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यूपी के ‘दंगल’ में नेताजी पर भारी अखिलेश का दांव

देश ने दंगल देखी और यूपी ने शायद एक साथ दो-दो दंगल, वैसे तो सपा की ये सियासी उठापटक सारे देश के सामने है लेकिन यूपी की सियासत में इसका रंग कुछ ज्यादा ही गहरा चढ़ा है। कभी यादव-मुस्लिम तो कभी मुस्लिम-दलित-सवर्ण के समीकरण में उलझी प्रदेश की सियासत में पिता-पुत्र के बीच चल रहे मतभेद ने एक और गांठ लगा दी है। सोशल मीडिया ने तो इस समय ऐसी हवा बना दी है कि किसी सेलेब्रिटी की एक चूं (tweet) पर ऐसे चुल्ल होती है कि बस लगता दिमाग के सारे घोड़े एक साथ अस्तबल से छूट गए हो।

वैसे तक़रीबन तीन महीनें से चल रहा यूपी का दंगल, आमिर के ‘दंगल’ कुछ ख़ास जुदा नहीं है। बारीकी से गौर करें तो दोनों की कहानी एक ही पटरी पर दौड़ती नज़र आएगी। पहलवान महावीर सिंह फोगट ने जिंदगी में गांव के अखाड़े से लेकर राष्ट्रीय खेलों तक सफ़र पूरा किया वहीं मुलायम सिंह यादव ने सैफई के एक छोटे से गांव से होकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ मज़बूत की। महावीर पहलवान ने अपनी पहलवानी की विरासत छोरे की कमी के कारण छोरी के हाथ में दी। यहां मुलायम सिंह यादव ने 2012 में प्रदेश की पतंग की डोर युवा मुख्यमंत्री की अंजुरी में लपेट दी। मौके की नज़ाकत और सियासत में संभावनाए तलाशते हुए आज अखिलेश यादव ऐसी जगह पहुंच गए हैं कि उन्होंने ने एक मुश्त सियासत की बिसात पलट दी। जिस पतंग की डोर मुलायम सिंह लड़के के हाथ में महज़ परिस्थितियों के चलते पकड़ा के गए थे। आज सिर्फ पांच वर्षों में राजनीति के दांव-पेंच के अनुभवों के बीच वह मांझा इतना पैना हो गया है कि खुद पहलवान मुलायम सिंह यादव के लम्बे राजनीति के सफ़र को काटने पर तुला है।

फिल्म ‘दंगल’ में भी तो गीता फोगट की स्थिति शायद कुछ ऐसी ही थी जैसे अभी अखिलेश की। कोच के फुर्त दांव के साथ वो अपने बूढ़े बाप को पटकनी तो दे देती है लेकिन अफ़सोस असल मैच में वो कला इतनी कारगर नहीं साबित होती। फ़िलहाल वर्तमान परिदृश्य से तो लगता है अखिलेश अपने भरोसे पर पिता को सियासी पटकनी तो दे चुके हैं, लेकिन क्या यहीं दांव चुनाव में विपक्ष को परास्त करने में सफल होगा? यह तो समय ही बताएगा।

वैसे राजनीति को फिल्म से जोड़ना बेवकूफी ही है। बावजूद इसके एक साधारण सा आदमी कैसे मुख्यमंत्री बन सकते है जैसे तथ्यों को दिल्ली में दो-दो बार बनी केजरीवाल सरकार पहली ही ठुकरा चुकी है। इसलिए संभावनाए कहीं भी तलाशी जा सकती है। इसका कोई छोर नहीं।तक़रीबन तीन दशक तक राजनीति धूप में झुलसी और अब बूढी हो चुकी उन जड़ों को उखाड़ कर अखिलेश यादव विकास के ढाई साल लम्बी तिरपाल आसानी से बिछा तो सकते है। लेकिन बिना मज़बूत नींव के वो कितनी दिन टिकी रहेगी यह बताना थोड़ा मुश्किल है। कभी साइकिल पर बैठ, दूर धूप गांव-गांव में लोगों से संपर्क साध कर संगठन को मज़बूत करने वाले मुलायम आज खुद संगठन से दूर हैं।

वर्षों से गुण्डा एवं अपराध युक्त राजनीति के दंश से प्रभावित समाजवादी पार्टी आज एक नयी उर्जा नयी शक्ति में विकास की एक नयी परिभाषा के साथ उभर के सामने आ रही है। जिसके स्वागत के लिए 65% आबादी वाली नयी युवा पीढ़ी थाली सजाए खड़ी है, क्योंकि यह वही पीढ़ी है जिसे कुछ भी पुराना पसंद नहीं। हर स्टीरियोटाइप्स को तोड़ते हुए ये आगे बढ़ना चाहती है। दौड़ना चाहती है, भागना चाहती है, गिरना चाहती है… बस रुकना नहीं चाहती! वॉलपेपर, गेम्स, ऐप, फ्रीचार्ज, पेटीएम, फ्लिप्कार्ट, कैशबैक हर तरफ नज़रे दौड़ा कर ये सबसे फायदेमंद और नए के साथ सौदा करने पर विश्वास रखते है। सो यादव जी! इनसे जरा संभल के क्योंकि ये भी बदलाव के साथ रहते हैं, जिसके साथ अभी आप हो लेकिन शायद कल न हो पर ये कल भी ‘बदलाव’ चाहेंगे कैसा भी बदलाव बस बदलाव क्योंकि इनकी नज़र में ‘बदलाव ही बेहतर’ है। कम से कम वर्तमान परिदृश्य से तो बेहतर है क्योंकि वहां एक आशा होती है ‘कुछ बेहतर होने की’ भले ही हो न, लेकिन आशा तो है ही।

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