राजस्थान अपनी वीरता, लोक कला और लोक संगीत के लिए जाना जाता है। दुर्गम किलों से जहां एक ओर संगीत बहता था, तो दूसरी ओर खून की नदियां भी साफ नज़र आती थी। बारिश का मेहमान की तरह आना और अकाल का जबरन हर दूसरे साल बस जाना यही कहानी राजस्थान की भूमि के कण-कण से मिलती है। किले अब वीरान हो चुके हैं। साल में छह माह सैलानियों की रौनक से आबाद, फिर अकाल की तरह सूने-सपाट गलियारे और मोटी-मोटी दीवारों से झांकती महेन्द्र और मूमल जैसी अनेक प्रेम कहानियां गूंजती सुनाई पड़ती हैं।
हां, यह सच है कि जैसलमेर जाने के लिए अब बस और रेल सुविधा ने अपनी पकड़ बना ली है। एक समय में जब रेल और बस सम्पर्क नहीं था, तब जैसलमेर जाने के लिए हिम्मत और पैसा दोनों की बहुत ज़रूरत होती थी। अकाल और गरीबी से उसका चोली दामन का साथ। समय बदला। इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद राजस्थान में हरियाली छाने लगी। बीकानेर से कार से जैसलमेर जाते हुए और जैसलमेर से बाड़मेर या जोधपुर जाते हुए ऐसा नहीं लगता, हम राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके थार से गुजर रहे हैं।
किला देखने के बाद जैसलमेर से 35 किलोमीटर दूर रेगिस्तान में रात बिताने के लिए एक एजेंट के माध्यम से तम्बुओं के नगर में लोककला और लोकसंगीत सुनने तथा कालबेलिया नृत्य देखने पहुंचे। जंगल में मंगल नहीं, रेगिस्तान में शहर देखने का आनन्द ही कुछ और था। शाम के साढ़े छह बजने वाले थे। हमें एक गोल चबूतरे पर मसनद के सहारे बिठाने का इंतज़ाम। गोल घेरे के बीच एक खम्बा गड़ा था। ऐसा लगा जैसे मुगल साम्राज्य में राज दरबार में नृत्य और संगीत का कार्यक्रम होने वाला है। कुछ ही देर में सामने रखे पटे पर चाय की प्यालियां और गरम-गरम पकौड़िया परोसी गई। इतने में साजो सामान के साथ लोक कलाकार अपनी कला को प्रदर्शित करने के लिए तत्पर थे। हम भी चाय और पकौड़ियों के साथ-साथ बैठे लोक कला और लोक संगीत के लिए आतुर थे।
गोल घेरे के एक कोने में चार साजिंदे और साथ में लड़की राजस्थानी कालबेलिया वेशभूषा में। राजस्थानी लोक गीत और लोक संगीत तथा लोकनृत्य ने तीन घंटे के लिए हमें अपने शहर दिल्ली से दूर राजस्थानी भूमि में रचेबसे संगीत में गुम कर दिया। इस बीच कालबेलिया नृत्य, नाद गीत, ईश्वर की आराधाना, खुदा का शुक्रिया और दो पत्थरों के टुकड़ों को उंगलियों में फंसा कर तबले के साथ संगत, राजस्थान की सबसे बड़ी समस्या से जूझती जनता का हल यानी सात मटके एक साथ सर पर रखकर नृत्य तथा जमीन पर रखे हुए सौ के नोट को उठाना तथा सबसे विस्मयकारी साइकल के पहिए को सर पर रखकर घुमाना, एड़ी पर रखकर घुमाना और अंत में मुंह में मिट्टी का तेल भर कर खतरनाक तरीके से जलती आग को अपने मुंह में रखकर बुझाना। रोमांच नहीं भय भी पैदा कर रहा था। होश तो तब आया जब माइक से कोमल स्वर ने घोषणा की कि अब मेरे साथ आप भी नृत्य करें। हमारे साथ गए आशु और बुजुर्ग देखते ही रह गए कोई हमें भी नृत्य करने के लिए कहे।
कार्यक्रम रात दस बजे समाप्त हो गया। उपस्थित समुदाय से मालिक को हज़ारों की इनकम हुई। सुविधाएं आश्चर्यजनक रूप से अच्छी थीं। लेकिन, मन नहीं माना और जिन कलाकारों ने अपनी कला-संगीत को प्रस्तुत किया था, उनसे उनकी हालत का हाल जाने बगैर नहीं रहा गया। ये कलाकार अधिकांश मांगणयार सम्प्रदाय के लोग हैं और पुश्तों से राजा महाराजाओं के दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करते और खूब ईनाम पाते, लेकिन अब न राजा रहे और महाराजा अब तो ये कलाकार बंधुआ मजदूर की तरह रोज़ आते हैं और महीने की पगार पाते हैं।
हम सभी उनके गांव में मिलने पहुंचे। देखा वे विस्थापित जीवन जी रहे हैं। रहने के लिए कच्चे मकान है, गरीबी पैर फैलाए खड़ी है और तालियों की गूंज के बीच के हीरो यहां दरिद्रता और शिक्षा के लिए मोहताज हैं। कोई भी कलाकार दसवीं पास नहीं था। यहां तक कि लिखना-पढ़ना उनके लिए बेकार है। उनकी आधारभूत समस्याओं को न समाज सुनता है और न ही प्रशासन। आखिर ये कला और संगीत तथा लोकनृत्य कब तक रईसों के पैर की जूती बनकर रगड़ता रहेगा।
ऊंची-ऊंची अटटालिकों और शहर के बाहर अब गूंजती है यह आवाज़- “म्हारो वीर राजस्थान और म्हारो गरीब राजस्थान, म्हारो मोहताज राजस्थान…”