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कुछ फ़िल्में, जिन्हें मैं एक दर्शक के रूप में आज भी जीता हूं

फ़िल्में अक्सर हमारे ज़ेहन में मौजूद रहती हैं, ये कुछ इस तरह हमारे दिमाग में घर कर जाती हैं कि हम कभी किसी फिल्म के संवाद से अपना विद्रोह ज़ाहिर करते हैं तो कभी व्यंग। मसलन अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘अग्निपथ’ का एक संवाद “[envoke_twitter_link]पूरा नाम, विजय दीनानाथ चौहान, बाप का नाम दीनानाथ चौहान।[/envoke_twitter_link]” इस संवाद को, यकीनन हर किसी ने अपनी ज़िंदगी में एक ना एक बार ज़रुर बोला होगा। इसी तरह से कई ऐसी फ़िल्में हैं, जो जीवन के किसी पड़ाव में कहीं ना कहीं देखी थी और उनकी ताज़गी आज भी मेरे ज़हन में मौजूद है।

इनमें पहली है ‘मेरा गांव मेरा देश’, ये फिल्म 1971 में रिलीज़ हुई थी। 1988 के आस-पास घर पर वीसीआर पर इसे देखा था। उस समय मेरी उम्र 10 वर्ष की रही होगी, लेकिन मैं बस एकटक फिल्म की नायिका आशा पारेख को देखता रहा था। मुझे शिकायत थी कि फिल्म का हीरो धर्मेद्र की जगह मैं क्यों नहीं हूं और आज भी ये शिकायत जारी हैं।

इसे को जिस तरह फिल्माया गया, गांव का दृश्य, खेत, खलिहान, पहाड़, इत्यादि बहुत ख़ूबसूरत और बेहतरीन थे। कुछ पल के लिये ये मुझे मेरे गांव ले गये थे। इस फिल्म के गीत बहुत अच्छे थे, खास कर “कुछ कहता हैं ये सावन” और “मार दिया जाये, या छोड़ दिया जाये।” फिल्म के नायक धर्मेद्र और खलनायक विनोद खन्ना, के किरदार लाजवाब थे, इस फिल्म की अंत की लड़ाई जो इन दोनों किरदारों के बीच होती है, उसने मुझे भी हवा में हाथ चलाने को मजबूर कर दिया था। यह एक साफ सुथरी पारिवारिक फिल्म थी, जिसकी वजह से यह फिल्म मुझे आज भी याद है।

उसके बाद एक फिल्म के ज़रिये पहली बार मुझे डर की पहचान हुई। यह फिल्म थी ‘शिवा’, 1990 में रिलीज़ हुई इस फिल्म के निर्देशक थे राम गोपाल वर्मा और नायक थे नागार्जुन। भवानी के रूप में एक खलनायक भी था, जिसके बहुत ज़ोर लगाकर संवाद बोलने से भी उसकी आवाज नहीं निकल पाती थी। लेकिन, जिस तरह से उसे दिखाया गया था वह लाजवाब था और इसी ने मुझे डर का एहसास करवाया था।

कॉलेज में हो रही गुंडागर्दी के चलते नागार्जुन का किरदार शिवा, एक विद्रोह के नायक के रूप में उभर कर आता है। [envoke_twitter_link]फिल्म में संवाद ज़्यादा नहीं थे, लेकिन कैमरावर्क और निर्देशन लाजवाब था।[/envoke_twitter_link] मसलन पहली बार नागार्जुन का लड़ाई करने के लिये गिरी हुई साइकिल की चेन निकालना और इसी कारण  साइकिल का पैडल लगातार घूमता रहना। जब, फिल्म आगे बढ़ती है और एक सीन में कॉलेज के सामने वाले ढाबे पर एक खलनायक दूसरे के कान में शिवा का नाम कहता है, इसके बाद जो चमक खलनायक के चेहरे पर होती है उसका जवाब नहीं। नागार्जुन, अपनी भतीजी को बचाने के लिये साइकिल को जिस तरह भगाता है, सारे सीन लाजवाब थे। कैमरामैन सीन को कुछ इस तरह से रोकता था कि दर्शक के रूप में आप इसके भीतर ही चले जाएंगे। इस फिल्म को देखने के बाद नागार्जुन की तरह मैं भी विद्रोह की मुद्रा को अपना रहा था।

