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‘अमदावाद मा फेमस’: पतंगबाज़ी की दुनिया में आपका ‘हार्दिक’ स्वागत है

2016 की तमाम तरह की लिस्ट जारी हो चुकी है और आप उसे लाइक-वाइक, ट्वीट-फ्वीट भी कर चुके होंगे। क्या पढ़ें, क्या नहीं पढ़ें। कौन सा नोट चलाएं, कौन-सा जमा कर आएं, कितना निकालें, कितना बचाएं वगैरह-वगैरह। अब 2017 की बारी है। आने वाले दिसंबर का हिसाब जनवरी से ही क्यूं न शुरू किया जाए। [envoke_twitter_link]‘यूथ की आवाज़’ पर इस साल की बोहनी एक ऐसी फिल्म से करना चाहता हूं जो किसी सिनेमा हॉल में रिलीज़ नहीं हुई।[/envoke_twitter_link] हार्दिक मेहता की ‘अहमदाबाद मा फेमस’ साल 2015 की नॉन-फीचर फिल्म का नेशनल अवार्ड जीत चुकी है। अब नेटफ्लिक्स जैसी वेब मीडिया पर ख़ूब देखी और पसंद की जा रही है।

मकर संक्रांति (14 जनवरी के आसपास का वक्त) के दौरान देश भर में पतंगबाज़ी ख़ूब होती है। नवाबों के शहर लखनऊ में तो हर गली-मोहल्ले में पतंगबाज़ी की प्रतियोगिता होती है। [envoke_twitter_link]दिल्ली शहर में पतंगबाज़ी लोग दिल से करते हैं और इस शौक से कई की जान तक ले लेते हैं।[/envoke_twitter_link] ज़मीन के ऊपर चलती मेट्रो ट्रेनों के लिए आसमान में बिछी बिजली की तारों में पतंगें फंस जाएं तो पूरी दिल्ली की रफ्तार रुक जाती है। ये सब किस्से हम अखबारों, टीवी चैनलों में देखते-सुनते आए हैं।

मगर [envoke_twitter_link]हार्दिक गुजरात के हैं तो अहमदाबाद ही उनका दिल्ली है और लखनऊ भी[/envoke_twitter_link]। मैंने अहमदाबाद को कम देखा-सुना है, इसीलिए फिल्म ज़रूरी लगी। उत्तरायण (इसी मकर संक्रांति के आसपास शुरु होने वाली एक हिंदू तारीख) एक तरह से देवताओं के लंबे दिन की शुरुआत है जो आम आदमी के घर में टंगे ‘ठाकुर प्रसाद’ के कैलेंडर के छह महीने तक चलता है। इसी त्योहार पर अहमदाबाद में पतंगबाज़ी कैसे-कैसे आसमानों से गुज़रती है, हार्दिक अपनी नज़र से हमें इस फिल्म में दिखाते हैं।

11 साल का मुस्लिम लड़का ज़ायद और उसके दोस्त पतंगबाज़ी के साथ इस हिंदू ‘त्योहार’ को किस तरह स्कूल बंक करके, सबकी डांट खाकर भी मज़े से मनाता है, फिल्म इसी के सहारे आगे बढ़ती है। ये वो नटखट बच्चे हैं, जिनके मां-बाप ने पतंगों की तरह इन्हें ढील दी हुई है। ये हिंदुस्तान की पहचान है जहां त्योहारों के नाम हटा दें तो रौनक़ एक जैसी लगती है। ख़ूबसूरत कैमरे और संगीत के बीच अलग-अलग उम्र और मिज़ाज के लोगों के लिए पतंगबाज़ी करना शौक से बढ़कर क्या-क्या हो सकता है, फिल्म इसकी ख़ूबसूरत मिसाल है। एडिटिंग इतनी ख़ूबसूरत है कि पतंग के लिए एक शॉट में आदमी उछल रहे हैं और अगले शॉट में बंदर।

कई बार देख कर लगता है कि फिल्म में जो किरदार चुने गए हैं, उन्हें बोलने को डायलॉग लिख कर दिए गए थे या रटाए गए थे। या इस डॉक्यूमेंट्री की कहानी भी बड़े फिल्मी अंदाज़ पर ख़त्म होती है। जो मुश्ताक ज़ायद और उसकी पतंगबाज़ टोली से ख़ूब चिढ़ता है, ख़ुद भी पतंग उड़ाने के बहाने ढूंढ लेता है। बूढ़ी अम्मा से लेकर पुलिसवाले तक सब मौक़ा देखकर पतंग उड़ाते हैं।  तो अगर आपने अहमदाबाद की दस्तूर ख़ान मस्जिद नहीं देखी, बैंक बिल्डिंग के बारे में नहीं सुना तो इस पतंगबाज़ी के सीज़न ये फिल्म ज़रूर देखें। वहां की शामें आसमान में सितारों की जगह पतंगों से भरी मिलती हैं।

[envoke_twitter_link]‘यूथ की आवाज़’ पर ऐसी पॉज़िटिव कहानियों का सिलसिला पूरी जनवरी जारी रहेगा। इंतज़ार कीजिए..[/envoke_twitter_link]

चलते-चलते हार्दिक मेहता का फिल्मी करियर रोड,मौसम, क्वीन’, ‘लुटेरा जैसी फिल्मों में बतौर असिस्टेंट काम करते हुए यहां तक पहुंचा है कि वो ख़ुद फिल्में बना पा रहे हैं। आधे घंटे की डॉक्यूमेंट्री ही सही। अफसोस कि हिंदुस्तानी सिनेमा में आधे घंटे की फिल्में रिलीज़ करने वाला कोई बहादुर सिनेमा हॉल अब तक नहीं बना।

 

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