। इसलिए मेले वाले ऊंटों को अपने तम्बू में ज्यादा नहीं घुसने देना चाहिए, नहीं तो आप भी ऊंट की तरह पानी की तलाश में घूमते नज़र आएंगे।
उत्तर प्रदेश में ऊंट घूम रहे हैं। तम्बू तलाश कर रहे हैं। छोटे और बड़े सभी प्रकार के तम्बू तने हैं। कुछ ऊंट तम्बू में घुसने की तो कुछ ऊंट तम्बू उखाड़ने में लगे हैं। मेला लगा है। ऊंट चारे की तलाश में हैं। ऊंट कतारों पर जनता बगुलासन पर बैठी है। कौन सी कतार अनुशासित है। कौन उनके माल (जीवन) को सुरक्षित डाकुओं से बचाकर मंजिल तक पहुंचाने में सक्षम है। जनता घास है। जंगली ऊंट भी तैयार हैं। चारागाह एक बार फिर से नए किसान की तलाश में है, जो उसे जोत सके, बो सके, उसे सहेज सके।
कोई साइकल पर सवार है, तो कोई हाथी पर, कोई फूल लिए, तो कोई हाथ जोड़े खड़ा है, तो कोई हंसिया ले के तैयार है। निरीह जनता बेबस है। जूतियां किसी की भी हों, उसे तो सहलानी हैं, सूप में रखकर जलसे में ले जानी हैं।
अभी तक यह तय नहीं कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, लेकिन यह तय है कि बैठेगा जरूर।