Site icon Youth Ki Awaaz

कुदरत ने बस भेद बनाया था और हम उसे भेदभाव बना बैठें

हाल ही में सामुदायिक रेडियो प्रशिक्षण कार्यक्रम में जाने के मौका मिला। बहुत कुछ सीखा और कई बातें भूलने का मन भी किया। आखिर ऐसी कौन सी बातें हैं जिन्हें भूलने का मन किया?

बात हो रही थी समानता और अधिकारों की। चर्चा हुई कि किस तरह आज भी हमारे समाज में औरत का दर्ज़ा पुरुषों से नीचा है। हालाँकि यह बात कई मायनों में बदल रही है, औरतें घर से बाहर निकल रही हैं, अपनी खुद की पहचान बना रही हैं। पर क्या फिर भी जो जैसा दिख रहा है वैसा ही हो रहा है। क्या हमारी सोच में कोई बदलाव आया? सारी बातें फिर सवाल बनकर सामने आ खड़ी हुई। रेडियो कार्यक्रम हो या हमारा दैनिक जीवन पितृसत्तातमक सोच हमारे दिलों दिमाग में इतनी धस चुकी है कि जाने अनजाने हम अपने कार्यों, ख्यालों और विचारों में इसी का प्रमाण देते हैं।

किसी भी ताकत वाले या सत्ता से जुड़े काम की बात आये तो सबसे पहली तस्वीर जो दिमाग में बनती है वह पुरुष की और जहाँ बात आये सहनशीलता और बेचारेपन की वहां एकाएक महिला आकर खड़ी हो जाती है। किसका बनाया हुआ है यह ढांचा? शायद चूक यह हुई कि कभी इसपर सवाल ही नहीं उठाया और साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी यही सोच आगे बढ़ती गई। बड़ी ही तैयारी के साथ हमने इस सोच को सामाजिक नियमों, प्रथाओं, और सांस्कृतिक लोकाचार के रंगीले शब्दों से सजा दिया।

अगर हम किसी बदलाव की कल्पना करते हैं तो उसे सबसे पहले हमसे ही शुरू होना चाहिए। बचपन से बड़े होने तक हम इस लिंग आधारित भेदभाव को सुनते आए हैं और कब यह सुनी सुनाई बातें हमारी मान्यता बन गईं पता ही नहीं चला। दबे पांव हमारे ज़हन में घर कर लिया और हम कब इसे ही सच समझ बैठें पता ही नहीं चला।

पर जब सीखने का मौका मिला और गहराई से चीज़ों को जाना तो पता चला कि यह सब इस समाज की देन है, इसमें कुदरत का कोई हाथ नहीं। कुदरत ने तो भेद बनाया था पर हम सब उसे भेदभाव बना बैठें। खुद अपने अनुभव से कहूं तो इस भेदभाव पर सवाल उठाने का अब ज्यादा मन इसीलिए भी करता है क्यूंकि मैं एक दो साल की बच्ची की माँ भी हूं। मैं नहीं चाहती कि जिन मान्यताओं के साथ मैं बड़ी हुई, उन्हीं के साथ मेरी बेटी भी बड़ी हो। मैं चाहती हूं वो ना ही सिर्फ अपनी सुरक्षा, अपने फैसले खुद ले सके, बल्कि हर सामाजिक भेदभाव पर सवाल उठाने में सक्षम हो क्यूंकि सवाल उठाने से ही संवाद शुरू होता है और आगे चलकर बदलाव की राह नज़र आती है।

समाज हम सभी से है तो क्यूं ना एक शुरुअात करके देखी जाये। क्या एक बेटी के साथ परिवार पूरा नहीं? लड़के रोते नहीं या क्यूँ लड़कियों की तरह रो रहे हो, ऐसी बातें जो हम बचपन से सुनते हैं कहीं न कहीं हमारी सोच का हिस्सा बन जाती हैं और हम इंसानियत को पीछे छोड़ते हुए बस इस सोच के आगे नतमस्तक, इसी को सही ठहराने की कोशिश में कई रिश्ते नातों को दाव पर लगा देते हैं।

एक न्यायिक समाज की रचना शुरू करने के लिए हम सब की भागीदारी की ज़रूरत है क्यूंकि बराबरी कभी तकलीफ नहीं लाती, लाती है तो सिर्फ सम्मान और सौहार्द। जैसे की कमला भसीन जी कहती हैं ताकत से मोहब्बत मत करो, मोहब्बत की ताकत को समझो।

Exit mobile version