1992 में रिलीज़ हुई थी तमिल फिल्म ‘रोज़ा’ को हिन्दी में भी डब किया गया। ये मेरे देखी गयी फिल्मों में सबसे बेहतरीन फिल्म थी। [envoke_twitter_link]मणिरत्नम का निर्देशन, मधु और अरविंद का अभिनय किरदारों में जान डालता है[/envoke_twitter_link] और एक बेहतरीन कहानी शुरुआत से ही अपने साथ बांध कर रखती है। मसलन शुरुआत में रोज़ा का लड़कपन, ऋषिकुमार का रोज़ा की बड़ी बहन को नापसंद कर रोज़ा को पसंद करना, इसी की शिकायत रोज़ा को रहती है। गलतफ़हमियों का दूर होना, इसी दौरान ऋषिकुमार की कश्मीर में पोस्टिंग और रोज़ा की साथ में जाने की ज़िद करना और अपना सूटकेस जिस तरह वह रखती है, वो एक लाजवाब सीन था। फिर फिल्म कश्मीर में दिखाई जाती है, यहां एक मंदिर में नारियल फोड़ने से जिस तरह फौजी जवान भाग कर आ जाते हैं, यहां एक मंदिर के पास ऋषिकुमार का अपहरण होता है और इसे देख यहां पूजा कर रहा पंडित भागने के साथ साथ अपना सामान भी बांध रहा होता है। बस, यहीं से फिल्म एक मोड़ लेती हैं।

अब असली, फिल्म शुरू होती है, एक अख़बार में आतंकवादी ऋषिकुमार को छोड़ने के लिये, अपनी मांगे रखते हैं। रोजा इसे पढ़ नहीं सकती लेकिन पंडित के पढ़ने से जिस तरह एक कमज़ोर दिखाये गये पंडित के किरदार को गुस्सा आता है और रोजा सुन्न हो जाती है, बेहतरीन सीन था। आखिरी सीन में आतंकवादी पंकज कपूर ये कहकर पीछे हटता है कि वह अब हथियार को छोड़ देगा। लेकिन इस सीन की एक अजीब खूबी है, यहां आंतकवादी के हाथ में बंदूक है और वो इस तरह खड़ा है कि यहां से ऋषि कुमार को मारकर आसानी से फरार हो सकता है। एक बात और ये कि सिर्फ ऋषिकुमार को ही वो दिखाई देता है और सामने खड़ी रोज़ा और आर्मी को सिर्फ ऋषि कुमार दिखाई देता हैं, आतंकवादी नहीं। अंत सकुशल हुआ, इस फिल्म से मेरा जज़्बाती रिश्ता भी है।

इसके बाद किसी अन्य फिल्म ने इतना प्रभावित नहीं किया। इसका कारण मेरे व्यक्तिगत जीवन में समय और जज्बातों की कमी का होना भी है। आज की फिल्मों के नायक ख़ूबसूरत दिखने की होड़ में ज़्यादा लगे दिखते हैं ना कि एक किरदार के रूप में अपनी छवि को पेश करने की कोशिश में। अगर पिछले कुछ सालों की फिल्मों की बात करूं तो उनमे से एक ‘भाग मिल्खा भाग’ है, खासकर जब सोनल कपूर बाल्टी में पानी भर कर लेकर जाती है और जिस तरह यहां कैमरा इसे छलकता हुआ दिखाता हैं, बेहतरीन कैमरावर्क था। दूसरी हाल ही में रिलीज़ हुई ‘दंगल’, महावीर सिंह का एक आम सा किरदार, आम सा घर और आम सी ज़िंदगी। यहां जिस तरह छोटी गीता और बबीता के किरदारों को पेश किया गया है वह लाजवाब है।

अंत में[envoke_twitter_link] उम्मीद है कि आने वाली फ़िल्में भी एक आम इंसान की आम ज़िंदगी[/envoke_twitter_link] से जुड़ी होंगी और उनमे जज्बात इसी तरह पिरोये गए होंगे कि मुझे एक दर्शक के रूप में फिल्म रोज़ा की याद आ जाये।

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