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“अभिषेक जी! आपको बड़ी लकीर खींचना सीखना होगा।”

प्रिय अभिषेक उपाध्याय,

बीते एक हफ्ते में आपने फेसबुक पर जो कुंठा ज़ाहिर की है, उससे अब घिन आने लगी है। सुना है आपने खाना-पीना छोड़ दिया है। खुद को संभालिये, आप ‘वो’ नहीं बन सकते इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार लेंगे आपको आराम हो जाएगा। लकीर को मिटाकर बड़ा नहीं बन सकते आप, आपको बड़ी लकीर खींचना सीखना होगा। अपने सीनियर्स से सीखिये उन पर कीचड़ मत उछालिये।

हालांकि इस मामले में आपकी चुस्ती देखकर मुझे अच्छा भी लग रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे ‘स्वर्ग की सीढ़ियां’, ‘नाग-नागिन का डांस’ और ‘क्या एलियंस गाय का दूध पीते हैं” जैसी स्टोरीज़ में अब आपकी दिलचस्पी कम हो गई है। ये अच्छा संकेत है, मुबारकबाद। आपके हालिया पोस्ट पढ़कर महसूस हो रहा है जैसे पत्रकारिता की दुनिया में एक नए नारीवादी पत्रकार ने जन्म लिया है। एक ऐसा पत्रकार जो महिला के एक आरोप भर से इतना आहत है कि खाना पीना छोड़ दिया है, सड़क पर बदहवास होकर दाएं-बाएं भाग रहा है। लेकिन फिर मैं ये सोचकर उदास हो जाता हूं कि काश ये क्रांति की ज्वाला थोड़ा पहले जल गई होती तो उस दोपहर आपको प्रेस क्लब में आपके आका रजत शर्मा के लिए किसी बाउंसर की तरह बर्ताव करते न देखता, जिन पर और जिनकी पत्नी पर इंडिया टीवी की एंकर ने गंभीर आरोप लगाए थे। आरोप भी वही थे जो अब आपको ना काबिले बर्दाश्त लग रहे हैं।

वो एंकर मेरी सहकर्मी भी रह चुकी हैं इसलिए मैं समझता हूं कि वो किस पीड़ा से गुज़री थीं जब उन्होंने फेसबुक पर अपना सुसाइड नोट लगाया था। इंडिया टीवी पर तब उस ख़बर के न चलने पर आपने छाती नहीं पीटी थी। काश आपका नारीवाद तब अपने मालिक के नमक का हक अदा करने न गया होता तो कितना अच्छा होता। वैसे मैं आपको एक सुझाव देना चाहता हूं, आप नारीवाद के झंडाबरदार के तौर पर अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं तो कराइये लेकिन उससे पहले अपने अंदर के जातिवाद के मैल को साफ कीजिए।

आपकी हालिया पोस्ट में आप रवीश कुमार को ये कहकर टारगेट कर रहे हैं कि वो रवीश पांडेय है तो पांडेय क्यों नहीं लगाते? पढ़ाई-लिखाई सब बेच खाई है क्या? ये भी कोई गुनाह है? मेरी दरख्वास्त है आपसे कि फैज़, दुष्यंत कुमार और बाबा नागर्जुन का नाम बार-बार लेने से परहेज़ कीजिए उनकी आत्माएं तड़पती होंगी। ओम थान्वी जैसे वरिष्ठ पत्रकार के शरीर का मज़ाक उड़ाते हुए उन्हें थुलथुल थान्वी लिखते हुए आपको शर्म आई होगी या नहीं, इस पर अलग से बात की जा सकती है। लेकिन हां, कभी अकेले में आइने के सामने खड़े होकर खुद से पूछिएगा कि जिन पत्रकारिता के उसूलों की फिक्र में आप दुबले हुए जा रहे हैं वो तब कहां गए थे जब क़मर वहीद नकवी साहब ने आपके संस्थान से इसलिए इस्तीफा दे दिया था क्योंकि आप प्रधानमंत्री का पेड इंटरव्यू चला रहे थे?

तब वो मशालें कहां छुपा दी थी आपने जिन्हें अब झाड़-पोंछ कर सुलगा रहे हैं। मैं मानता हूं आपके लिए नौकरी बड़ी चीज़ है, घर-परिवार की ज़िम्मेदारी है, मकान की किश्तें हैं, बच्चों की स्कूल फीस है लेकिन फिर भी आपको इतनी हिम्मत तो दिखानी चाहिए थी कि एक बार अपने मालिक से पूछते “सर, आपको ‘कला और साहित्य’ में पद्म भूषण तो मिला है लेकिन कला-साहित्य में आपका क्या योगदान है?” मानता हूं डर लगता होगा आपको, लेकिन सारी दिलेरी सिर्फ अपनी कुंठा निकालने के लिए दिखाना ग़लत है, धोखेबाज़ी है। आपकी फूहड़ कविताएं अक्सर फेसबुक पर देखते हुए नज़रअंदाज़ करता था, लेकिन अब आप पोस्ट से भी गंदगी फैला रहे हैं इसलिए लिखना पड़ा। उम्मीद है आप खाना-पीना वापस खाना शुरु कर देंगे, इतनी नाराज़गी ठीक नहीं है।

अपना ख्याल रखें
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

(लेखक गाँव कनेक्शन में ‘स्पेशल कॉरस्पॉडेंट’ के तौर पर कार्यरत है, रेडियो के लिए कहानियां भी लिखते हैं, इनसे jamshed@gaonconnection.com पर संपर्क किया जा सकता है)

फोटो आभार: फेसबुक

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