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छोड़ आए हम वो गलियां…

पलायन शब्द का ज़िक्र होते ही मैं भी अपनी कहानी में उलझ जाता हूं। गर्मी की छुट्टियों में मेरे अधिकांश दोस्त कहते कि वो गांव जा रहे हैं। मैं अपनी छुट्टियों में नानी के घर ही जाया करता था तो मुझे यही लगता कि मेरा गांव वहीं जोधपुर में है। थोडा बड़ा हुआ तो पता चला कि नहीं गांव वो नहीं है और साथ ही यह भी पता चला कि हमारा तो कोई गांव ही नहीं है। फिर दादी ने बताया कि कैसे वो बंटवारे के समय सबकुछ छोड़कर पाकिस्तान से भारत आईं। वो सब याद करते हुए एकाध बार वो रो भी दिया करती थी।

इस पूरी घटना को लगभग सत्तर साल गुज़र चुके हैं लेकिन इसके निशान आज भी हमारे साथ हैं, विस्थापितों की मेरी पीढ़ी के लोगों ने गांव ही नहीं देखा। अगर हम आस-पास मौजूद लोगों से बात करें तो पता पड़ता है कि ऐसी कितनी ही कहानियां यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं।

मेहसाणा, गुजरात के निवासी और बैंगलोर में एक कंसल्टिंग एजेंसी में काम कर रहे तेजस और कश्मीर से आई इन्धा के अनुसार “अपने शहर को छोड़कर यहां काम करने का उनका फैसला उनकी प्रोफेशनल ग्रोथ के लिये है।” वहीं बैंगलोर में ही सेक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर रहे असम के ताजुद्दीन और पान की दुकान चला रहे बिहार के संतोष ने कहा, “उन्हें अपने काम से छुट्टी 2 या 3 साल में एक बार ही मिलती है जब वो अपने घर जा पाते हैं। परिवार की याद तो आती है लेकिन अब मोबाइल और व्हाट्स एप की मदद से अपने परिवार के साथ हमेशा सम्पर्क में रह पाते हैं।”

गुलाब खजुराहों, मध्य-प्रदेश के निवासी हैं और अक्षय अहमदाबाद के रहने वाले हैं, दोनों ही आईटी प्रोफेशनल्स हैं। अपने घर से दूर होने की बात पर गुलाब ने कहा कि वो इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचते तथा वो बैंगलोर आकर खुश हैं और अगर वे अपने क्षेत्र में अच्छा कर पाए तो वे बैंगलोर में सेटल होना पसंद करेंगे। वहीं दूसरी ओर अक्षय ने कहा कि वे अपने करियर के शुरुआती दौर में ही हैं और यहां पर इसीलिए आये हैं कि वे लगातार कुछ नया सीखते रहे। लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि वो यहां लंबे समय तक नहीं रहना चाहेंगे क्योंकि वे ज़्यादा समय तक परिवार से दूर नहीं रह सकते। अक्षय ने कहा कि उन्हें इसी तरह का अनुभव और काम यदि अहमदाबाद में मिले तो वो आज ही वापस जाना पसंद करेंगे।

ताज, मोहम्मद हुसैन और संजय ये तीनो एक साथ बैंगलोर के एक रेस्टोरेंट में काम कर रहे हैं और इनकी उम्र भी अभी काफी कम है इन तीनो की उम्र क्रमशः 22, 18 तथा 17 साल है। इन तीनों ने जब इनकी शिक्षा के बारे में पूछने पर इन्होने बताया कि घर कि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने की वजह से उन्होंने पढ़ाई नहीं की और बहुत कम उम्र से ही काम कर रहे हैं।

बिहार से ताल्लुक रखने वाले ताज यहां आने से पहले बंगाल में काम कर चुके हैं लेकिन उन्हें बैंगलोर ज़्यादा पसंद हैं उन्होंने कहा कि यहां का मौसम अच्छा है। घर से दूर रहने के सवाल पर उनका यही जवाब था कि उनके शहर में ना तो काम है और ना ही अच्छी मजदूरी, उन्होंने इसे अपनी मजबूरी बताते हुए कहा यहां उन्हें अच्छा पैसा मिल जाता है और वो इसमें से थोड़ी बचत भी कर पाते हैं।

