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“16 साल में माँ बन चुकी मेरी बहन को मैं उस जेल से आज़ाद नहीं करा पाया”

College canteen, सुबह के 9 बजे

‘चाचा तीन चाय और छह समोसे भिजवाना’, यह कहते हुए साकेत ने बगल वाले टेबल से कुर्सी खींची।

हम तीन लोग थे वहां, मैं, मेरा दोस्त साकेत और दिशा, हमारी कॉलेज की दोस्त। यह सुबह भी हर रोज़ की तरह ही थी, जो कैंटीन से शुरू होकर कॉलेज क्लास होते हुए ढाबे पर खत्म होती। मगर मेरे लिए यह सुबह कोई और ही खबर लाई थी। मैं उदास था और यह उदासी मेरे दोस्तों को मेरे चेहरे से साफ झलक रही थी ।

हमारे टेबल पर समोसे रख दिये गये।

‘क्या बात है, तू उदास क्यों है। तू बिल्कुल भी सही नहीं लगता ऐसे’- दिशा ने कहा।

मैं चुप रहा।

‘क्या हुआ बे, मैडम से झगड़ा हुआ क्या?’ -साकेत ने मुझे चिढ़ाते हुए कहा।

मैं फिर भी चुप था। अब वह दोनों ही समझ चुके थे कि मैटर सीरियस है।

‘क्या हुआ है’- साकेत ने धीरे से मुझसे पूछा।

मैं खुद को रोक न सका और अपने हाथों से अपना चेहरा ढकते हुए रो पड़ा। दोनों ने अपनी कुर्सियां मेरे करीब लाकर मुझे समझाया, चुप कराया और फिर पूछने लगे कि क्या बात है, जो मैं यू रो रहा हूं।

दोनों अपने अपने हिसाब से अंदाज़ा लगा रहे थे कि आखिर बात क्या है।

दोनों की बेचैनी को देखते हुए मैंने पूछा- ‘क्या लड़कियां आज़ाद हो चुकी हैं?’

साकेत- अब ये सवाल कहां से आ गया?

दिशा- यह तो डिपेंड करता है कि तुम्हारी आज़ादी के मायने क्या है, परिभाषा क्या है। खैर, प्लीज़ तुम ये घुमा फिरा कर मत बोलो यार, सीधे बताओ आखिर बात क्या है ?

मैं बचपन से एक लड़की को जानता हूं ।”निन्नी”, बड़ा अजीब सा नाम है ना। मैं जब 10th में था तब तक तो मैंने उसे देखा। फिर मैं बाहर चला गया पढ़ाई करने। साल भर बाद छुट्टियों में घर आया तो पता चला उसकी शादी हो गई है। वह 16 की होगी उस वक्त, 12 वीं के एग्ज़ाम देने घर आया तो पता चला बेटी हुई है उसे। मैं मिलने भी गया था, 1 kitkit वाला झूमर लेकर। वो बहुत खुश लग रही थी। साल भर बाद मैं DU दिल्ली यूनिवर्सिटी में था और वह एक बार फिर से पेट से थी पर अब काफी दबाव था। लड़का पैदा करने का दबाव। दबाव तो मुझ पर भी था। सेमेस्टर पास करने का दवाब।

वक़्त बीता और मैंने सेमेस्टर पास कर लिया, पर निन्नी फेल हो गई। उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एक बार फिर निन्नी को लड़की हुई। साल भर पहले वाला सास का प्यार अब कड़वाहट  में बदल गया। ननद का लाड़ अब दुत्कार में बदल गया। रोज़ रोज़ की किच-किच से तंग आकर उसका पति उसे लेकर दिल्ली चला गया। जहां वो किसी फैक्ट्री में काम करता था।

निन्नी ने उम्मीद की थी कि वक्त के साथ चीजें साधारण होने लगेगी। सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। मगर चीजें बद से बद्तर होने लगी थी। निन्नी की सास ने अपने बेटे को यह कह दिया कि वह वहां काम नहीं कर पाएगा, निन्नी के साथ रहकर, इसलिए निन्नी को यहां गांव पर छोड़ दें।आज्ञाकारी पुत्र की तरह निन्नी के पति ने, अगले ही महीने निन्नी को गांव लाकर मां के हाथों में सौंप दिया और खुद वापस दिल्ली चला गया।

इधर 1 महीने साथ रहने के बाद निन्नी की सास ने उसे घर से निकाल दिया। उसकी सास अब एक पल भी निन्नी को इस घर में बर्दाश्त नहीं कर सकती थी उसे पोता चाहिए था जो उसे तृप्त कर सके। उसके वंश को आगे बढ़ा सकें ।

घर से 7 किलोमीटर दूर खेत वाली जमीन के पास ही निन्नी के ससुराल वालों की एक झोपड़ी थी जिसमें अनाज रखा जाता था अब निन्नी को वहीं रहने की आज्ञा मिली थी।

