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‘ये अदालत जिस नतीजे पर पहुंची है वो खतरनाक है’

“मृतक की गलती यह थी कि वह किसी दूसरे धर्म से आता है, मैं इस तथ्य को आरोपी के पक्ष में मानती हूं तथा आरोपी को धर्म के नाम पर उकसाया गया था,जबकि उसका कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं है।”

उपरोक्त पंक्तियां जस्टिस मृदुला भटकर ने मोहसिन शेख हत्याकांड के तीन आरोपियों को 6 पन्ने के बेल आर्डर में कहीं। मोहसिन एक निर्दोष युवा इंजीनियर था, जो कि पुणे के एक आईटी कंपनी में कार्यरत था हमेशा की तरह डिनर करके लौट रहा था। जज साहिबा के अनुसार उसकी गलती इतनी थी कि वह किसी और मजहब का था या फिर मुस्लिम होते हुए भी हरी कमीज़ पहनने और दाढ़ी रखने की जुर्रत की थी। शायद टोपी भी जिससे कि उसे हिंदू राष्ट्र सेना के एक कार्यक्रम से लौट रहे 3 शिकारियों ने अपने शिकार को पहचान लिया।

पूरा वाकया 2 जून 2012 का है। इसके जख्म अब ज्यादा दुखने लगे जब आरोपियों को इस आधार पर जमानत दी गई। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार हम अदालत की मंशा पर सवाल नहीं कर सकते फिर भी एक संतुलित समीक्षा करने का अधिकार सुरक्षित है। अभी हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया कि राजनीति में धर्म और जाति के नाजायज इस्तेमाल नहीं होना चाहिए तो मानो लगा की न्यायपालिका का लक्ष्य धर्म के नाम पर फिजूल का राजनीतिकरण तथा बेवजह उपयोग को मिटाने का है।

कुछ ही दिन बाद जब बॉम्बे हाईकोर्ट से ऐसा फैसला सुनने में आता है तो निश्चित ही जनमानस में निराशा पैदा करता है। हमें इस त को जथ्य को जल्द से जल्द समझना होगा कि मोहसिन की हत्या इसलिए हुई क्योंकि वह मुसलमान था या फिर वह मुसलमान था इसलिए उसकी हत्या की गई। हकीकत कुछ भी हो परिणाम हर सूरत में बुरा ही होगा।

हम किसी भी तरह बेल के आर्डर का विरोध नहीं करते क्योंकि हिंदुस्तान की जेलों में दो तिहाई लोग ऐसे हैं जिन पर अपराध सिद्ध नहीं हुए, फिर भी वह जेल में है क्योकि उन्हें बेल नहीं मिली।
बेल लोगों का अधिकार है और उन्हें यह मिलना ही चाहिए लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट का यह नतीजा सैद्धांतिक रुप से कितना सही है यह भी जांच लीजिए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार उत्तेजना अथवा उकसावे (Sudden and grave provocation)के मामलों में उत्तेजना हमेशा ही आकस्मिक (अचानक) तथा गंभीर होनी चाहिए। अभियोगी पक्ष का कहना है कि धार्मिक आधार पर हिंसा पिछले 3 दिनों से जारी थी जिस से यह सिद्ध होता है कि किसी भी तरह या उत्तेजना आकस्मिक नहीं थी |

[envoke_twitter_link]आरोपी हिंदू राष्ट्र के एक प्रतिरोध सभा से प्रेरित होकर आए थे[/envoke_twitter_link] जिसमें एक वर्ग विशेष का गुस्सा महज इसलिए था क्योंकि शिवाजी महाराज और बाला साहब की छवि बिगाड़ने की कोशिश की गई थी वह भी facebook पर। यह तथ्य सुनते ही प्रथमदृष्टया मामले की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।

माननीय सुप्रीम कोर्ट के उत्तेजना के कानून के संबंध में जारी किए गए दिशा निर्देशों में यह बात भी बहुत हद तक ताल्लुक रखती है कि कभी अभियुक्त उकसावे की तरफ खुद ना बल्कि उत्तेजक तत्व खुद उसकी तरफ आए। यह शर्त भी भी यहां एक सिरे से खारिज होती है क्योंकि आरोपी खुद मोहसिन के पास आए थे उसकी गलती तो बस इतनी थी कि वो मुसलमान था।

[envoke_twitter_link]IPC की धारा 153(A) के अनुसार धर्म के नाम पर उकसाना खुद अपने आप में जुर्म है[/envoke_twitter_link] जबकि जज साहिबा ने उपरोक्त आधार पर बेल दी है।

ये सभी तो मूलभूत, और तकनीकी तथ्य हैं जो कि मृतक के साथ इंसाफ करने में सक्षम नहीं है वहीं दूसरी ओर अभियोजन पक्ष का यह भी कहना है कि आरोपियों का कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं है या कहना भी सरासर गलत है क्योंकि उनके पास इससे संबंधित भी साक्ष्य है।
फिर से दोहराना उचित होगा कि हम किसी भी तरह से अदालत की मंशा पर सवाल नहीं उठा रहे बल्कि हम तो बस सवाल उठा रहे हैं।
हम सवाल उठा रहे हैं कि एक विशेष धर्म के लोगों पर हमले में जमानत जायज़ है तो, 90% विकलांग जी• एन • साईं बाबा को क्यों नहीं ?? कबीर कला मंच के लोगों को क्यों नहीं महज इसलिए क्योंकि वह गाना गाकर नक्सलवाद को बढ़ाते हैं या फिर उन दो जेल में बंद दो-तिहाई भारतीयों का क्या ???

हम सवाल उठा रहे हैं कि ऐसे आदेश समाज में क्या संदेश देंगे इस तरह से कानून की तकनीकियों तथा बारीकियों का दुरुपयोग कर आप अभियुक्त को जमानत तो दे देंगे लेकिन वह समाज में जो संदेश प्रदान करेंगे वह वाकई भयावह है।
देश के राजनीतिज्ञों से उलट आपसे बहुत उम्मीदें हैं। आपके कंधो पर भार भी बहुत है अपनी गरिमा बरकरार रखिए जिससे भरोसा बना रहे।

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