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चमकीले घोषणापत्र से कितना सध पाएगा भाजपा का मकसद

शनिवार को भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव के लिए लोक-लुभावन दृष्टि से इतना फिट और परफेक्ट घोषणापत्र जारी किया है कि उसके प्रतिद्वंद्वी दल परेशान हो सकते हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती ने शाम को ही पत्रकार वार्ता में इस घोषणापत्र में किए गए आकर्षक वायदों को लेकर जितनी हो सकती थी भाजपा की उतनी लानत-मलानत की। उनकी जरूरत से ज्यादा भड़ास की व्याख्या कुछ लोगों के लिए यह भी हो सकती है कि इतने चातुर्यपूर्ण घोषणापत्र ने उन्हें डरा दिया है।

उन्हें लगने लगा है कि अभी तक जो बीज उन्होंने बोये थे उससे सुनहरी पैदावार का लाभ उन्हें मिलेगा लेकिन आखिरी समय में भाजपा ने जो मास्टरस्ट्रोक खेला उससे उनकी मेहनत कहीं बर्बाद न हो जाए। उधर सबसे पहले घोषणापत्र जारी करने की बाजी मारकर इतरा रहे सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी भाजपा के घोषणापत्र के बाद कहीं न कहीं विचलित जरूर हैं। अपने मनोबल पर असर की वजह से ही उन्होंने शनिवार को रात होते-होते रायबरेली और अमेठी की सभी 10 विधानसभा सीटें कांग्रेस के हवाले करने में गनीमत मान ली पर भाजपा के लिए मुश्किल यह है कि उसे वर्तमान माहौल में दुश्मनों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि अपने ही भस्मासुर उसके किले को लाक्षागृह की तरह जला डालने में पर्याप्त हैं।

प्रत्याशियों की घोषणा के बाद सभी दलों में असंतोष के गुबार का चरम विद्रोह की सीमा तक फूटना हर चुनाव में एक अनिवार्य रिवाज की तरह की परिघटना बन गई है। भाजपा भले ही पार्टी विद डिफरेंस का जुमला गढ़कर आत्ममुग्ध रही हो लेकिन इस रोग से उसकी काया भी कभी मुक्त नहीं रह सकी है। बावजूद इसके मोदी युग में टिकट वितरण के बाद बगावत का यह विस्फोट अप्रत्याशित माना जा रहा है। मोदी के प्रति भक्ति का आलम भाजपा में न भूतो न भविष्यते की तरह हो गया है। अटल बिहारी वाजपेई के काल में भी पार्टी के लोगों की ऐसी आस्था नेतृत्व के प्रति सम्भव नहीं थी जो मोदी को नसीब हुई है। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव का मौका आने तक यह सम्मोहन तार-तार होते दिखने की त्रासदी स्तब्ध करने वाली है।

लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा को यूपी में जो अप्रत्याशित सीटें मिलीं वह किसी चमत्कार से कम नहीं थीं, इसीलिए 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव के नजदीक आते ही पिछले कुछ महीनों से दूसरी पार्टियों से भाजपा में आमद कराने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की संख्या में अप्रत्याशित इजाफा हुआ। इनमें से कई नेता ऐसे हैं जो भाजपा के गर्दिश के दिनों में डूबते जहाज से कूद जाने में ही गनीमत मान दूसरी पार्टियों में जा घुसे थे। उन पार्टियों में सत्ता सुख उठाने के बाद भाजपा में बहार फिर लौटते ही यह सोचकर वे वापस आये थे कि भाजपा के स्वर्णिम काल को भुनाने का अवसर उनके लिए नैसर्गिक अधिकार की तरह है क्योंकि भाजपा उनकी पुश्तैनी जायदाद है। लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि इस बीच गंगा में कितना पानी बह चुका है।

1989 तक अनाम सी जिंदगी गुजार रहीं तमाम कौमें इसके बाद की राजनैतिक हलचलों के चलते कई क्षेत्रों में अपने संख्याबल से परिचित होकर महत्वाकांक्षी हो गई थीं। जिनकी दावेदारी को नकारना न तो नैतिक और न ही व्यवहारिक तौर पर सम्भव रह गया है इसलिए जो निर्वाचन क्षेत्र कल तक कुछ कौमों की जागीर माने जाते थे उनमें अतीत की अनाम कौमों को वरीयता देना आज लाजिमी बन चुका है पर भाजपाई इस सच से आंख नहीं मिलाना चाहते। उनकी यह मनोग्रंथि ही यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए समस्या बनकर उभर रही है। इन लोगों द्वारा भाजपा पर बैकवर्डवादी रुख अपनाने का आरोप लगाया जा रहा है।

कांग्रेस के लम्बे शासन की गंदगी हटाने में जुटे पीएम मोदी को मौका देने के लिए कुछ भी सहने को तैयार होने का दावा करने वाले लोग अब कालीदास बनने पर उतारू हो गये हैं। जिससे वे जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट डालने में उन्हें परहेज नहीं रह गया है। इसी प्रवृत्ति के चलते भाजपा नेतृत्व के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। भाजपा को अपनी बपौती मानने वाले वर्गों द्वारा किये जाने वाले ऐसे प्रदर्शन के निशाने पर वे सीटें हैं जहां ओबीसी को टिकट देने का साहस पार्टी ने संबंधित क्षेत्र की जातिगत संरचना के चलते दिखाया है। भाजपाइयों के इस रवैये ने हिंदुत्व की भी कांच खोलकर रख दी है।

