26 नवम्बर 2008, रात होते-होते न्यूज़ चैनल्स पर मुंबई में गोली चलने की खबर आनी शुरू हो गयी थी। मेरी तरह किसी को भी ये अंदाज़ा नहीं था कि ये एक ऐसा आतंकवादी हमला है, जो पूरे देश को अगले 2-3 दिन तक टीवी न्यूज़ चैनल से जोड़ देगा।
शायद मेरी तरह ज़्यादातर लोग भी बाकी के आंतकवादियों का नाम तक नहीं जानते होंगे लेकिन टीवी पर एक तस्वीर बार-बार दिखाई जा रही थी। एक आतंकवादी ने नीले रंग की टी-शर्ट पहन रखी है, पीछे बैग टांग रखा है और हाथ में ऐके-47 मशीन गन है। ये तस्वीर इस हमले में एक मात्र ज़िंदा पकड़े गये आतंकवादी कसाब की थी जो इस आतंकवादी हमले का चेहरा बन गया था।
पूरे देश में इस चेहरे से बेतहाशा नफरत होनी लाज़मी था, लेकिन हमारे संविधान के तहत कसाब पर कानूनी केस चला और उसे बचाव पक्ष का एक वकील भी दिया गया। ]ज़्यादातर भारतीय ये सवाल कर रहे थे कि कसाब को अपना पक्ष रखने का क्या अधिकार है? से बचाव करने के लिए वकील क्यूँ दिया जाना चाहिये?
कुछ समय पहले देखी एक इंग्लिश फिल्म ब्रिज ऑफ़ स्पाइस ने बहुत बेहतरीन ढंग से मेरे इन सभी सवालों का जवाब दे दिया। मशहूर निर्देशक स्टीवन स्पिलबर्ग ने फिल्म की कहानी, संवाद, कैमरा वर्क और बेहतरीन अभिनय के ज़रिये एक पेचीदा सच को दर्शकों के सामने पेश किया है, जहां संविधान हर किसी को अपने बचाव का अधिकार देता है।
1957 का समय जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच राजनीतिक रिश्ते शक की निगाह से देखे जाते थे। दोनों देशों का परमाणु हथियारों से लैस होना, 1945 में दूसरे विश्व युद्ध के अंत के बाद जर्मनी को दो हिस्सों में बांट देना, ये सारे प्रकरण उस वक़्त अमेरिका और सोवियत संघ में भय का वातावरण पैदा कर रहे थे। ये वो समय था जब दोनों देशों के अखबारों में आये दिन एक-दूसरे के खिलाफ खबरें प्रकाशित होती रहती थी।
फिल्म की शुरुआत सोवियत संघ के एक जासूस के अमेरिका में पकड़े जाने से होती है। निर्देशक ने फिल्म की शुरुआत के 7 मिनट तक इसे संवादरहित रखा है। फ़िल्म के शुरुआती दृश्य में रुडोल्फ एबल के किरदार में मार्क रायलंस आइने में अपनी तस्वीर देख कर अपना चित्र बना रहे होते हैं, इस पेंटिंग में एबल खुद को एक जेल के कैदी के रूप में दिखाता है। बैकग्राउंड में मैट्रो ट्रेन के चलने की आवाज़ सुनाई देती है और अगले 10 मिनट में अमेरिका के अधिकारी इन्हें जासूसी के आरोप में पकड़ लेते हैं।
फिल्म में कई सीन हैं जो काफी असरदार हैं जिनमें डोनोवन और एबल की जेल में मुलाकात जहां एबल, डोनोवन को अपना वकील स्वीकार कर लेता है, एक यादगार सीन है। एक अन्य सीन में फिल्म कोर्ट रूम से हटाकर डोनोवन के बेटे के स्कूल रूम में जाती है। डोनोवन का बेटा, बाथरूम में पानी का टब भरकर डोनोवन को बताता है कि किस तरह परमाणु हमले से बचा जा सकता है। यहां निर्देशक, एबल की गिरफ्तारी से उपजे सामाजिक भय को दर्शा रहा है और इसी भय से समाज में एबल और उसके बचाव पक्ष के वकील डोनोवन के खिलाफ उभर रही नफरत को भी दिखा रहा है।
अगले सीन में सीआईए के एजेंट और डोनोवन के बीच संवाद होता है जो इस फिल्म की जान है, जहां सीआईए एजेंट डोनोवन से कहता है, “यहां, कोई रुल बुक नहीं है”। जवाब में डोनोवन कहता है, “तुम्हारे वंशज जर्मनी से लगते हैंऔर मैं एक आयरिश-अमेरिकन हूं। हम दोनों को ही अमेरिकन होने का अधिकार ये रुल बुक यानि देश का संविधान ही देता है।” डोनोवन अपनी, सूझ-बूझ से एबल की मौत की सजा को 30 साल की सजा करवाने में कामयाब रहता है और सुप्रीम कोर्ट में एबल के लिये अपील करने की घोषणा करता है जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ख़ारिज कर देता है।
इस फैसले के बाद कोर्ट रूम के बाहर और डोनोवन के घर में उस पर हमला होता है। यहां पुलिस अधिकारी भी डोनोवन से तर्क-वितर्क करते हैं। परिवार भी डोनोवान से नाखुश है और तो और जिन वकील मित्रों ने डोनोवन को एबल का केस लेने के लिये कहा था, वो भी डोनोवन से मुंह मोड़ लेते है।
फिल्म डोनोवन के संघर्ष को खूबसूरती से दिखाती है और अंत में अमेरिका के एक गुप्तचर और एक आम नागरिक को छोड़ने की शर्त पर एबल को सोवियत संघ को सौंप दिया जाता है।
यह एक बेहतरीन फिल्म थी जहां संवाद बहुत कम लेकिन लाजवाब थे। फिल्म पूरे 2 घन्टे 20 मिनट तक अपने साथ जोड़कर रखती है। यह एक अहम सबक देती है कि लोकतंत्र में संविधान नाम की एक रुल बुक है, जो अपराधी को भी अपने बचाव का पक्ष रखने का मौक़ा देती है। फिर चाहे वह किसी भी अपराध में शामिल क्यों ना हो।
संविधान अपनी मर्यादा की पहचान बना कर रखता है और सभी को बचाव करने का अधिकार देता है। आज एक भारतीय होने के नाते, कसाब को बचाव पक्ष का वकील देने के लिये मैं तहे दिल से हमारे देश के संविधान और जुडिशल सिस्टम की तारीफ़ करता हूं। अगर आपके पास समय हो तो इस फिल्म को एक बार ज़रूर देखियेगा।