सभी जगह की तरह पंजाब में भी एक मतदाता के रुख के चलते राजनीति का झुकाव कब किस ओर हो जाए, इसका अंदाज़ा लगाना काफी मुश्किल होता है। पर यकीनन कुछ स्थानीय मुद्दे ही होते हैं जो राजनीति की दिशा तय करते हैं और इनकी आवाज भी स्थानीय लोग ही बनते हैं। मसलन 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में, लोकसभा सीट संगरूर में शिरोमणि अकाली दल के कद्दावर उम्मीदवार सुखदेव सिंह ढींडसा की ओर से कई बॉलीवुड की जानी-मानी हस्तियों ने भी रोड शो किये थे लेकिन परिणाम बिलकुल उलट रहे। पंजाब में बॉलीवुड सितारों या सेलेब्रेटीस द्वारा किये गये रोड शो की तुलना में पंजाबी गायक कलाकार की वोट के सिलसिले में की गयी अपील कहीं ज़्यादा गंभीर होती है। अगर इस नज़र से देखें तो नवजोत सिंह सिद्धू के कांग्रेस की सदस्यता अपनाने से, लगता नहीं कि इसका कोई भी असर पंजाब के चुनाव प्रचार पर या चुनावी परिणाम पर होगा।
सिद्धू का राजनीतिक जीवन देखें, तो ये एक से अधिक बार अमृतसर से सांसद रहे हैं। भले ही इनकी चुनावी पार्टी भाजपा थी, लेकिन इनकी जीत में शिरोमणि अकाली दल को अहम योगदान रहा है। 2009 के लोकसभा चुनावों में मतगणना के समय लग रहा था कि ये कांग्रेस उम्मीदवार ओम प्रकाश सोनी के सामने नहीं टिकेंगे, लेकिन जैसे ही मजीठिया हल्के के वोटों की गिनती शुरू हुई, बाजी पलट गयी। सिद्धू ने भी कई बार सार्वजनिक रूप से अपनी इस जीत के लिये शिरोमणि अकाली दल का अभिनंदन भी किया था।
लेकिन इसके बाद सिद्धू के रिश्ते बादल परिवार से ज़्यादा मधुर नहीं रहे। कई तरह के क़यास लगाये जाते रहे हैं लेकिन किसी ठोस कारण का आज तक पता नहीं चल सका। इसी के चलते सिद्धू को 2014 में श्री अमृतसर की सीट से भी हाथ धोना पड़ा और अब वह भाजपा को अलविदा कह कर कांग्रेस में आ गये हैं। राजनीतिक कारण कुछ भी रहे हों, लेकिन इनकी पहचान आज भी एक लोकनेता की नहीं बन सकी है। ऐसा कोई काम भी नज़र नहीं आता है जो इन्होंने सांसद रहते हुये पंजाब की भलाई के लिये किया हो। हो सकता, है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में श्री सिद्धू के रूप में एक चुनावी प्रचारक कांग्रेस को मिल जाये, लेकिन ये चुनावी परिणाम अपने दम पर बदल सकते हैं होता दिखाई नहीं देता।
सिद्धू का कांग्रेस में शामिल होने का प्रभाव कांग्रेस की प्रदेश इकाई पर भी पड़ सकता है। आज राजनीतिक पार्टियों में अंदरुनी खींच-तान के बारे में ज़्यादा लिखने या कहने की ज़रूरत नहीं है। आज जहां कांग्रेस के पास किसी भी प्रांत में कोई लोकनेता मौजूद नहीं है, वही, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के रूप में कांग्रेस के पास एक कद्दावर नेता मौजूद है। जहां 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह से पराजय हुई थी, वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अमृतसर की लोकसभा सीट पर बड़े अंतर से जीत दर्ज कर अपनी लोकप्रियता का परिचय दिया था।
चाहे सिद्धू एक लोकनेता बन कर उभर ना पाये हों, लेकिन उनका कद राजनीतिक अखाड़े में मायने रखता है। हो सकता है कि आने वाले समय में ये दोनों नेता किसी सार्वजनिक सभा में एक साथ ना देखे जाएं और अगर कभी किसी समय एक मंच पर आ भी गये तो यकीनन आलाकमान की मौजूदगी उस सभा में ज़रूर देखी जायेगी। मुमकिन है कि चुनाव के दौरान इस अंदरुनी खींचतान में उबाल ना आये लेकिन इसका असली चेहरा चुनाव के बाद ही देखने को मिल पाएगा। पार्टी की प्रदेश इकाई में इस तरह की खींचतान से अक्सर आलाकमान ही मजबूत होती है। तो यह सिद्धू के रूप में, उस राजनीतिक सदस्य का भी चयन है जो पार्टी के अंदर कैप्टन अमरिंदर सिंह के बढ़ते कद पर लगाम लगा सकता है।
अब तक सिद्धू पर, शिरोमणि अकाली दल राजनीतिक बयान और प्रहार करने से बचता था। लेकिन अब सिद्धू के कांग्रेस में चले जाने से आने वाले चुनाव प्रचार में ये प्रहार अति उग्र हो सकते हैं, खासकर अमृतसर के इलाके में इसका प्रभाव देखने को भी मिल सकता है। यहां सिद्धू पर व्यक्तिगत बयानबाज़ी भी संभव है। इन बयानों के चलते हो सकता है कि शिरोमणि अकाली दल, मतदाता का स्थानीय मुद्दों से ध्यान हटाकर इसे एक चुनावी बहस का मुद्दा बनाकर अपने लिए फायदे के सौदे में तब्दील कर सकता है।
अब देखना होगा कि चुनावी परिणाम क्या बयान करते हैं कि नवजोत सिंह सिद्धू को कांग्रेस ने एक हुकुम के पत्ते की तरह शामिल किया है या बस कैप्टन अमरिंदर सिंह के एक विकल्प के रूप में। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ये कि पंजाब में कांग्रेस के विरोधी दल, सिद्धू को लेकर किस तरह कांग्रेस पर प्रहार करते हैं। कहीं ऐसा ना हो कि ज़्यादा उम्मीदें कांग्रेस को मंहगी पड़ जाएं।
फोटो आभार: गेटी इमेजेस