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अरसे बाद किसी मुस्लिम प्रोटैग्निस्ट को दिखाता है रईस

गुजरात के शराब माफिया अब्दुल लतीफ़ से प्रेरित फिल्म ‘रईस’ हाल के दिनों की सबसे प्रतीक्षित फ़िल्मों में से एक है। शाहरूख खान की पॉपुलर छवि ने इसे और भी रुचिकर बना दिया है। अरसे बाद अपनी ही एक बॉक्स आफिस अपील को ज़िंदा करने के दिशा में प्रयास है यह। गुजरात की पृष्ठभूमि पर आधारित अपनी किस्म की फिल्म बन उभरी है रईस। जिस प्रदेश में शराब के लिए कोई जगह नहीं रही, वहीं से अब्दुल लतीफ़ निकल कर आया। दरअसल पाबंदी प्रतिरोध की ज़मीन तैयार करती है। मामला व्यापार का हो तो रईस किस्म के लोग निकल आते हैं। पाबंदी को झुठलाकर बाज़ार कायम रहता है। रईस को मां ने बताया था कि कोई धंधा छोटा नहीं होता,और धंधे से बड़ा धर्म नहीं होता…इसी उसूल को लेकर वो अपने धंधे का बेताज बादशाह बन जाता है।

राजनीति,अपराध एवं व्यापार सहयोगी होते हुए भी एक दूसरे के खून के प्यासे हो सकते हैं। यहां दोस्ती व दुश्मनी हमेशा के लिए नहीं बनती। राहुल ढोलकिया ने इस बात को रेखांकित करते हुए कहानी गढ़ी है। व्यवस्था के खिलाफ़ खड़ा रईस का धंधा बुरा होकर भी कहीं न कहीं भला है। रईस मौहल्ले का रॉबिनहुड था, उसके धंधे से उसके लोगों का कोई नुकसान नहीं हो रहा था। सत्तर-अस्सी के दशक की फ़िल्मों में अक्सर खलनायक जहरीली शराब का ठेका चलाया करता था, रईस में उस ग्रे एरिया से बचा गया है। उसे उसूलों वाला व्यापारी दिखाया गया है, उसूलों के लिए जान लेने वाला और देने वाला था रईस।

फिल्म की कथा भले ही रूटीन समझ आए लेकिन किरदार ‘रईस’ सामान्य नहीं है। एक अरसे बाद सिनेमा के परदे पर कोई मुस्लिम प्रोटैग्निस्ट इस अंदाज़ में नज़र आया है, एक मियां भाई किस्म की इमेज आजकल केन्द्र में नहीं है। मुस्लिम किरदार खलनायक तो होते हैं लेकिन नायक छवि में नहीं, रईस उस कमी को पूरा करने की कोशिश सी नज़र आती है। हालिया फिल्म ‘सुल्तान ‘में नायक की मुस्लिम छवि पर उतना जोर नहीं दिया गया, जो कहानी के हिसाब से सराहनीय भी था। शाहरूख की मुस्लिम इमेज किरदार व कहानी के अनुरूप है। मुहल्ला बचाते-बचाते अंजाने में शहर जला देने पर रईस का अपने को पुलिस एनकाउंटर के हवाले कर देना…हक़ था।

रईस के किरदार की परतें उसे रोचक एंगल देती हैं लेकिन सिर्फ़ शाहरूख ही फिल्म की खासियत नहीं हैं, नवाज़ ने उन्हें अच्छी टक्कर दी है। कुछ एक डायलॉग्स में वो आगे निकल आए हैं, दोस्त सादिक़ की भूमिका (जीशान अय्यूब) को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दोस्ती की परत और गहरी होती तो मज़ा आ जाता। किरदारों का मजबूत व गहरा होना अंततः कहानी के लिए ही लाभकार होता है। मूसा के किरदार में नरेंद्र झा निराश नहीं करते, जितनी बार भी वो स्क्रीन पर नज़र आए चरित्र के अनुरूप थे। लव इंट्रेस्ट आशिया (महिरा खान) फिल्म को लव एंगल देने तक सीमित रखी गई हैं। आशिया को कहानी में लाने में लेट कर दिया गया है, नतीजा उनके हिस्से ज़्यादा नहीं आया।

एक्शन पैक्ड फिल्म को पोएटिक एंड देने में रईस हालांकि कामयाब है… धंधा करता हूं, धर्म का धंधा नहीं करता… बेगुनाहों को मार कर जन्नत नसीब नहीं होती… मेरे खून के अफ़सोस के साथ जी लोगे मजूमदार साहेब… ये डायलॉग्स देर तक असर करते हैं। फिल्म की ताकत फिल्म ख़त्म हो जाने बाद समझ आती है, घर लौट कर समझ आती है। हालांकि इन सब के बावजूद नजरअंदाज़ नहीं होता कि पूर्ण शराबबंदी वाले राज्य गुजरात में मुसलमानों ने अवैध शराब का व्यापार किया। फिल्म में दिखाया गया कि गुजरात के शराब व्यापार के पीछे मुसलमानो का हाथ था। इस इल्जामपोशी से बचा जा सकता था? एक तरह से मुस्लिम छवि को नुकसान भी पहुंचा है इस फिल्म से।

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