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“नागरिकों को मिले राईट टू डिजिटल एक्सेस का संवैधानिक अधिकार”

नोटबंदी के फैसले और इसके कार्यान्वयन के तौर तरीकों को लेकर राजनीतिक घमासान तेज होता चला जा रहा है। जहाँ एक ओर केंद्र सरकार काले धन, आतंकवाद के मुद्दे से ‘गोइंग डिजिटल’ के मंत्र पर पहुँच चुकी है और कैशलेस इकॉनमी का हवा-हवाई गुब्बारा हर जगह छाया हुआ है। एक ओर जहाँ 8 तारीख आधी रात से पेट्रोल पम्प वालों ने कार्ड पेमेंट पर रोक लगाने की घोषणा की थी वहीं दूसरी तरफ आम जनता आज भी बैंकों एवं एटीएम के लाइन में अपने मेहनत की कमाई से अपने जीवनयापन को सुलभ बनाने हेतु लगातार संघर्ष कर रही है। इस समय समूचा देश विपक्ष की ओर मुंह उठाये एक मजबूत आवाज़ की उम्मीद लिए बैठा है।

ठीक इस समय में नीति आयोग द्वारा पटना में रविवार 8 जनवरी को आयोजित डिजी-धन मेला में बिहार के शिक्षा एवं सूचना मंत्री, अशोक चौधरी ने नोटबंदी से त्रस्त आम गरीबों की आवाज़ बनकर इस लड़ाई में एक नयी जान फूंक दी एवं  नोटबंदी, कैशलेस इकॉनमी से इतर कई अन्य ज़रूरी मुद्दों को भी आवाज़ दी।

अशोक चौधरी ने नोटबंदी के फैसले के कार्यान्वयन की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि, “लोगों की गर्दन पकड़कर ई-पेमेंट को बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर सरकार आम नागरिकों के लिए डिजिटल लेन-देन अनिवार्य कर रही है तो सबसे पहले इस देश के तमाम महानगरों, नगरों, कस्बों एवं गांवों में बेहतर डिजिटल कनेक्टिविटी की व्यवस्था की जाए। हमारे देश में बैंकों एवं एटीएम मशीनों कि संख्या पहले से ही कम है और बैंकों में ‘लिंक फेल हो गया’ सुनना आम हो गया है। अतः मेरी सरकार से मांग है कि इस देश के सभी आम नागरिकों को right to digital access का संवैधानिक अधिकार मिले। इसके साथ ही साथ ई-डेटा के प्राइवेसी के लिए भी अलग से बिल पारित किया जाए।”

गौरबतल है कि कैशलेस इकॉनमी वाले देश अमेरिका, स्वीडन, दक्षिण कोरिया में औसत इन्टरनेट स्पीड क्रमशः 12.69 एमबीपीएस, 19.12 एमबीपीएस और 26.7 एमबीपीएस है तो वहीं भारत में औसत इन्टरनेट स्पीड वैश्विक इन्टरनेट स्पीड से भी कम लगभग 3 एमबीपीएस है।

ऐसे समय में अशोक चौधरी द्वारा right to digital access की मांग करना निःसंदेह तार्किक और अत्यंत ही साहसिक प्रतीत होता है.

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