सोशल मीडिया के युग में सच्चाई और अफ़वाह में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है। या तो हम तथ्यों का पता नहीं लगाना चाहते या सूचना को अपने उद्देश्यों के हिसाब से मोड़ लेते हैं। अभी एक बीएसएफ के जवान ने ख़राब खाने को लेकर वीडियो साझा किया। जिसको कई लाख लोगों द्वारा देखा और साझा किया गया। चूंकि हमारी कुछ ग्रंथियां इतनी संवेदनशील हैं जो तुरन्त ही जाग उठती है, उसमें से एक देशभक्ति भी है! चारों ओर से इतना हंगामा बरपा कि हमने जानने की कोशिश भी नहीं की, कि सही पक्ष क्या है? सीमा पर जवानों के खाने की व्यवस्था क्या है, इसके लिए सरकार क्या मदद करती है? और इसकी गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार कौन है? जवानों के मेस की व्यवस्था कौन देखता है एवं दुर्गम क्षेत्र और एक सामान्य क्षेत्र में खाने की व्यवस्था में क्या कोई अंतर है?
इस तरह के तमाम प्रश्न हैं, जिनकी पड़ताल हमें करनी चाहिए थी! ये तो इस वीडियो का एक पक्ष था। साथ ही उस देशभक्त सैनिक का यह तर्क कि उसने तमाम मेडल जीते हैं, क्या उसे अनुशासनहीन होने की अनुमति दे देता है? या कि उसका यह तर्क उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा में आता है। प्रश्न बहुत से हैं लेकिन हमारी कमज़ोरी यह है कि हम आसान सा रास्ता चुन लेते है जो हमें पूर्वनिर्धारित समाधान की ओर ही ले जाता है! मेरा भी मानना है कि भ्रष्टाचार लगभग हर जगह व्याप्त है।लेकिन हमारा रास्ता क्या है उससे लड़ने का, हमे ध्यान रखना होगा। साधन की पवित्रता भी कोई चीज़ होती है!
शुरुआत हम उस वीडियो से ही करते हैं कि उसे जली हुई रोटियां दी गई और रोटी भी पर्याप्त नहीं थी। इसका मतलब यह है कि जो बनाने वाला है उसे या तो रोटी बनानी नहीं आती या तो जानबूझकर, या किसी दबाव में उसने यह किया। तो प्रश्न यह है कि इसमें गलती किस स्तर के कर्मचारी की है? पहली बात तो यह कि वहां की जो मेस व्यवस्था है उसमें जो भी सैनिक नियुक्त किया जाता है वह सैनिकों के सहमति से ही चुना जाता है। गणना परेड के दौरान ही महीने की शुरुआत में उनका चुनाव कर लिया जाता है और कोई भी सैनिक इस पद पर लगातार नहीं रह सकता। इसके ऊपर इसकी मॉनिटरिंग के लिए क्रमशः एएसआई और अन्य अधिकारी होते हैं जो कि बिलों की जांच करते रहते हैं।
यह लगातार देखा जाता है कि कहीं क्रय करने में कोई गड़बड़ी तो नहीं की जा रही या पूर्व में ख़रीदे गए मूल्य से कहीं ज़्यादा अंतर तो नहीं आ रहा। अमूमन यहां जो गड़बड़ी होने की संभावना होती है, वह यह कि इसमें सभी स्तर के कर्मचारी थोड़ा बहुत लिप्त हो या कि ऊपर के अधिकारी द्वारा अपना कुछ हिस्सा निश्चित कर दिया जाए और बाकि बचे रुपए से ही शेष खरीदारी की जाए। इन दोनों स्थितियों में भी जली हुई और केवल एक रोटी मिले इसकी सम्भावना ना के बराबर ही है। क्योंकि मेस के खाने की मॉनिटरिंग सीओ और उसके ऊपर के अधिकारी द्वारा कभी भी की जा सकती है। कौन सा अधिकारी इसकी जांच करेगा यह सुनिश्चित न होने की वज़ह से यह नहीं कहा जा सकता कि सभी स्तर के अधिकारी इसमें संलिप्त हैं। दूसरी बात कोई भी इसमें दो पैसे की बेईमानी करेगा तो वह जली हुई एक रोटी देकर नहीं बल्कि जो भी सामान ख़रीदा जा रहा है, उसकी क्वालिटी से समझौता करके।
