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डिजिटल अर्थव्यवस्था भारत में कितनी सम्भव

साल 2016 ख़त्म हो चुका हैं और इसके साथ ही वो 50 दिन कि मोहलत जो प्रधनमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदि के दुष्टप्रभावो के ख़त्म होने के लिए माँगी थी लेकिन 50 दिन बाद भी स्तिथि अच्छी नहीं हैं। RBI अभी सिर्फ 6 लाख करोड़ ही मार्केट में ला सका हैं और इस नकदी कि कमी के कारण ही सभी तरह के व्य्व्साओ  में भारी गिरावट आयी हैं, मज़दूर वर्ग कि नौकरियाँ नहीं रही हैं तथा किसानों को मंडियों में सही दाम नहीं मिल रहे हैं।

अब इन सभी मसलों का हल सरकार ने डिजिटल अर्थव्यवस्था के रूप में पेश किया हैं। सरकार के सभी नुमाईंदे हर जगह नगदीरहीत (CASHLESS) अर्थव्यवस्था की बात कर रहे हैं। अब डिजिटल अर्थव्यवस्था राष्ट्रवाद का नया प्रतीक बन गयी हैं और इसका प्रयोग राष्ट्रवादी होने का सबूत।लेकिन इस नए तथाकथित राष्ट्रवादी बन्ने और न बन्ने की होड़ में इस सवाल पर बहुत कम बात हो रही कि क्या भारत में नकदीरहीत अर्थव्यवस्था सम्भव हैं?

भारत में केवल 27% लोग ही इंटरनेट तक पहुँच  रखते हैं और इनमें से भी 87% शहरो में रहते हैं और 17% ग्रामों में( स्रोत: FRONTLINE )। तो क्या देशहित के नाम पर ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देना तर्कसँगत हैं जिसमें 73% आबादी का हिस्सा ही नहीं हैं और खासकर उस तबके का जो गाँवों में रहती हैं। क्या ये देशहित हैं ?

अब बात उनकी कर लेते हैं जो इंटरनेट तक पहुँच रखते  हैं, कि उनके लिये ये व्यवस्था कितनी सुरक्षित हैं?
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले पाँच सालो में PSU (PUBLIC SECTOR) Banks से 30 हज़ार करोड़ रुपये ऑनलाइन फ्रॉड से लूटे गए हैं। पिछले 2 सालो में 2.25 लाख शिकायतें ऑनलाइन ट्रांसफर में गड़बड़ी कि दर्ज हो चुकी हैं लेकिन अब तक सरकार इसका पता लगाने में नाकाम रही हैं।

साईबर लॉ एक्स्पर्ट प्रशांत माली के अनुसार साईबर एपिलेँट ट्रिब्यूनल में पिछले चार साल से चेर्मेन ही नहीं हैं। यानी साईबर अपराधों में सुनवाई के लिए जज ही नहीं हैं। भारत में 70% ATM विन्डोज़ XP हैं। जिसकी सर्विस अप्रेल 2014 में माइक्रोसोफ्ट ने बंद कर दी थी और पिछले साल ही SBI BANK के 30 लाख से ज़्यादा CREDIT CARD हेक हो गए थे जिसके कारण कई लोगों को अपने पैसे गवाने पड़े थे।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत सरकार बैंक खातों को साईबर हमलो से बचाने के लिये एक साल में प्रति खाता 6 रुपए ख़र्च करती हैं। इन सभी कमियों के कारण भारत में साईबर अपराध 300% कि दर से बढ़ रहा हैं।
दो अमेरिकन विश्विद्यालय ( मेरिलेंड, वर्जीनीया टेक ) कि  रिपोर्ट के मुताबिक भारत उन पाँच देशों में आता हैं जहाँ विश्व में सबसे ज़्यादा साईबर हमले होते हैं।

अगर इंटरनेट नेटवर्क संरचना कि बात करी जाएँ तो भारत में एक इंटरनेट पेज लोड होने में अॉसत समय 5.5 SEC लगते हैं जबकि चीन में 2.5 SEC और बंग्लादेश में भी 4.5 SEC लगते हैं ( स्रोत: STATE OF INTERNET Q1 2016 REPORT, AKAMAI TECHNOLOGIES)। अभी DEC 2016 वरदाह चक्रवात/तूफ़ान के समय चेन्नई में 72 घंटे तक कॉल करने लायक भी नेटवर्क नहीं मिल पा रहे थे अगर वो शहर डिजिटल व्यवस्था पर आश्रित होता तो लोग खाने पीने का समान भी नहीं ले पाते।

डिजिटल अर्थव्यवस्था के पीछे ये तर्क भी दिया जा रहा हैं कि इस्से कालेधन पर लगाम लगेगी। तो इसके लिये उन कुछ देशों के कालेधन के आंकड़ों पर नज़र डाली जा सकती हैं जहाँ 50% या उस्से ज़्यादा अर्थव्यवस्था नगदीरहीत हैं। अमेरिका में 2008-16 के बीच 71 लाख करोड़ कालाधन पैदा हुआ हैं, यू.के में हर साल 11000 करोड़, फ्रान्स में 50-60 BELLION EURO हर साल।

ऊपर दिये गये सभी आंकड़े बताते हैं अभी हमारा देश इस  बदलाव के लिये तैयार नहीं हैं और जिन देशों में ये बदलाव हुए, क्या वहा कालाधन बनना बंद हुआ ?
तो फ़िर हमारे देश को नकदी ख़त्म करने कि क्या ज़रूरत हैं और अगर नगदी का भी आकड़ा देखा जाएँ तो भारत में GDP  कि 10.86% नकदी हैं जबकि जापान में 20.66%, अमेरिका में 7.9%, चीन में 9.47%, युरो ज़ोन में 10.63%।

ये आंकड़े जितने हमें हमारी सच्चाई से रूबरू कराते हैं उतना ही ये सवाल भी उठाते हैं कि डिजिटल और नकदीरहीत अर्थव्यवस्था कि बात करने वाले लोग इसके बहाने अपनी किस नाकामयाबी को छुपाने कि कोशिश कर रहे हैं। क्यों राष्ट्रवाद और देशहित का चोला पहनाकर हमें हर चीज़ पेश कि जा रही हैं। हमें ज़रूरत हैं कि हम उस चोले को उतारकर देखे कि ये चीज़ सही में देश के हित में हैं या कुछ विशेष लोगों के हित में।

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