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“बेंगलुरु सामूहिक उत्पीड़न, हमारी सामूहिक मानसिकता दिखाता है”

मंटो ने एक बार कहा था कि मुझे तहज़ीब, तमद्दुन(सभ्यता) और समाज के कपड़े उतारने की ज़रूरत नहीं है, यह समाज पहले से ही नंगा है। बेंगलुरु में नए साल की रात को हुई यौन उत्पीड़न की शर्मनाक घटना और उसके बाद की प्रतिक्रियाएं इस समाज के नंगेपन को उजागर करती हैं। ये कौन से लोग हैं जिन्हे कानून का ज़रा भी डर नहीं सताता है?

ऐसे लड़कों के इस आत्मविश्वास के लिए कौन ज़िम्मेदार है? समाज, सरकार, प्रशासन या न्यायालय? सरकार और न्यायालयों द्वारा बनाए जा रहे कानून इनके मन में ख़ौफ क्यों पैदा नहीं कर पा रहे हैं? क्या इन्हे दिल्ली की निर्भया घटना से ज़रा भी दुख नहीं हुआ होगा? ये कभी सोचते नहीं कि जब इनके घर वालों को और इनकी बहन पता चलेगा तो वे क्या कहेंगे। इनके किसी दोस्त ने इन विषयों पर चर्चा नहीं की होगी? क्या इन लोगों  की कोई लड़की दोस्त नहीं होगी। इस स्तर तक की संवेदनहीनता की शिक्षा इन्हें समाज के किस स्कूल से मिली है? सीसीटीवी फुटेज को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि ये लोग ऐसा पहली बार कर रहे होंगे।

यह कोई सामान्य घटना नहीं है। यह उस सामूहिक मानसिकता का नज़ारा है जो महिलाओं और लड़कियों को एक सामान/चीज समझते हैं। ऐसा तो नहीं है कि लड़के इस प्रकार की सोच के साथ जन्म लेते हैं। समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक और लैंगिक माहौल ही इस प्रकार के लड़कों को तैयार करती है। आप ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि हमारे समाज में हर स्तर पर लड़कियों को कमज़ोर बना दिया जाता है। शायद इसलिए 20वीं सदी की फ्रांसीसी दार्शनिक और नारीवादी लेखिका सिमोन डी बिवोर(Simone De Beauvoir) ने कहा था कि औरत जन्म से औरत नहीं होती है,उसे औरत बनाया जाता है।

पूजनीय नेतागणों का विवेक

हमारी राजनीति को ऐसे विषयों से कोई मतलब नहीं है और न ही कभी उनके यहाँ ऐसी कोई चर्चा होती होगी। हर पार्टी महिला सुरक्षा को अपने घोषणापत्र पत्र में शामिल करता है। लेकिन न तो किसी के पास इसका रोडमैप है और नहीं वे इसके प्रति संवेदनशील और गंभीर हैं। पार्टियों का काम चुनाव लड़ना, लड़ाना, जीतना और जोड़ तोड़ की राजनीति करना भर रह गया है। एक चुनाव खत्म होते ही सभी दल अगले चुनाव की तैयारी में जुट जाते हैं और पिछले घोषणापत्र को कचरे के डब्बे में डाल देते हैं।

पार्टीयों की कार्यप्रणाली से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इनकी व्यवस्था कितनी महिला विरोधी हैं। मायावती पर कई बार गंदे और भद्दे कमेंट किए गए है। कारँवा पत्रिका ने “Smriti Irani rise from soap star to union minister” के नाम से एक विस्तृत रिपोर्ट किया था। उस रिपोर्ट में कई लोगों ने बताया कि किस प्रकार से औरतों को पार्टी में ऊपरी पदों पर जाने से रोक दिया जाता है।

टेलीविजन मीडिया का रवैय्या

टेलीविजन एक स्टंट स्थल बन चुका है जहाँ पर उन्हीं लोगों को बहस के लिए बुलाया जाता है जो आधे घंटे तक शोर-शराबा मचा कर दर्शकों का मनोरंजन कर सके। इन्हे न तो मुद्दों से कोई लेना देना होता है और न ही कोई समझ होती है। एंकर बहुआयामी प्रतिभा के धनी हो चुके हैं। जब वे बोलते हैं तो पता नहीं चलता कि कब वे विश्लेषक की भूमिका में हैं, कब विचारक की भूमिका में। कब वे सरकार का साथ दे रहे होते हैं और कब वे सरकार को अपने बेशकीमती सलाह दे रहे होते हैं। हर मुद्दों से संबंधित सवालों की सूचि कुछ साल पहले तैयार कर दी गई थी, हर एंकर वही रटता रहता है।

ख़ैर कुछ चैनलो पर इस घटना को लेकर बहस चल रही थी। स्टूडियो में वही पुराने धर्मगुरूओं और मौलानाओं की जमात थी जिन्हे लड़कियों के छोटे कपड़े चुभते हैं लेकिन सामूहिक शोषण जैसी घटना को आसानी से पचा जाते हैं। मुझे पता नहीं है कि इतने सालों से इन लोगों को डिबेट में क्यो बुलाया जाता है। ऐसे डिबेट को देखकर कितनी लड़कियाँ या महिलाएँ अपने हक के लिए खड़ी होती होंगी। कितने लड़के या पुरूष अपने विचार को बदलते होंगे। इन बहसों में सिर्फ कुतर्कों का सहारा लिया जाता है।

