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फ्रांस राष्ट्रपति चुनाव और विकसित देशों की हानिकारक आत्ममुग्धता

अमेरिका के बाद अब फ्रांस, राष्ट्रपति चुनाव के लिए तैयार है। फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान दो चरणों में होगा। इसके पहले चरण का मतदान 23 अप्रैल होना है। मतदान दिवस की समीपता को देखते हुए फ्रांस में राजनीतिक गतिविधियां तेज़ हो गई हैं। इस बार के चुनाव में [envoke_twitter_link]सत्तासीन सोशलिस्ट पार्टी का मुकाबला धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल फ्रंट से होना माना जा रहा है।[/envoke_twitter_link] नेशनल फ्रंट की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मारीन ली पेन ने पार्टी का घोषणापत्र भी जारी कर दिया है।

गौरतलब है कि [envoke_twitter_link]फ्रांस के मौजूदा राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद आगामी चुनाव में हिस्सा लेने से पहले ही मना कर चुके हैं।[/envoke_twitter_link] इस प्रकार से ओलांद फ्रांस के ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने पद पर रहते हुए अगले चुनाव में हिस्सा लेने से मना कर दिया है। कुछ सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि फ्रांस्वा ओलांद की लोकप्रियता में कमी आई है। जानकारों का मानना है कि इसी बात के मद्देनजर ओलांद ने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से हटने का फैसला लिया है।

फ्रांस्वा ओलांद, पांच साल पहले जब राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल हुए थे, उस समय मध्य दक्षिणपंथी पार्टी के नेता निकोला सार्कोजी सत्ता में थे। [envoke_twitter_link]निकोला सार्कोजी के शासनकाल में देश कुछ अशांत माहौल के दौर से गुज़र रहा था।[/envoke_twitter_link] ओलांद की सोशलिस्ट पार्टी ने फ्रांस की जनता को इस अशांति से बाहर निकालने का भरोसा दिलाया।

मगर आज जब फ्रांस्वा ओलांद के कार्यकाल के पांच साल पूरे होने को हैं, तब [envoke_twitter_link]फ्रांसीसी जनता का ओलांद से मोह भंग सा हो गया लगता है। [/envoke_twitter_link]इसकी एक प्रमुख वजह है कि ओलांद के शासनकाल में फ्रांस में आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं। पेरिस, नीस व अन्य जगहों पर चरपंथी हमले हुए, जिन्होंने फ्रांस को हिलाकर रख दिया। हालात ऐसे बने कि फ्रांस में सुरक्षा की दृष्टि से आपातकाल तक लगाना पड़ा।

[envoke_twitter_link]फ्रांस यूरोपीय महाद्वीप का एक ऐसा देश है जिसमें भारी संख्या में मुस्लिम रहते हैं।[/envoke_twitter_link] कुछ आंकड़ों के अनुसार इनकी संख्या 50 लाख तक है। इस बार राष्ट्रपति पद की प्रमुख दावेदार मानी जा रही [envoke_twitter_link]दक्षिणपंथी नेता मारी ली पेन ने आतंकवाद और इस्लाम की एक स्याह तस्वीर लोगों के सामने पेश की।[/envoke_twitter_link] उन्होंने मुस्लिम कट्टरपंथ का जिक्र करते हुए कहा कि “आने वाले समय में इसके चलते फ्रांस की महिलाओं को कैफे में जाने या स्कर्ट पहनने पर रोक लगा दी गई होगी।”

अपने घोषणापत्र में आगे ली पेन ने कहा कि अगर वे राष्ट्रपति बनती हैं तो फ्रांस को यूरोपीय संघ से बाहर निकाले के लिए प्रयास करेंगी। ली पेन ने कहा “यूरोपीय संघ का हिस्सा होने से फ्रांस पर कई तरह के बेवजह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। ऐसे में यूरोपीय संघ से बाहर निकल कर फ्रांस अधिक तरक्की कर सकता है।” ली पेन ने यूरोपीय संघ को विफल करार दिया।

[envoke_twitter_link]ली पेन की सोच वैश्वीकरण के खिलाफ हैं।[/envoke_twitter_link] पेन का मानना है कि वैश्वीकरण दासता को बढ़ावा देने वाली एक व्यवस्था है। वैश्वीकरण के चलते दुनिया भर के प्रतिभाशाली लोग दूसरे देशों में दासता का जीवन जीने को मजबूर हैं। इस तरह की बातों के चलते ली पेन की बढ़ती लोकप्रियता को, फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव पर अमेरिकी चुनाव के असर की तरह देखा जा सकता है। क्योंकि अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प ने भी चुनाव प्रचार में ऐसी ही बातें कहीं थी और ट्रम्प अमेरिका के वोटरों को अपनी आकर्षित करने में सफल भी हुए थे।

राजनीतिक जानकारों की मानना है कि ली पेन के द्वारा की जा रही इस तरह की लोकलुभावन बातें फ्रांसीसी वोटरों को पहले चरण के मतदान में आकर्षित करने में सफल हो सकती हैं। जबकि आगे चलकर दूसरे दौर में होने वाले मतदान में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। खैर डोनॉल्ड ट्रम्प को लेकर भी इस तरह की बातें कहीं गई थीं कि ट्रम्प की अतिरेकी बातों का लाभ केवल शुरुआती दौर में ही मिलेगा। मगर ट्रम्प को आखिरी दौर तक अमेरिकी जनता का वोट मिला।

फ्रांस का यह राष्ट्रपति चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला है। स्पष्ट शब्दों में इसकी वजह यही है कि अमेरिका के बाद अब फ्रांस में भी ऐसी नेता राष्ट्रपती पद की दावेदार हैं, जिसके विचार आंतकवाद, इस्लाम, वैश्वीकरण व यूरोपीय संघ जैसे संगठनों को लेकर काफी उग्र हैं।

ऐसे में इस बात की सुगबुगाहट शुरु हो गई है कि [envoke_twitter_link]क्या अब दुनिया बड़े देशों के कारण एक नये दौर से गुजरने को मजबूर होने वाली है?[/envoke_twitter_link] क्या अब फिर से ऐसा दौर शुरु होने जा रहा है जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों व उदारता की महत्ता को नकार दिया गया होगा? दूसरे देशों की बुनियादी मदद पर भी आंख मूंदें सारे के सारे देश अपनी लालसाओं की पूर्ति में ही लगे होगें?

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