बिहार विधानसभा चुनाव के समय खुद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण विरोधी बयान देकर पार्टी का गुड़ गोबर किया था। यूपी विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर वही काम आरएसएस के राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने जयपुर लिटलेचर फेस्टिवल में अपने भाषण में कर डाला जबकि लिटलेचर फेस्टिवल में आरक्षण जैसे राजनैतिक मुद्दे पर बोलने की तुक ही नहीं थी। दरअसल यह देश सामाजिक समूहों के साहचर्य के मामले में विविधताओं का देश है, जिसकी स्थिरता और स्वतंत्रता की गारंटी तभी सम्भव है जब इसकी व्यवस्था सर्वसमावेशी हो। इसी के अभाव के चलते देश विशाल आबादी के बावजूद कमजोरी का शिकार होकर एक हजार वर्ष तक विदेशी गुलामी का शासन झेलने को मजबूर रहा। फिर भी इससे सबक नहीं लिया गया है। योग्यता की आड़ में आरक्षण का विरोध व्यवस्था को सर्वसमावेशी तौर पर ढालने के प्रयासों का प्रतिरोध है।

दरअसल योग्यता एक भ्रामक शब्द है। मुगलों में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली और सफल शासक अकबर माना जाता है जबकि वह 13 वर्ष की उम्र में बादशाह बन गया था और शैक्षणिक पैमाने की दृष्टि से देखें तो योग्यता की दृष्टि से वह दरिद्र ही लगेगा। आश्चर्य यह है कि आरक्षण की प्रक्रिया में जो योग्य लोग किसी अवसर से वंचित होते हैं वे बहुत ही कम इस व्यवस्था के विरोध में आगे आते देखे गए हैं। ज्यादातर उन लोगों का आरक्षण के खिलाफ रोना है जो वास्तव में किसी भी प्रवेश परीक्षा में भी उत्तीर्ण होने का आत्मविश्वास नहीं रखते।

इस बीच भारत में बहुत से लोग अमेरिका के नवपदासीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस कदम से बहुत उत्साहित हैं जो उन्होंने मुस्लिम अप्रवासियों के अपने देश में आ बसने की प्रक्रिया को कठिन बनाने के लिए उठाए हैं। फ्रांस में भी कार्टून पत्रिका के दफ्तर पर आतंकवादी हमले और सम्पादक सहित तमाम स्टाफ की हत्या के बाद इसी तरह के कदम उठाने की घोषणा की गई थी। दरअसल फ्रांस में ज्यादातर मुसलमान दक्षिण अफ्रीका से आकर बसे हैं लेकिन जहां तक भारत के मुसलमानों का सवाल है अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों की स्थितियों से उनका कोई मिलान नहीं है। यहां मुसलमान के विरोध करने का मतलब है मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी आदि-आदि बाहरी आक्रमणकारियों का विरोध। लेकिन वर्तमान में भारत में जो मुसलमान हैं उनमें 90 फीसदी इसी देश के हजारों साल पहले से स्थायी बाशिंदे हैं जिनके आचार-विचार के तरीकों में दुनिया के बाहरी देशों के मुसलमानों से इतना जबर्दस्त फर्क है कि उनसे तुलना में जो आब्जर्वेशन किया जाएगा उसमें भारतीय मुसलमान इस्लाम के हिंदूकरण के नमूने नजर आयेंगे। इनको खदेड़ने या दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रखने की कल्पना न तो व्यवहारिक तौर पर उचित है और न ही नैतिक और वैधानिक रूप से।

भाजपा में ओबीसी के न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व के खिलाफ हो रही बगावत और अभी तक घोषित यूपी विधानसभा के प्रत्याशियों की लिस्ट में एक भी मुसलमान का नाम न होना उसकी वर्गसत्ता के सोच और पूर्वाग्रह का अवश्यंभावी परिणाम है जो कि देश के लिए बेहद घातक है। फिर हम आते हैं शनिवार को भाजपा द्वारा यूपी विधानसभा चुनाव के लिए जारी किए गए घोषणापत्र के अवसर पर, जिसमें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बहुत आहिस्ते से राम मंदिर के मुद्दे को भी छुआ। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी संवैधानिक तरीके से राम मंदिर के निर्माण के लिए प्रदेश में सत्ता आने के बाद प्रयत्नशील रहेगी।

मोदी काल में भाजपा अटल जी के दौर से भी आगे जाकर राजनीति को विकास केंद्रित बनाने और विवादित मुद्दों से पिंड छुड़ाने की ओर अग्रसर है, जो सही ट्रैक है। यह भाजपा के रूढ़ नेतृत्व में सम्यक समझदारी के प्रस्फुरण जैसी परिघटना है। यह मानते हुए भाजपा नेतृत्व से अपेक्षा की जा सकती है कि इसी के अनुरूप सर्वसमावेशी व्यवस्था के प्रति उसके समर्थक वर्ग, काडर में जो पूर्वाग्रह हैं उनके निराकरण के लिए ठोस कार्ययोजना के तहत उसके द्वारा प्रयास किया जाएगा, जो कि इस देश के जड़ताग्रस्त समाज को प्रगतिगामी बनाने की अपरिहार्य शर्त है।

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