अब दूसरी बात कि खाने-पीने की यह सुविधा हर जगह एक जैसी नहीं है। [envoke_twitter_link]उच्च अक्षांशीय और दुर्गम जगहों पर सामान्य जगहों की अपेक्षा खाने की सुविधा बेहतर नहीं है।[/envoke_twitter_link] कई जगह ऐसी हैं, जहां पीने का पानी भी मनमाफिक उपलब्ध नहीं, कही तो कम साफ़ पानी को ही उबालकर पीना पड़ता है। बहुत ही कठिन परिस्थितियों में सेना या बीएसएफ के जवान इस देश की रक्षा कर रहे होते हैं और हम सब उनके ऋणी भी हैं। लेकिन यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि उस सेवा की प्रकृति ही यही है। हां ध्यान यह रखना है कि उसके बदले सरकार उन्हें क्या सुविधा दे रही है।
इस बात को यहां समझना होगा कि बहुत से ऐसे बर्फीले दुर्गम क्षेत्र हैं जहां केवल मई-जून के महीने में ही राशन पहुंचाने की सुविधा होती है, क्योंकि इस समय ही बर्फ पिघलती है। बाकी के महीनों में यहां बारिश या बर्फ़बारी से रास्ता सुगम नहीं रहता और आर्द्रता ज़्यादा होने की वजह से राशन के ख़राब होने की सम्भावना ज़्यादा रहती है। इन सब परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही सरकार वहां तैनात लोगों को अलग से भत्ते देती है। जो कि समतल स्थानों या सामान्य जगह में तैनात जवान के वेतन की तुलना में न्यूनतम पन्द्रह से बीस हज़ार रुपये ज़्यादा होती है। यह भत्ता इन्ही सब विषम परिस्थितियों से जूझने के लिए एक उत्प्रेरक की तरह होते हैं। हालांकि इसकी तुलना मुद्रा से नहीं की जा सकती! लेकिन व्यवहारिकता में मनुष्य ने इससे बेहतर कोई उत्प्रेरक की खोज नहीं की है। यहां एक और बात बताना अनिवार्य हो जाता है कि यह भत्ता खाने के भत्ते से अलग है, जो कि सामान्य जवान को लगभग तीन हज़ार तक मिलता है।
अब गड़बड़ी जो यहां होती भी है अधिकांशतः उन डिब्बाबंद खाने से है जो कि सेना में बाहर से सप्लाई होता है। कहने का मतलब यह है कि जिस तरह की गड़बड़ी की बात उस जवान द्वारा उठाई गयी है, वह ऐसी जगहों पर नज़र आ सकती है, लेकिन कम से कम सेना व बीएसएफ में खाने के स्तर पर ऐसी गड़बड़ी अपवाद ही है या लापरवाही जनित हो सकती है। हां मेस में जिस तरह की बेईमानी होती है उससे इंकार नहीं किया जा सकता।
दूसरी बात यह भी मालूम करना चाहिए कि क्या उस जवान ने इसकी शिकायत अपने से ऊपर के अधिकारियों से की, अब यहां यह तर्क भी लोग देंगे की ऊपर भी तो सब चोर ही बैठे हुए हैं! तो यह बेतुका ही होगा कि ऊपर बैठे सभी भ्रष्ट ही हैं, कम से कम जली हुई रोटियों भर के लिए तो नहीं ही हैं। वैसे भी आर्म्स डील, भर्ती, प्रोक्योरमेंट, सप्लाई जैसे तमाम ऐसे क्षेत्र हैं जहां लोगो द्वारा समय-समय पर अधिकारियों की संदिग्धता पर प्रश्न उठाया जाता रहा है। तात्पर्य यह है कि ऐसे ही जवानों द्वारा अपनी समस्याओं को मीडिया में उछाल देना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? क्या उनकी अपनी सेवा के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?
