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सभी जातीयों ने अब तक तय कर लिया होगा कि उन्हें किसे वोट करना है।

सभी राज्यों में चुनाव का माहौल बन गया है। सभी जातियों ने अब तक फैसला कर लिया होगा कि उन्हें किसे वोट करना है। चाहे वो उच्च वर्ग हो या निम्न वर्ग किसी ने इस ओर ध्यान नही दिया होगा कि:-
* जितनी पार्टियां चुनाव में शिरकत कर रही है उनके मेनिफेस्टो में क्या-क्या है और मेनिफेस्टो कहां है?
* उनके मेनिफेस्टो में किन बातों पर विचार किया गया है ओर किन बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया।
* किसी ने भी इस पर विचार करना जरूरी नही समझा होगा कि पिछले साल जिस पार्टी ने चुनाव में जीत हासिल की थी उस समय उसने कौन कौन से वादे किये थे और ऐसे कौन से वादे हैं जिसे वो पूरा नहीं कर पाई।
* उस सरकार के अच्छे कामों का पलरा भाड़ी है या बुड़े कामों का।
* क्या हमें फिरसे उसे सत्ता में लाना चाहिए?
* यदि हां तो, इस बार के चुनावी मुद्दे क्या है? हम किस मुद्दे पर वोट करने जा रहे है?

सच तो ये है कि हम आज भी इन बातों को दरकिनार कर देते हैं। सभी वर्ग केवल यही सोचते हैं कि कुछ भी हो जाये पर इस बार अपनी जाति के लोगों के सिर पर ही सत्ता का ताज सजायेंगे। अगरी जाति सोचती है कि यदि सत्ता में कोई अगरी जाति वाला आ जाता है तब इन छोटे जात वालों को असलियत पता चलेगी, जहां थे वहीं रहेंगे। और निचली जाति वाले सोचते हैं कि कोई दलित सत्ता पर अपना कब्जा करता है तो ऊंचे जात वालों को औकात पता चल जायेगी, वाट लगेगी इनकी। असलियत में हम एक दूसरे के ही दुश्मन बने बैठे हैं। तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार,और जातिवाद से अपने देश को क्या निजात दिलवा पाएंगे। ये ऐसे मुद्दे हैं जिसके लिए हर वर्ग को काम करना होगा, जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक ये मुद्दे अभिशाप बनकर हमारे सामने झूलते रहेंगे और हम जाति से ऊपर उठने का नाम नहीं लेंगे।

एक वाक्या सुनिये। जब लोकसभा के चुनाव का परिणाम घोषित हुआ था तब मेरे मोहल्ले के राजपुताना टोली में होली-दिवाली मनायी गयी थी, ढोल-नगारे बजाये गये थे। और जब बिहार के विधानसभा चुनाव का परिणाम आया तब यादवों की टोली में होली-दिवाली मनायी गयी। किस ओर जा रहे हम ? ये विरोधाभास हमें ज्यादा दिन चैन की नींद नहीं सोने देगा हम तो जातियों के बीच गहरी हुई इस खाई को पाटना चाहते थे पर ये तो और भी गहरी होती दिख रही है।

  1. पिछले कुछ सालों में लोगों की राजनीतिक समझ थोड़ी विकसित हुई है। अब लोग वोट करने के लिए घरों से तो निकलते हैं। लेकिन वोट किस आधार पर करना चाहिए और इसका पैमाना क्या है इसे लोग अभी भी समझ नहीं पाए हैं और समझना भी नहीं चाहते। केवल जाति और लालच में फंसकर रह गये हैं और राजनेता ठाठ से बैठकर जातीये समीकरण से ये अंदाजा लगा लेते हैं कि उन्हें कितने वोट मिलने वाले हैं। लोगों के राजनीतिक समझ को विकसित करने के लिए हमें अभी काफी कार्य करने की जरुरत है। मुझे लगता है कि हम इसे खत्म कर सकते हैं पर हर उस इंसान को जाति से ऊपर उठकर सोचना होगा जो सामाजिक और राजनीतिक समझ रखता है, उन्हें अपने स्तर पर लोगों का प्रतिनिधित्व करना होगा। उन्हें दोनों पक्षों को लोगों के सामने रखना होगा और कहना होगा कि चुनाव आपको करना है कि आपको क्या सही लगता है और क्या गलत। यदि हम इस खाई को और गहरा करेंगे तो शायद हम सब उसमें गिरकर कर अपना अस्तित्व खो बैठेंगे।
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