जेएनयू पिछले कुछ सालों में विभिन्न कारणों से लगातार चर्चा में रहा है। उसी में एक कारण है प्रशासन द्वारा “गंगा ढाबा” को बंद करने का फरमान। हालांकि, लगभग सभी तरफ से प्रशासन की फजीहत होने पर ये फरमान फिलहाल वापस ले लिया गया है। बहरहाल, महत्वपूर्ण यह है कि गंगा ढाबा में ऐसा क्या है, जिसको लेकर जेएनयू के तमाम छात्र, शिक्षक, कर्मचारी और वो लोग भी जो जेएनयू से जुड़े रहते हैं, इतने भावुक हैं।
जेएनयू अपनी वैश्विक एवं राष्ट्रीय सोच के कारण जाना जाता रहा है। यहां के छात्र, शिक्षक एवं कर्मचारियों ने मिलकर एक ऐसी संस्कृति बनाई है जो देश में “आदर्श राज्य” की तरह है। कई बार लोग इसे ‘टापू या द्वीप’ भी कह देते हैं। जेएनयू की अलग संस्कृति का मुख्य आधार यहां की ढाबा संस्कृति है। वैसे तो यहां पर कई ढाबे हैं लेकिन इनमें गंगा ढाबा सबसे अलग और अनूठा है। गंगा ढाबा जेएनयू का सबसे पुराना ढाबा है और यह शाम के चार बजे से रात के तीन बजे तक खुला रहता है।
जेएनयू के मुख्य द्वार से महज दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित यह ढाबा अपने वैचारिक-विमर्श के लिए सभी जगह प्रसिद्ध है। [envoke_twitter_link]शाम से लेकर रात तक ये ढाबा अपने वैचारिक रोमांस में सरोबार रहता है। [/envoke_twitter_link]यहां की चाय की चुस्की आपकी ख़ुशी को बढ़ा देती है और गम को कम कर देती है। यहां की चाय, स्वाद के तौर बहुत बेहतर नहीं लेकिन चाय में सना वैचारिक रस, इसके स्वाद को इस तरह बना देता है कि यहां आप चाय लेते नहीं बल्कि पीते हैं। छात्र किसी भी रिजल्ट के आने के बाद गंगा ढाबा की तरफ दौड़ते हैं। आपका रिजल्ट हुआ तब भी, नहीं हुआ फिर भी। सिविल सेवा के रिजल्ट से लेकर लेक्चरर बनने तक, सभी का सेलीब्रेशन गंगा ढाबा पर ही होता है। एक बेहतरीन भौगोलिक अवस्था में बसा यह ढाबा आपको अक्सर रोमांचित करता रहता है।
पार्किंग से ढाबे तक के उबड़-खाबड़ रास्ते जीवन के संघर्ष की तरह होते हैं। चार से पांच पत्थरों के स्टूल बने होने के बावजूद ये अलग से नहीं लगते। छात्र यहां बैठकर देश-दुनिया की तमाम बातें, क्लासरूम में दिए रीडिंग से लेकर पीएचडी थीसिस तक यहां डिस्कस किये जाते हैं। आप चाय लेकर किसी भी ग्रुप में जाकर बैठ जाते हैं और डिस्कशन का पार्ट बन जाते हैं और कोई प्रोटोकॉल नहीं, जब चाहें उठकर बिना किसी को बाय किये हुए जा भी सकते हैं। कोई एंट्री या एग्जिट रूल नहीं है।
यहां, सारे विमर्श पत्थरों पर बैठकर भी, बहुत ही सहज और सरल तरीके से किये जाते हैं। चट्टानों पर बैठकर भी विचारों में तरलता कितनी अजीबो-गरीब है। [envoke_twitter_link]हर रंग के राजनीतिक और सामाजिक विचार यहां आकर एक समूह बन जाते हैं,[/envoke_twitter_link] हर राज्य यहां आकर एक देश बन जाता है और हर देश मिल जाते हैं और एक विश्व बन जाता है। क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद और अन्तराष्ट्रीयवाद से ऊपर उठकर मानवीय चेतना का विकसित होना कितना आवश्यक होता है।