मोहम्मद हुसैन भी नवादा बिहार से हैं और उन्हें यहां आए तकरीबन 6 साल हो गये हैं। यह पूछने पर कि गांव में ऐसा क्या पसंद हैं जो शहर में नहीं हैं का जवाब देते हुए वो कहते हैं कि गांव में उनके खेतो में जो हरियाली उनके आस-पास होती हैं वो यहां उन्हें नहीं दिखाई देती। लेकिन वो यह भी बोलते हैं कि उन्हें खेती करना पसंद नहीं हैं इसलिए वो यहां काम कर रहे हैं।

संजय जो इनके समूह में सबसे छोटे हैं गिरिडीह, झारखण्ड से हैं और यहां से पहले दिल्ली में भी डेढ़ साल तक काम कर चुके हैं और उन्हें यहां आये हुए भी 2 साल हो गये हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें अपने शहर में भी काम मिल जाता है, लेकिन वहां लोग मजदूरी देने में आनाकानी करते हैं और उनका व्यवहार उनके लिये अच्छा नहीं होता। उन्होंने कहा कि इस मामले में बैंगलोर अच्छा हैं जहां उन्हें समय पर उनकी तनख्वाह मिल जाती है। वे अपने परिवार की भी कमी यहां महसूस करते हैं। उनसे भविष्य के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि वो यहां काम करके थोड़ा पैसा इकठ्ठा करना चाहते हैं जिससे कि वो अपने शहर में कोई छोटा सा काम शुरू कर सकें।

17 साल के कौसर अंसारी चाय की स्टाल पर काम करते हैं और उन्हें बैंगलोर आये हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ हैं। वे 2 महीने पहले ही यहां आये हैं और ये भी झारखण्ड के ही रहने वाले हैं। यह पूछने पर कि उन्हें यहां के बारे में किसने बताया या उन्हें यहां कौन लाया उसके जवाब में उन्होंने कहा कि यहां पर उनके आस-पास के गांव के बहुत लोग काम करते हैं जिनकी मदद से वो यहां आए हैं। यहां आने का कारण परिवार की आर्थिक स्तिथि अच्छी ना होना ही है।

पुट्ठेगव्डा मदुरै के रहने वाले हैं और उन्हें यहां आये हुए 20 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, वो यहां अपने परिवार के साथ ही रहते हैं। पलायन पर बात करते हुए वो कहते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी मदुरै में ही रहते हैं और उनके यहां समय-समय पर आते रहते हैं तथा वो भी साल में एक बार अपने गांव जाते हैं। यहां आने पर उन्होंने कहा कि उन्हें खेती नहीं करनी थी क्योंकि उसमे मेहनत अधिक थी लेकिन उसके हिसाब से कमाई नहीं होती थी तो वो यहां आ गये। वो इस बात से परेशान हैं कि हर साल बैंगलोर में बाहर से लोग आते जा रहे हैं और यहां पर भीड़ बढ़ती जा रही है।

पंकज कानपुर, उत्तर प्रदेश से हैं और वे बैंगलोर में एक नार्थ-इंडियन रेस्टोरेंट चलते हैं। इन्हें यहां आये हुए 15 साल से अधिक समय हो चुका है और अब वे अपने परिवार के साथ ही रहते हैं। वो कहते हैं कि उनके कानपुर की बात अलग हैं, वैसा मज़ा और आनंद यहां नहीं आता। लेकिन अब उन्होंने यहां पर अपना व्यापार स्थापित कर लिया है तो वे अब यहां से नहीं जा सकते।

अगर इन सभी कहानियों को देखें तो पलायन करने वाले लोगों के दो तरह के तबके सामने आते हैं। एक वो है जो आर्थिक रूप से सक्षम है, जिसे अच्छी शिक्षा मिली है उसके लिये यह पलायन ऐच्छिक और नए मौकों को भुनाने वाला है। दूसरी तरफ एक तबका ऐसा है, जो अच्छी शिक्षा के अभाव और अवसरों की कमी जैसी बुनियादी सुविधाओं से जूझता रहा है।दोनों ही तबकों में ही अपने परिवार और जगह से अलग होने का दुःख बराबर है। बातों-बातों में लोग दोहराते हैं कि अगर इस तरह के अवसर और रोज़गार उन्हें अपने शहरों में मिलें तो वो अपने ही शहर में रहने के विकल्प को चुनना चाहेंगे। कुल मिलाकर यह अलग-अलग भावनाओं से भरा अनुभव ही है, जहां एक तरफ लगातार आगे बढ़ने का संतोष है तो अपने घर-परिवार से दूर होने की वेदना भी।

फोटो आभार: हितेश मोटवानी

हितेश Youth Ki Awaaz हिंदी के फरवरी-मार्च 2017 बैच के इंटर्न हैं।

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