टीवी एंकर्स

एंकर एक बार भी इन घटनाओं के कानूनी पहलू का ज़िक्र नहीं करता है और न ही ऐसी घटनाओं को लेकर समाज में क्या स्थिती है, इसकी बात करता है। एंकर हमेशा एक ही अवस्था में रहता है। कभी लगता ही नहीं कि वह किसी गंभीर विषय पर संवेदनशीलता के साथ चर्चा कर रहा है। केवल बार बार  नेता अबु आजमी के बयान और ट्विटर पर हुई बयानबाजी को साउंड के किसी एक्शन हीरो की एंट्री की भांति दिखा रहा होता है। एक बार आप गंभीरता से नज़र दौड़ाएंगे तो पता चलेगा कि आपके घर, [envoke_twitter_link]आस-पड़ोस से लेकर दोस्तों और टीचरों तक में न जाने कितने अबु आज़मी मौजूद हैं। [/envoke_twitter_link]आधुनिकता के तमाम ढोल नगाड़े पीटने और डिजिटल दुनिया से जुड़ने के बाद भी भूमंडलीकरण के इस दौर में, भारत में अभी भी ज़्यादातर लोग साक्षर हैं, इनका शिक्षित होना अभी बाकी है।

कानूनी प्रावधान

भारतीय कानून में “महिला से छेड़छाड़”(eve teasing) शब्द का इस्तेमाल नहीं है और न ही इसके लिए दंड की कोई अलग श्रेणी है। [envoke_twitter_link]सिर्फ तमिलनाडु में Eve teasing act 1998 के नाम से एक अलग कानून है।[/envoke_twitter_link] इसके लिए प्रभावी कानून के अभाव में छेड़छाड़ की घटना को भारतीय दंड सहिता कि धारा 294,509और 354 के तहत दर्ज किया जाता है। जिसमें कि धारा 354 के तहत अधिकतम सजा तीन साल की कैद या ज़ुर्माना है।

राष्ट्रीय अपराध शाखा रिकार्ड ब्यूरो की ताज़ा आँकड़ो के मुताबिक साल [envoke_twitter_link]2015 में कुल 82,422 मामले महिला की मर्यादा या मान को क्षति पहुंचाने की धारा 354 के तहत दर्ज किए गए थे।[/envoke_twitter_link] इनमें से सिर्फ 66,887 मामलों को कोर्ट में ट्रायल के लिए भेजा गया था। जिनमें से 3,998 मामलो में फैसला आया था। और कुल मिला कर सिर्फ 870 मामलों में सज़ा हुई थी। सज़ा का प्रतिशत 24.3% था। यानि कि [envoke_twitter_link]100 में से 76 मामलों में अपराधी छूट जाते हैं।[/envoke_twitter_link]

यह स्थिती भयावह है। ज़ाहिर है कि इस प्रकार की न्यायायिक प्रक्रिया और सज़ा के इतने कम प्रतिशत के चलते इन मनचलों का हौसला बुलंद है। भारत में अभी भी धारा 354 के तहत 2,51,482 मामले लंबित हैं। एक और चिंताजनक बात यह है कि ऐसे मामलों में आरोपियों को तुरंत जमानत मिल जाती है। साल 2015 में सिर्फ 5045 आरोपिओं को जाँच के दौरान कस्टडी में रखा गया और 23,167 आरोपिओं को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया था।

पूर्व घटनाओं का रेफरेंस

छेड़छाड़ की घटना से मनोवैज्ञानिक स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने “रूपन बजाज एवं अन्य विरूद्ध केपीएस गिल” मामले में “Modesty” शब्द का मतलब परिभाषित किया है। छेड़छाड़ की घटना निजता के अधिकार का उलंघन है। प्रियदर्शिनी मट्टो मामले के बाद कोर्ट ने पीछा करने(Stalking) को धारा 354D के तहत  परिभाषित किया था। समाज में [envoke_twitter_link]ऐसे कई रोडसाइड रोमियो मिल जाएँगे जो फिल्मों के दृश्य को देखकर हीरो बनने की कोशिश करते हैं[/envoke_twitter_link]। समाज में संवेदनहीनता और जानकारी की कमी इन घटनाओं के कारक हैं।

इस घटना के बाद चारो तरफ ख़ामोशी है। अब किसी भी नेता का भारत का नाम ख़राब होने का डर नहीं सता रहा होगा। धर्म के ठेकेदार चुप हैं क्योकि इस घटना से उनकी संस्कृति ख़तरे में नहीं है। भारत की अस्मिता बचाने के नाम पर किताबें, फिल्में,पेंटिंग और सार्वजनिक बहसों को बंद कराने वाले लोग इस घटना को आसानी से पचा रहे हैं। अब कोई नेता किसी को देश से बाहर जाने के लिए नहीं कहेगा। क्योंकि एक लड़की से साथ बदसलूकी हुई है। किसी ने भारत माता कि जय बोलने से मना नहीं किया है या कोई राष्ट्रगान पर खड़ा नहीं हुआ है। टीवी से लेकर ट्विटर तक एक अजीब ख़ामोशी है।

 

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