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किसान, बजट और हम

बजट आने वाला है। इस बार कुछ बातें काफी अलग हैं। इस बार केंद्रीय बजट फरवरी के अंत की जगह महीने की पहली तारीख को संसद में पेश होगा, रेल बजट अलग से न पेश होकर आम बजट में ही उससे संबंधित प्रावधान किए जाएंगे। ये बातें अभूतपूर्व हैं। लेकिन मेरा मुद्दा यह नहीं, मेरा मुद्दा है- किसान, बजट और हम!

कई लोगों की तरह मेरे मन में भी सवाल उठते हैं कि हर साल पेश होने वाले सरकार के सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ बजट में, किसान आखिरकार होता कहा हैं? वे किसान जिन्होंने भारत को कृषि आयातक देश से निर्यातक बना दिया, वे किसान जो लगभग हर साल उत्पादन की रिकॉर्ड ऊचाइयों पर देश को ले जाते हैं।

अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली कृषि क्या अब हमारी प्राथमिकता नहीं रही?

शायद इसलिए कि कुल श्रम बल (वर्क फोर्स) का 51 फीसदी कृषि में होने के बावजूद जीडीपी में इसका योगदान 14-15 फीसदी ही है। सरल शब्दों में कहें तो देश के कुल उत्पादन (मूल्य वृद्धि की मुताबिक) के मामले में कृषि का योगदान इतना ही है।

नहीं, मेरा खेती या किसी किसान से कोई निजी रिश्ता नहीं है। असल में जो बात मैं उठा रहा हूं, वो मेरे छोटे से करियर के एक्सपीरिएंस और समझ पर आधारित है। करीब 4 साल से मैं न्यूज़ इंडस्ट्री में काम कर रहा हूं और इस दौरान किसानों को लेकर हमारी सरकारों, मीडिया और समाज का जो रवैया मैंने देखा है, वो निराश करने वाला है। 

सरकार हर साल किसानों के लिए बजट में कुछ प्रावधानों की ‘रस्म-अदायगी’ करती है। हां ये बात अलग है कि इन प्रावधानों में से कितनो कि भनक तक किसानों को लग पाती है। उसका कुछ अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसानों की अात्महत्याएं थमने का नाम नहीं ले रही है। एक बात देखने लायक है कि बजट में कृषि ऋण की राशि हर साल नियमित तौर पर लगभग 1 लाख करोड़ रुपए बढ़ा दी जाती है। हो सकता है इस साल 10 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाए, जबकि आंकड़े बताते हैं कि छोटे किसानों (एक हेक्टेयर से कम ज़मीन वाले किसान जो करीबन 70 फीसदी हैं) तक उसका फायदा नहीं पहुंचता। 

केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई फसल बीमा योजना, एक अच्छी पहल है, लेकिन क्या केवल वो काफी है? जानकार मानते हैं कि खेती की लागत को कम करना और किसान को उचित दाम सुनिश्चित करना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने किसानों को मुआवज़े के एक मामले पर सुनवाई करते हुए हैरानी जताई कि [envoke_twitter_link]फसल बर्बाद होने की स्थिति में किसानों को कर्ज़ में डूबने से बचाने के लिए कोई भी राष्ट्रीय नीति नहीं है। [/envoke_twitter_link]

कुछ साल पहले खुद सरकार के सर्वे में ये बात सामने आई थी कि अगर मौका मिले तो लगभग आधे (50%) किसान खेती छोड़ना चाहेंगे। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, किसानों की नई पीढ़ी खेती को पेशे के तौर पर अपनाना नहीं चाहती।

इन सब बातों के बावजूद क्या किसानों के मुद्दों को आवाज़ा मिली? क्या उन्हें मुख्यधारा (मेनस्ट्रीम) की मीडिया में उतनी जगह मिली, जितनी मिलनी चाहिए? बजट को लेकर टीवी चैनलों पर, ‘पिंक पेपर्स’ में खूब चर्चा होती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा क्षेत्र, किसको किसको कितना पैसा सरकार ने आवंटित किया, किस क्षेत्र में निवेश से चीज़े बेहतर होंगी, कैसे होंगी, और क्या कमी रह गई, क्या किया जा सकता था, ये सब डिस्कस होता है।

कृषि को फिर हाशिये पर छोड़ दिया जाता है। इतने लाख करोड़, हज़ार करोड़ दे दिए गए, बस! स्थिति कैसे बदलेगी, कैसे हालात सुधरेंगे, किसानों की आत्महत्याएं कैसे रुकेंगीं, इस पर कोई चर्चा नहीं। और अगर होती है तो बहुत सीमित। हां, ऐसी चीज़ें तब ज़रूर कवर होती हैं जोब कोई मुद्दा गर्म हो और उसे अच्छे से भुनाया जा सके। लेकिन बदलते मौसम के साथ ये मुद्दे फिर कहीं दब जाते हैं।

मुझे लगता है,[envoke_twitter_link] एक समाज के तौर पर भी हमने किसानों को निराश किया है।[/envoke_twitter_link] किसान, खेती से जुड़े मुद्दे, उनकी आत्महत्या से जुड़ी खबरें ‘आमतौर पर’ लोगों को परेशान नहीं करतीं। लोग ये सब जानना पढ़ना नहीं चाहते क्योंकि शायद हमें इन सब बातों से फर्क ही नहीं पड़ता।

तो फिर कैसे उम्मीद कर सकते हैं हम कि देश की 125 से 130 करोड़ आबादी की खाद्य सुरक्षा वही किसान सुरक्षित करें, जिन्हें हम हाशिये पर छोड़ देते हैं? हम  बहुत गर्व से खुद को विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बताते हैं लेकिन कभी सोचा कि जो पूरे देश का ‘अन्नादाता’ हैं उन तक इस आर्थिक विकास का लाभ पहुंच पा रहा है? क्यों हमारे विकास का मॉडल हमें उन किसानों को जगह देने से रोकता है?  

इस देश में जय जवान-जय किसान को नारा तो दिया गया था (जिसमें बाद में जय विज्ञान भी जोड़ा गया) लेकिन उस भावना को शायद हम कायम नहीं रख पाए। जवानों की जय तो फिर भी देश के लोग गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस आदि मौकों पर बोल लेते हैं और उनकी बात कर लेते हैं, लेकिन किसानों के लिए तो कई ऐसा दिन भी नहीं है।

कुछ आंकड़े-

2012-13 के दौरान हुए एनएसएसओ के 70वें राउंड के सर्वे के मुताबिक, देश के लगभग 52 फीसदी किसान परिवार कर्ज़ में डूबे थे। 

2011 की जनगणना आंकड़ों के मुताबिक, [envoke_twitter_link]हर रोज़ लगभग ढाई हज़ार किसान खेती छोड़ रहे हैं।[/envoke_twitter_link]

नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, 2015 में आत्महत्या करने वाले 8,007 किसानों में से 72% से अधिक वे थे जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन थी।

इनमें एक चौथाई वे किसान थे जिनके पास 2-10 हेक्टेयर ज़मीनें थीं। आत्महत्या करने वाले 2% से भी कम किसान 10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाले थे। एक अध्ययन के मुताबिक, करीब 43 फीसदी खेतीहर मज़दूरों के पास बैंक अकाउंट नहीं हैं और केवल 20% किसानों के पास बीमा है। चाहता तो कुछ और आंकड़ें साझा करता लेकिन शायद उनकी ज़रूरत नहीं।

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