कई छात्रों के समूह अपने गिटार और वाद्ययंत्र लेकर गाते-बजाते हुए मिल जाते हैं और आप जाकर उनसे अपनी पसंद का गाना सुनाने के लिए आग्रह भी कर सकते हैं। संगीत से आत्मा पवित्र हो जाती है जिसे आप यहां महसूस करते हैं। यहां आकर आप लड़का या लड़की नहीं रह जाते, बस विचार-पुंज बन जाते हैं। किसी भी तरह के विचार पर एक सहज विमर्श यहां की पहचान है। बिट्टू भैया की रिचार्ज की दुकान पर फ़ोन रिचार्ज कराने तो आप आते हैं, लेकिन फ़ोन पर बात छोड़ आप किसी और को सुनने या सुनाने में मशगूल हो जाते हैं। जेएनयू के हर राजनीतिक प्रोटेस्ट की शुरुआत यहीं से होती है, नुक्कड़ नाटक से लेकर मशाल जुलूस तक का गवाह गंगा ढाबा बन जाता है। [envoke_twitter_link]कभी कभी ऐसा लगता है की जेएनयू की राजनीति का चाणक्य गंगा-ढाबा ही है।[/envoke_twitter_link] बगल में झेलम लॉन जेएनयू की राजनीति का जनरेटर है।
कई बार पुराने छात्र यहां आते हैं और किसी जान पहचान के छात्र को नहीं देखने पर फिर भी अकेला महसूस नहीं करते। किसी से आपकी जान-पहचान नहीं भी हो तब भी आप ढाबा चलाने वाले सुशील भैया और गंगा ढाबे से तो आपकी पहचान होती ही है। आप कुछ समय के लिए यह भूल जाते हैं कि अब आप यहां के छात्र नहीं हैं बल्कि आपमें रहने वाला छात्र फिर से जीवित हो जाता है। आप सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। रात में जब लगभग देश सो रहा होता है तब यह ढाबा जागकर देश को बेहतर बनाने के उपाय ढूँढ़ रहा होता है।
गंगा ढाबा की उबड़ खाबड़ ज़मीन पर चलते हुए आप शायद किसी से ना टकराएं, लेकिन विचारों की टकराहट की आवाज़ से पूरा ढाबा गुंजायमान रहता है। वैचारिक बहस के दौरान अगर आप क्रोधित हो गए तो आपको एक और चाय का ऑफर सप्रेम मिल जाता है। गंगा ढाबा इस देश की संसद और विधान सभा का पर्याय है, क्योंकि अब संसद और विधान सभाओं में तो देश-दुनिया के मुद्दों पर बहस नहीं बल्कि सर्वसम्मति से ‘गिलोटिन’ होता है।
यह ढाबा मानता है कि [envoke_twitter_link]वैचारिक बहस प्रजातंत्र की रीढ़ होती है।[/envoke_twitter_link] इसी बहस के दौरान कितने नए विचार निखर कर सामने आ जाते हैं और आर्टिकल या रिसर्च पेपर या किताब के तौर पर देश के सामने होते हैं। यहां खाने के लिए कुछ खास नहीं लेकिन वैचारिक भूख से तृप्त होने के लिए गंगा ढाबा से बेहतर और कुछ नहीं। यहीं पर मौर्या जी किताब दुकान भी है और किताब खरीदने के बाद उस किताब का “रिव्यु” भी चाय के साथ ही हो जाता है। डिबेट-डिस्कश के दौरान कई बार हॉस्टल जाकर खाना मुश्किल हो जाता है और यहीं पर राम सिंह के यहां खाते हुए, बात जारी रह जाती है।
प्रेमी युगलों को भी यहां प्रेम-संबंधों पर बहस करते सुना जा सकता है। कितनी ज़रूरी है ये समझना की प्रेम में होने भर से काम नहीं चलता बल्कि प्रेम के सिद्धांत को समझना आवश्यक है। [envoke_twitter_link]पितृसत्तात्मक समाज में प्रेम की समझ भी तो बहुत सतही है।[/envoke_twitter_link] गंगा ढाबा पर चाय पीते-पीते कई बार लड़के-लड़कियां आपस में वैचारिक समझ बना लेते हैं। कितना आवश्यक है साथ रहने के लिए इस अनकही वैचारिक समझ का होना।
गंगा ढाबा भले ही आधुनिक साज-सज्जा से सजा नहीं हो लेकिन आधुनिक विचारों में किसी भी हाय-फाई कॉफ़ी शॉप से पीछे नहीं है। जेएनयू भौतिक रूप से बड़ा है और इसे एक दिन में देखकर समझ लेना काफी मुश्किल है। लेकिन गंगा ढाबे पर कुछ घंटे मात्र बिताने से आप इस विश्वविद्यालय के मूलभूत सिद्धांत को समझ जाते हैं। इसलिए कई बार आप गंगा ढाबा पर चाय पीकर ही वापस हो जाते हैं। शायद उन्हें ये महसूस हो जाता है की [envoke_twitter_link]जेएनयू में गंगा ढाबा नहीं बल्कि गंगा ढाबा में जेएनयू है।[/envoke_twitter_link]