करीब 20-25 रोज़ वहां रहने के बाद एक दिन अचानक निन्नी के पेट में फिर दर्द हुआ, डॉक्टर ने बताया कि वह मां बनने वाली है। पर निन्नी खुश नहीं थी फिर भी वह अपनी सास से मिलने गई और बताया कि उसके पैसे खत्म हो गए कुल मिलाकर उसके पास ₹2000 थे, जो जरूरत के सामान, किरासन तेल और बच्चों के दूध में खत्म हो गए। उसकी सास ने साफ-साफ कह दिया कि वह महीने में उसे 1500 रुपए देगी जिसमें उसे अपनी और अपनी बेटियों की जरूरतें पूरी करनी है। निन्नी के पास इस प्रस्ताव को मानने के अलावा कोई और चारा नहीं था।

दरअसल, समाज ने लड़कियों की बनावट ही इस प्रकार की है की वो हमेशा किसी न किसी पर आश्रित रहे। शादी से पहले पिता और भाई पर, शादी के बाद पति पर और बुढ़ापे में बेटे पर, समाज ने कभी आज़ाद होने ही नहीं दिया इन्हें। 1500 रुपए लेकर निन्नी घर आई और हिसाब लगाया तो पता लगा 50 रुपय हर रोज की सीमा है। अगर किसी दिन ज्यादा खर्च किया तो अगला दिन मुश्किल होगा। निन्नी के पति को गए दो महीना हुआ था, और उसके पेट में 3 महीने का बच्चा था। अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह 50 रुपए में बच्चों के लिए दूध लाए या घर के खर्च के लिए जरूरी सामान। कभी-कभार किसी के यहां वह गेहूं साफ कर देती। तो कभी किसी के यहां बर्तन साफ कर देती इस तरह उसने अपना गुज़ारा करना सीख लिया।

सातवें महीने में निन्नी कहीं भी काम पर नहीं जा पाती थी। दर्द कभी भी बढ़ जाता था, तबीयत कभी भी खराब हो जाती थी । कभी-कभी उसका मन बच्चों के साथ खुदकुशी कर लेने को भी करता था, पर वह हार मानने को तैयार नहीं थी। वह लड़ रही थी खुद से, हालात से,परिवार से, समाज से ।

आठवें महीने के 12वें दिन निन्नी दर्द से मरी जा रही थी। उसकी चीखें सुन बगल की कुछ औरतें आई। सभी ने निन्नी को हॉस्पिटल पहुंचाया। हॉस्पिटल की आशा ने बताया कि बच्चा अठमासु (यानी कि 8 महीने में पैदा होने वाला) है। निन्नी बेहोश हो गई। आधे घंटे की जद्दोजहद के बाद डॉक्टर ने बाहर आकर सब को बताया कि लड़का हुआ है। सब खुश हुए। वह लड़का जिसकी उम्मीद निन्नी की सास लगाए हुई थी। निन्नी भी अब होश में आई। सरकारी अस्पताल की आशा ने सरकारी सहायता के 1100 रुपए और बच्चे को लाकर निन्नी की गोद में रख दिया और बताया कि लड़का मरा  पैदा हुआ था। कमजोरी के कारण जच्चा बच्चा दोनों ने ही हिम्मत छोड़ दी थी। पर किसी तरह डॉक्टर ने निन्नी  को बचाने का फैसला किया। रोना-धोना किए बिना निन्नी उस बच्चे और 11 सौ रुपए लेकर अस्पताल से घर आ गई।

किसने मारा उसे? निन्नी बस ये सवाल जानती थी। जवाब किसी के पास नहीं था । उसने फावड़ा उठाया और उसी खेत में उसे गाड़ आई, जिस खेत का अनाज उसके घर में था।

हर महीने उसकी बेटी उसके सास से पैसे ले आती थी। दो-तीन महीने बाद निन्नी खुद पैसे लाने जाने लगी। सब कुछ पहले की तरह होने लगा किसी के लिए कुछ नहीं बदला। निन्नी ने बड़ी लड़की का नाम पास के ही प्राथमिक विद्यालय में लिखवा दिया। और खुद छोटी बेटी को लेकर पापड़ बनाने वाली एक छोटी सी संस्था में काम करने लगी। किसी को इस घटना से कोई फर्क नहीं पड़ा सिवाए मेरे।

“ऐसा क्यों कह रहा है”- साकेत ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

मैं फिर से रोने लगा। और भी ज्यादा रोने लगा। साकेत ने मुझे चुप कराते हुए कहा- यार ऐसा तो होता रहता है तू उसे जानता था इसलिए तुझे ज्यादा फील हो रहा है।

दिशा- पर तू इतना रो क्यों रहा है

रोने की सिसकियों के बीच मैंने अचानक कहा- क्योंकि वो मेरी चचेरी बहन थी,  इसके बाद मुझसे कुछ मत पूछना।

ये कहकर मैं वहां से चला गया। उन्होंने भी कभी मुझसे इस बारे में कुछ नहीं पूछा।

ऐसी ही “निन्नी” जैसी कोई अगर कहीं मिले ,जो अपने घर, परिवार, समाज और धर्म के हाथों मर रही हो। तो उसे आजाद करने की कोशिश कीजिएगा। मैं नहीं कर पाया।

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