बीना एक छोटा सा क़स्बा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके का एक पिछड़ा क्षेत्र जो विकास के नाम पर आज भी बेरोज़गार और गरीब है। मुझे आज ये शहर और भी बेचारा नज़र आता है जब मैं देखता हूं कि किस तरह यहां के लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके सपने चकनाचूर हो गए हैं। बीना के 78% लोग किसानी करते हैं, जिनमें उनके पास ज़मीन का रकबा इतना कम है कि वो साथ में मज़दूरी भी करते हैं। बावजूद इसके किसी समय यहां देश का सबसे बेहतरीन गेहूं पैदा होता था।
1990 के दशक में भूमंडलीकरण के साथ देश में नए उद्योगों के विस्तार की रफ़्तार तेज़ हुई और बीना की किस्मत बदलने की शुरुआत भी! उस वक़्त के विधायक ने जो एक युवा किसान ही थे, बीना में भारत-ओमान रिफ़ाइनरीस का प्लांट लगवाने को अड़ गए। उस वक़्त के कलेक्टर श्री बिजय किशोर रे बताते हैं, “ये एक कोशिश थी बुंदेलखंड के लोगों को सौगात देने की, हमने किसानों से बात की और वो ख़ुशी-ख़ुशी मान गए और उन्होंने अपनी ज़मीन आसानी से सरकार को दे दी। तब मुझे भी विश्वास था कि भारत-ओमान रिफाइनरीज लोगो को रोज़गार ज़रूर देगी और उस वक़्त के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह खुद इस बात पर आश्वस्त थे। हम सबको लग रहा था कि सबकुछ बदलेगा और बुंदेलखंड के विकास के लिए हमे एक रास्ता मिलेगा।”
उस वक़्त के विधायक श्री प्रभुसिंह ठाकुर बताते हैं, “मैं खुद एक गांव के पिछड़े इलाके से हूं, पढ़ने के लिए उस वक़्त हम सागर यूनिवर्सिटी का रुख करते थे। मुझे लगा कि रिफाइनरी प्रोजेक्ट से यहां विकास होगा, रोज़गार मिलेगा और बीना को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलेगी पर आज मैं खुद को ठगा हुआ महसूस करता हूं।”
भारत-ओमान रिफाइनरीज 2006 में शुरू हुई और 2011 में विधिवत स्थापित हो गयी पर जब रोज़गार की बात आई तो उन किसानों को नौकरी देने की बात से रिफाइनरी मुकर गयी जबकि वादे के इतर बाहरी लोगों को रखा गया। जो लोग किसानों -मज़दूरों के रहनुमा बनकर आंदोलन कर रहे थे रिफाइनरी ने उन्हें या तो कोई ठेका दे दिया या कोई नौकरी। आज अधिकांश लोग जो रिफाइनरी में नौकरी कर रहे हैं, किसी नेता या अधिकारी के रिश्तेदार हैं।
भारत-ओमान रिफाइनरी ने बीना का तापमान तो गर्म किया ही साथ ही जिस तादाद में पेड़ काटे गए उस तादाद में लगाए नहीं गए। रिफाइनरी की उड़ती राख से आसपास के किसानों की ज़मीनें ख़राब हो गयी तो गांव के गांव बीमार भी हो गए। अस्पताल के नाम पर यहां सिर्फ एक दवाखाना सरीखा अस्पताल है, जो किसी भी तरह विश्वशनीय नहीं बन पाया है। बीना में पानी की कमी है पर स्थानीय नदियों में भारत-ओमान रिफाइनरीज ने खुद का एक स्टॉप डैम बना के रखा है, जब लोग प्यासे होते हैं तब रिफाइनरीज का स्विमिंग पूल भरा होता है। भारत-ओमान रिफाइनरीज का परिसर किसी स्वर्ग से कम नहीं है, हर सुविधा है पर वहीं आस-पास के गांवों में आज भी पिछड़ेपन का अंधेरा पसरा है। जिन किसानों की ज़मीन गयी वो मज़दूर हो गए।
चलते-चलते पास के किरोद गांव के एक पढ़े-लिखे लड़के से बात हुई तो उसने बताया, “भैया ये भारत-ओमान रिफाइनरीज में दलितों के लिए कोई रिज़र्वेशन नहीं है, यहां दलित सिर्फ सफाई करते हैं। बाकि बड़ी जात के लोग साहबी करते हैं इसलिए हम तो इसको भारत-ओमान रिफाइनरीज नहीं बल्कि ‘ब्राह्मण ओनली रिफाइनरीज लिमिटेड’ कहते हैं।” और वो हँस पड़ा पर उसकी हँसी में एक सवाल था, जो मखौल उड़ा रहा था विकास के सूट-बूट वाली साहबी व्यवस्था का।
आज न तो इनकी सुनने वाली सरकार है, न अधिकारी। लोग मरते भी हैं तो कोई खबर नहीं… सब बेखबर हैं जैसे रिफाइनरी की धुंध में सब छुप गया हो। ये विकास का कोहरा है जहां लोग कुचले जाते हैं, झोपड़िया मिटाई जाती हैं, सपने दिखाए जाते हैं पर फिर भी इस सन्नाटे में कोई विरोध नहीं। बस एक संस्कृति है बेरोज़गारी की, अन्याय की, मरने की और बिना गरीबों के मिटे विकास कैसे होगा?
यह फोटो प्रतीकात्मक है।
फोटो आभार: गेटी इमेजेस