हम यह तो मानते ही होंगे कि सैनिक की कार्य प्रकृति लगभग अन्य सेवाओं से भिन्न ही है। यहां सामूहिकता, एकता, संगठन ज़्यादा महत्वपूर्ण है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात कि उस जवान का तर्क है कि अगर इतना ही नालायक हूं तो मुझे चौदह मैडल कैसे मिले, यहां यह जान लेना भी ज़रुरी है कि बीएसएफ ने उस पर शराब पीने और अन्य गंभीर आरोप भी लगाए हैं। पहली बात तो यह कि मेडल पाने के लिए जरुरी नहीं कि हमेशा अनुशासन में ही कोई रहें। यह मेडल उसे स्कूल के उस बच्चे की तरह नहीं मिला जो वर्ष भर बिना अनुपस्थित रहते हुए क्लास अटेंड किया हो। हो सकता है कि कोई विद्यार्थी ऐसा भी हो जो लगातार स्कूल भी न आता हो, लड़ाई-झगड़े भी करता हो और अंत में वह प्रथम स्थान भी प्राप्त करे! और ऐसा होता भी है।
इस बात में जो भी सच्चाई हो वह अब जांच के बाद सामने आ ही जाएगी। लेकिन एक बात जो कि महत्वपूर्ण है वह यह कि सेना और अन्य पैरामिलेट्री फ़ोर्स में काम करने वाले की समस्या बहुत हैं लेकिन हम और हमारी मीडिया केवल ऐसी ही खबरों को क्यों आधार बनाती हैं? वर्ष 2004 के बाद सेना छोड़कर अन्य सभी फ़ोर्स के लोगों की पेंशन समाप्त कर दी गयी, यहां तक कि अगर कोई एक बार विधायक-सांसद भी बन जाए तो वह पेंशन पाने का हक़दार हो जाता है, इस पर कितने मीडिया और सामान्य बुद्धिजीवियों या सिविल सोसाइटी के लोगो ने प्रश्न उठाए? वहां के कर्मचारियों की प्रमोशन में सुधार हो इस पर कितनी बहस की गयी?
[envoke_twitter_link]सोशल मीडिया के उभार ने हमे उत्तेजना में जीने का आदी बना दिया है।[/envoke_twitter_link] आश्चर्य तो तब होता है जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कुछ पुलिसकर्मियों को महिलाओं के यौन उत्पीड़न का दोषी माना, जो कि एक बेहद संवेदनशील मामला है, तब यही सब लोग क्यों सोते रहते हैं? एक हद दर्जे के पूर्वाग्रह से ये समाज ग्रसित होता जा रहा है। एक वरिष्ठ पत्रकार हैं उन्होंने अपने एक पोस्ट में इस घटना के सम्बन्ध में जो लिखा वह बड़ा ही दुःखद था, उन्होंने उस जवान को उसकी जाति से जोड़ा और यह सिद्ध करना चाहा कि यही तबका है जो देश के लिए अपनी आहूति देते आया है और इसी ने इसकी कीमत भी चुकाई है। इनका कहना था कि तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों का कार्य ही सौदा करना रहा है। उनका कहना था कि 70 वर्ष पूर्व का भारतीय इतिहास कायरता व भगोड़ेपन का इतिहास रहा है। एक घटना घटती है और ऐसे न जाने कितने लोग है जो धर्म, जाति, राजनीतिक विचारधारा की आड़ में अपनी स्वार्थसिद्धि करने में जुट जाते हैं। इतना सब कुछ लिखने के पीछे मकसद उस सैनिक को गलत साबित करना या की सेना को सही साबित करना कतई नहीं है। [envoke_twitter_link]यह सब एक प्रयास मात्र है पोस्ट ट्रुथ के समय में तर्क को ज़िंदा रखने का![/envoke_twitter_link]