सीएम अखिलेश यादव चुनावी दौर में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद न छोड़ने की ज़िद पर क्यों अड़े हुए हैं जबकि उनको इसके कारण कपूत जैसे खिताब से नवाजने की कोशिशें हो रही हैं। क्या अखिलेश की महत्वाकांक्षी हविश इतनी बढ चुकी है कि वे अपने पिता को नीचा दिखाने की सीमा तक बढ़ गये हैं जबकि पिता ने उन्हें राजनीति में पूरी तरह जमाने के लिए अपने को पीछा करके सीएम का ताज उनके सिर पर रख दिया था।
दूसरी ओर अखिलेश यादव का बार-बार यह कहना भी गौरतलब है कि सिर्फ तीन महीने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष रहने दिया जाये। इसके बाद वे नेता जी को न केवल उनका पद वापस कर देंगे बल्कि नेता जी चाहेंगे तो सारे पद छोड़कर एक किनारे हो जायेंगे । एक ओर पिता पुत्र के बीच कसम कौल की बाते, दूसरी ओर पार्टी और चुनाव चिन्ह पर वर्चस्व के लिए निर्वाचन आयोग का दरवाज़ा खटखटाने के मामले में तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल आखिर माजरा क्या है।
जानकार बताते हैं कि अखिलेश का बागी नजर आ रहा स्टैण्ड इसलिए है कि उनके पास इस बात की जानकारी है कि अगर भावुकता में आकर चुनाव के पहले अध्यक्ष का पद उन्होने पिता को वापस किया तो उनकी विमाता को मोहरा बनायें अमर सिंह और शिवपाल उनके जरिये नेता जी को मजबूर कर देंगे। और उनके साथ टिकट वितरण में वही व्यवहार होगा जिसके होने के कारण राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाकर उन्हें नेता जी से पार्टी के सारे अधिकार अपने हाथ में लेने की तैयारी करनी पड़ी थी। जिससे कानूनी तराजू पर उनका पलड़ा भारी हुआ है। राष्ट्रीय सम्मेलन के फैसले से पीछे होने पर उनके पास कोई तीर बचा नहीं रह पायेगा ।
अखिलेश को यह भी मालूम हैं कि नेता जी के ज़रिये उन पर प्रोफेसर राम गोपाल यादव का साथ छोड़ने का दवाब इसलिए बनाया जा रहा है कि वे निर्णायक तौर पर कमजोर पड़ जायें क्योकि पारिवारिक षड़यंत्र से पार पाने में राम गोपाल उनके लिए सबसे बड़े तारणहार साबित हुए हैं।
अखिलेश केवल अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की सीमा तक पिता के दवाब का प्रतिकार कर रहे हैं लेकिन पिता की इज्जत बचाये रखने का भी उन्हें पूरा ख्याल है। राम गोपाल शुक्रवार को दिल्ली में आज ही चुनाव आयोग के सामने का राग जरूर अलापते रहें लेकिन गये-बये नही। इसमे अखिलेश का ही इशारा था क्येंकि अखिलेश इस बात से पूरी तरह मुतमईन हैं कि आखिर में नेता जी उनकी शर्तो पर झुक जाएंगे ताकि कोई समझौता हो सके।